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चिंतन और चिंता से गायब उत्तराखंड

December 7, 2016
in पर्वतजन
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111उत्तराखंड के दीर्घकालीन हितों की चिंता न यहां की आम जनता को है और न ही नीति निर्धारक व कार्यपालक नेताओं और अफसरों का इस पर कोई चिंतन

वीरेंद्र पैन्यूली

पिछले सोलह सालों से हर नवंबर माह में जब उत्तराखंड राज्य के वर्षगांठ का समय होता तब लगने लगता है कि हम एक कदम और गर्त के नजदीक और 42 शहादतों और मूल निवासियों के जन आकांक्षाओं से दूर हो गये हैं। रामपुर तिराहे पर ही आंदोलनकारी महिलाओं को अवर्णनीय अभिशाप नहीं सहना पड़ा था, परंतु राज्य में भी वह क्रम जारी है। शराब जिसे पूरे उत्तराखंड में महिला बंद होना देखना चाहती थीं, उसके बेनामी व्यापार में उन्हें धकेल दिया गया है। सचिवालय, पुलिस के अधिकारियों से ही राज्य में उनकी अस्मिता को खतरा नहीं पहुंचा है, बल्कि नेता व मंत्री रहे लोग भी विभिन्न आश्वासनों के प्रलोभनों से उनकी अस्मिता सेखिलवाड़ के दोषी रहे हैं।
महिलाओं के मामले में राज्य को इतना सॉफ्ट स्टेट मान लिया गया है कि आए दिन बाहर के राज्यों से महिलाओं को तीर्थ स्थलों, पर्यटन स्थलों में लाकर हत्या कर दे रहें हैं। मानव तस्करी व अंतर्राज्यीय कॉल गल्र्स के जघन्य अपराधी राज्य में सक्रिय हैं। आज हर क्षण लग रहा है कि राज्यवासी अपने सौभग्य व पुण्य से दूर और कलुष के नजदीक पहुंच रहे हैं। दलालों व मुन्नाभाइयों की और जेल से सुपारी भिजवाने वालों की फौज तैयार हो रही है।
राज्य के मेडिकल कालेजों आयुर्वेदिक विद्यालयों में मुन्नाभाइयों की भरमार चिन्हित हो रही है। मेडिकल कालेजों में भर्ती में दलाली की रकम और अपराधों की आंच राज्य में नेताओं तक भी पहुंची है। भर्ती घोटालों की तो बात ही छोड़ दें। निगमों में, आयोग में पूर्व सैनिकों की सस्थाओं में सभी जगह ये खेल हुआ है।
याद कीजिए 2014 में राज्य जब अपनी १४वीं वर्षगांठ मनाने के नजदीक था, तब लगभग सात साल की मासूम के साथ हल्द्वानी क्षेत्र में यौनिक दरिन्दगी कर उसे मार दिया गया था।
इस जघन्य काण्ड को उत्तराखंड का लिटिल निर्भया काण्ड भी कहा गया था। खास ध्यान देने की बात यह है कि उत्तराखंड में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों को देखते हुए राज्य में तथाकथित निर्भया योजना लागू कर दी गई थी। 2014 में ही स्थापना दिवस के पास ही जौनसार में एक पर्यटक जोड़े की हत्या कर दी गई थी। इसी साल विकासनगर कोतवाली क्षेत्र में मानसिक रूप से कमजोर किशोरी से दुराचार किया गया।
राज्य में 2013 में जून आपदा के बाद सरकारी अधिकारियों के राहत कार्यों के दौरान आरटीआई से मटन, गुलाब जामुन व 7000 रुपए प्रतिदिन के होटल में रहने के जैसे जो बिल पास किये गये थे, वह भी 2015 में सरकार द्वारा जब जाchintयज ठहराया गया। वह भी संकेतक है कि पर्यावरणीय संवेदनशील राज्य में आपदाओं की आड़ में सरकार कितनी संवेदनहीन दिख सकती है।
2015 की पंद्रहवी वर्षगांठ के आस-पास भी ऐसा ही कुछ घटित हुआ, जिससे लगा कि राज्य बैक गियर में चल रहा है। नवम्बर 2015 में ही हाईकोर्ट ने नैनीसार भूमि को जिन्दल ग्रुप को देने के मामले में स्थिति साफ करने को कहा था। दलितों के जौनसार इलाके में मंदिर प्रवेश के समय व उसके बाद एक दलित परिवार ने जो कुछ अपने प्रति हुए व्यवहार के बारे में कहा या तत्कालीन राज्यसभा सांसद तरुण विजय ने जो कुछ कहा था, वह चिंताजनक है। यही नहीं इसके बाद तो 2016 में एक दलित युवा को धारदार हथियार से मौत के घाट इसलिए उतार दिया गया था, चूंकि उसने प्रतिष्ठान स्वामी के अनुसार भीतर प्रवेश कर स्थल अपवित्र कर दिया था। ऐसे उत्तराखंड का तो शायद सपनों में भी नहीं सोचा गया होगा। निस्संदेह आज के कांग्रेसी राज्यसभा सांसद प्रदीप टम्टा ने राज्य आंदोलन के दौरान दलितों के साथ प्रस्तावित राज्य उत्तराखंड में दलितों के साथ भेदभाव की संभावनायें व्यक्त की थीं और तब इसके लिए उनकी आलोचना भी हुई थी।
नवम्बर 2015 में ही देहरादून के पास ही विकासनगर क्षेत्र के गांव में ऐसी ही घटना हुई थी कि ट्यूशन से लैाट रही एक छात्रा के साथ दुराचार हुआ था। 2015 तक आते-आते मानव तस्करी की जकडऩ की स्वीकारोक्ति के प्रतिफल स्वरूप ही राज्य में एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग सेल का गठन करना पड़ा।

