निकाय चुनाव मे टिकट वितरण मे राय मशविरा न किए जाने से नाराज भाजपा के अनुषांगिक संगठन आरएसएस ने सहयोग से हाथ खड़े कर दिए हैं।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत द्वारा अपनी पसंद थोपने जाने से नाराज वैसे तो प्रदेश संगठन भी है लेकिन संघ और भाजपा के असहयोग आंदोलन मे मूलभूत अंतर है। भाजपा ने चालाकी से ऐलान कर दिया है कि चुनाव मुख्यमंत्री के चेहरे पर लड़े जाएंगे।
पाठकों को याद होगा कि वर्ष 2007 में खंडूरी के चेहरे पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा में “खंडूरी है जरूरी” वाले भुवन चंद्र खंडूरी अपना ही चुनाव हार गए थे और फिर ऐसे अप्रासंगिक हो गए कि आज किसी भी संदर्भ में उनका प्रसंग याद नहीं किया जाता।
वहीं संघ के प्रदेश पदाधिकारियों ने खामोशी ओढ ली है। संघ के जिला स्तरीय पदाधिकारियों का कहना है कि उन्हें प्रदेश से कोई निर्देश नही मिले हैं।जैसा निर्देश दिया जाएगा उसका अनुपालन किया जाएगा।
1979 में आर एस एस कार्यकर्ता के रूप में अपना कैरियर शुरू करने वाले त्रिवेंद्र सिंह रावत वर्ष 2002 तक आर एस एस के फुल टाइम वर्कर रहे। वह उत्तराखंड भाजपा के ऑर्गेनाइजिंग सेक्रेट्री भी रहे तथा झारखंड के प्रभारी भी रहे हैं। उन्हें संघ की कमजोरियां और मजबूती दोनों अच्छे से मालूम है।
संघ और मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत के बीच मतभेद अब कोई छुपी बात नही रह गए हैं लेकिन निकाय चुनावों पर इसकी छाया पड़ने से मुख्यमंत्री के माथे पर भी बल पड़ गए हैं।
वहीं संघ का एक धड़ा भाजपा के प्रदेश संगठन मंत्री संजय कुमार के प्रकरण में सहयोग करने के आश्वासन के साथ निकाय चुनाव मे सहयोग करने का रास्ता खोलना चाहता है।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत संघ पर नकेल डालने के लिए संजय कुमार प्रकरण मे पुलिस प्रशासन को शामिल करने के पक्षधर है तो संघ इस प्रकरण को बाहर ही बाहर सुलटा लेना चाहता है।
गौरतलब है कि प्रचंड बहुमत से भाजपा की सरकार बनने के दौरान या माना जा रहा था कि सरकार के कामकाज पर संघ की बारीक नजर रहेगी। संघ ने यह तय किया था कि सरकार पर नागपुर तथा दिल्ली से संघ और भाजपा का आलाकमान लगातार समीक्षा करता रहेगा।
वर्ष 2007 मे राज्य में भाजपा की सरकार थी लेकिन तब सरकार और संघ के बीच का अनुभव अच्छा नहीं रहा। इस बार ऐसे किसी नुकसान से बचने के लिए शुरुआत में ही मुख्यमंत्री के ओएसडी से लेकर सचिवालय और तमाम सरकारी विभागों में आरएसएस से जुड़े लोगों को ही महत्वपूर्ण पदों पर बिठाए जाने की रणनीति बनाई गई थी, लेकिन समय के साथ उत्तराखंड की जिम्मेदारी उठाने वाले संघ के नेताओं ने उत्तराखंड में योग्य संघियों को जिम्मेदारी देने के बजाय अपनी पसंद के संघियों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाना शुरू कर दिया। इससे जीरो टोलरेंस के चेहरे पर काम करने वाले त्रिवेंद्र सिंह रावत को रूटीन कामकाज में भी संघ का हस्तक्षेप खलने लगा।
एक साल मे संघ की गलत कार्यशैली के कारण संघ का दबदबा घटता चला गया और त्रिवेंद्र रावत संघ पर हावी होते चले गए। इस बीच भाजपा के राष्ट्रीय सहमहामंत्री संगठन शिवप्रकाश और प्रदेश संगठन मंत्री संजय कुमार के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामलों ने प्रदेश पर उनकी पकड़ को लगभग खत्म कर दिया और सीएम को ‘फ्री हैंड’ मिल गया। मुख्यमंत्री ने अपने क्षेत्र में तथा अपनी पसंद के विधायकों को भी निकाय चुनाव का प्रत्याशी फाइनल करने में फ्री हैंड दे दिया, जिससे उन क्षेत्रों में संघ पूरी तरह से हाशिए पर चला गया। फिलहाल संघ और भाजपा संगठन ने सीएम को लेकर अलग ही अंदाज मे ‘पुश एंड पुल’ नीति अपना ली है। संघ ने कदम खींच लिए तो भाजपा ने “सीएम के चेहरे पर चुनाव” वाली चोक देकर सीएम को अकेले मैदान मे धकेल दिया है। दोनो चाहते यही हैं कि सीएम अपनी मर्जी चलाने का खामियाजा भुगतें तो उनकी अक्ल ठिकाने आएगी। किंतु यदि नगर निगमों की सीट निकालने मे कामयाब रहे तो सरकार संघ की गड़बड़ियों को लेकर उसकी घेराबंदी कर सकती है।और यदि निगम हाथ से फिसले तो इन्ही सर्दियों मे सीएम के अच्छे दिनों का पतझड़ शुरू हो सकता है।