इस नवंबर में तो हम कई चिंताजनक कीर्तिमान कायम करते दिख रहें हैं। पूर्व मुख्यमंत्री सरकारी आवास कब्जाए हुए हैं। वर्तमान मुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री के आधिकारिक आवास होने पर भी जब से मुख्यमंत्री बने, सरकारी गेस्ट हाउस में ही रह रहें हैं। शायद विधानसभाई चुनाव भी वो इसी सरकारी गेस्ट हाउस में रहते हुए लड़ेंगे। अपनी राजनैतिक पार्टी की बैठक वे इस समय तो इसी गेस्ट हाउस से कर रहें हैं। आगे फिर विधानसभाई चुनाव यदि यहां रहते हुए लड़ते, लड़वाते हैं, चाहे अपने या परिजनों के लिए भी, तो शायद यह चुनाव आचार संहिता का भी उल्लंघन होगा। इस राज्य के जन्म के समय राज्य में सरकार की स्थिरता, दस विधानसभा सदस्यों की सदस्यता भी सवाल के घेरों में तो है, ही साथ ही आपदा राहत के मद से केदारनाथ पर टेली सीरियल के लिए लगभग 13 करोड़ का अनुबंध और एक संस्था को साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा के भुगतान की जानकारी भी आ रही है।
केदारनाथ के नित निकलने वाले कंकाल चर्चा में हैं, परंतु उन घोषणाओं का भी अंबार लग रहा है, जो अर्थहीन हैं, क्योंकि इन पर जो कुछ भी करना होगा, वह आने वाली सरकार ही करेगी, परंतु यह भी जान लें कि 2012 के बाद के ही कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों ने शायद सोलह हजार घोषणाओं का आंकड़ा भी पार कर लिया होगा।
ऐसा अनुमान लगाना शायद गलत भी न होगा। ऐसा अनुमान इसलिए भी लगाया जा सकता है कि नवम्बर 2014 में ही वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत के 8,896 आदेशों में से केवल 346 पर ही कार्रवाई हुई थी।
इस राज्य में इस समय बच्चों के भविष्य को लेकर भी चिन्तायें ही चिंतायें ही हैं। सोलह साल के या उनसे भी कम उम्र के बच्चे व किशोर तथा किशोरियों की, जिन्होंने जन्म ही नव सृृजित राज्य में लिया और जिनके बाल अधिकारों की रक्षा इस राज्य में नहीं हो रही है। बच्चे गुम हो रहें हैं। बच्चियों के साथ पाशुविक कुकृत्य कर उन्हें मार दिया जा रहा है। बच्चे जान हथेली में रख कर स्कूल जा रहे हैं। नदी नाले गाद गदेरे जब उफान में रहते हैं तो उनकी जान सांसत में रहती है। chinta
ऐसी कहानियां हर जिले में सालों से दोहराई जा रही हैं। जर्जर ट्रॉलियों पेड़ों के तनों पर बच्चे उफनते नदी नाले पार कर रहें हैं। ट्रॉलियों में वे फंस भी रहें हैं। वे घायल भी हो रहें हैं। बच्चियां जंगली जानवरों का ग्रास भी बन रहीं हैं।
हाल में संपन्न गांव बचाओ यात्रा के सदस्य द्वारिका सेमवाल ने अपने यात्रा अनुभव साझा करते हुए बताया कि जब लोगों से उन्होंने पूछा कि इस राज्य को ऊर्जा प्रदेश, हर्बल प्रदेश, पर्यटन प्रदेश या किस नाम का प्रदेश कहें तो लोगों का कहना था कि इसे ‘हताशा प्रदेशÓ कहा जाए। लोगों का कहना काफी हद तक सही भी है। जिस हद तक पहाड़ों की नींव खोद दी गई है, पहाड़ों को आपदाओं का घर और राजनैतिक शह पाये माफियाओं का गढ़ बना दिया गया है, उससे यह हताशा तो हुई है कि इस राज्य को अब पहाड़ी राज्य न बनाया जा सकेगा, जो कि इस राज्य को उप्र से अलग करने के पीछे का मूल कारण था।
हालात पहाड़ी क्षेत्रों के इतने विरुद्ध हो गये हैं कि इस राज्य के एक स्वनाम धन्य विधायक यह कहने से नहीं अघाते हैं कि पहाड़ वाले तराई पर बोझ हैं।
यही नहीं तराई के हित रक्षा के लिए एक बार यहां से एक उप मुख्यमंत्री बनाने की मांग भी उठाई गई थी। हाईकोर्ट तक निर्देश कर चुका है कि कैम्प कार्यालय न चलाये जाएं, परंतु पहाड़ों की अनदेखी करते हुए कैम्प कार्यालय अब भी अनौपचारिक रूप से चल रहें हैं।
चलते-चलते एक ओपन ऑफर की खबर बार-बार चल रही है। अपने पर लगे आरोपों से व्यथित वर्तमान मुख्यमंत्री अपनी संपति को किसी भी आरोप लगाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री से अदला-बदली करने को तैयार हैं, परंतु अब तक तो कोई उनकी चुनौती को स्वीकार करने को नहीं आया है। शायद यह ओपन ऑफर भी जरूरी न होता, यदि यहां लोकायुक्त के लिए बार-बार राज्य सरकार ऐसे नाम को ही राज्यपाल के सामने न रखती, जिनके विगत पर प्रश्न चिन्ह लगाने का मौका मिल रहा है।
वैसे इस समय का चिंताजनक पहलू यह भी है कि सवालों के घेरे में रहे आला अधिकारी चुनावी बिसात बिछाने में भी लगे हैं। यह भी आम जनता को एक मौका देगा कि राज्य के नेता और मतदाता राज्य को खाई की ओर ले जा रहें हैं या उससे लौटाने का उपक्रम कर रहे हैं।
(लेखक सामाजिक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)


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