श्री नारायण दत्त तिवारी
एन.डी. तिवारी नाम सुनते ही एक बारगी सुनने वाले के मन-मस्तिष्क में कई प्रेरणादायक तस्वीरें उभरने लगती हैं। मेरा इस नाम से पहला साक्षात्कार मोतीमहल, लखनऊ में हुआ। मैंने उस समय लखनऊ विश्वविद्यालय में थोड़ी-2 नेतागिरी शुरू की थी। हमारे क्षेत्र के दो बड़े नेता सल्ट के श्री लक्ष्मण सिंह अधिकारी एम.एल.सी. व नया के सामाजिक नेता श्री कुंवर सिंह मनराल मुझे श्री सी.बी. गुप्ता जी से मिलाने ले गये थे। स्व. गुप्ता जी उत्तर प्रदेश व देश के बहुत बड़े नेता थे। उनकी खासियत थी कि, वे छोटे-बड़े सभी को अपने से जोड़ते थे। वहीं मेरा परिचय श्री नारायण दत्त तिवारी जी से हुआ। लम्बी अचकन, कुर्ता व चौड़ा सा पैजामा, घुंघराले बालों वाल बड़े सुदर्शन व्यक्तित्व श्री तिवारी बड़े अच्छे लगे। मनराल जी ने श्री तिवारी जी से मेरा परिचय छात्र नेता के रूप में कराया। कुमाऊँनी बोली में तिवारी जी ने मेरा सारा हुलिया पूछ डाला, परिणामस्वरूप मैंने, उन्हें विश्वविद्यालय में आयोजित की जा रही गोष्ठी के लिये आंमत्रित कर दिया। गोष्ठी में तिवारी जी ने बड़ा लच्छेदार भाषण दिया, मगर मुझे पूरी तरह भूल गये। वापसी में गाड़ी में बैठते वक्त जरूर धन्यवाद दिया। इस घटना ने लखनऊ के हमारे परिचय को आगे नहीं बढ़ने दिया।
हां विश्वविद्यालय में उनके एक परिचित ने लगभग डेढ़ वर्ष बाद जरूर मुझे तिवारी जी का एक आग्रह बताया। इन्दिरा गांधी जी को लखनऊ छात्रसंघ ने बड़ी चुनौतीपुर्ण स्थिति में विश्वविद्यालय कैम्पस में छात्रों को संबोधित करने बुलाया। राज्य में संविद सरकार थी। स्व. राज नारायण आदि ने घोषणा कर दी कि, इन्दिरा जी को विश्वविद्यालय में घुसने नहीं देंगे। समाजवादी युवजन सभा, विद्यार्थी परिषद, युवा कांग्रेस (सिण्डीकेट) सबने विरोध का खुला ऐलान कर दिया। राजनारायण जी ने स्वयं विश्वविद्यालय के बटलर हाॅस्टिल में दर्जनों समाजवादियों के साथ अड्डा जमा दिया। केवल युवा कांग्रेस (इण्डीकेट) व छात्रसंघ इन्दिरा जी की सभा के पक्ष में, शेष सब विरोध में। हमने इन्दिरा जी के आगमन से दो घंटे पहले योजनागत तरीके से सभी समाजवादी योद्धाओं को हाॅस्टिल के बाथरूम्स व कमरों में बन्द कर दिया। स्व. राजनारायण व स्व. जनेश्वर मिश्रा जी सहित दो दर्जन नेता फिर भी विश्वविद्यालय के मैदान तक पहुंच गये। हमने सौ-सौ लड़कों का घेरा बनाकर इन्दिरा गाॅधी जिन्दाबाद के साथ उन्हें घेरे रखा। इन्दिरा जी आई, 50 मिनट बोली व सबका दिल जीतकर चली गई। श्री तिवारी जी का आग्रह था कि, मैं अपने प्रभाव का उपयोग कर मंच पर उन्हें स्थान दिलवाऊं। उस समय कांग्रेस में इण्डीकेट-सिण्डीकेट बन गये थे। तिवारी जी मध्य में थे। तिवारी जी, के.सी. पन्त जी के मूवमेन्ट को वाॅच कर रहे थे, ताकि वे अपना पक्ष तय कर सके।
तिवारी जी का कुमाऊं भ्रमण और दूरियां
इन्दिरा जी के लखनऊ आगमन के 7-8 महीने बाद लखनऊ में भारी बाढ़ आयी। विश्वविद्यालय भी पूर्णतः जलमग्न हो गया। मैं कुछ समय के लिये घर माॅ को देखने आया। फिर लम्बे समय तक गाॅव में ही रह गया। लखनऊ की सारी मस्ती छूट गई। इस दौरान मैं अपने ब्लाॅक का प्रमुख बन गया। तिवारी जी भी राज्य में कई भारी विभागों के साथ पर्वतीय विकास विभाग के भी मंत्री बन गये। हमारे ब्लाॅक का एक शिष्टमण्डल उनसे लखनऊ में मिला और उन्हें भिक्यिासैंण आने के लिये आमंत्रित किया। तिवारी जी आये, तीन सड़कें व एक बड़ा हाॅस्पिटल स्वीकृत कर गये।
इस समय तक इन्दिरा गाॅधी जी के साथ-2 तिवारी जी भी मेरे आदर्श पुरूष बन गये थे। मैं उनके कुमाऊं भ्रमण पर हर जगह हाजिर होता था। तिवारी जी की विन्रमता, स्मरणशक्ति व वाकचातुर्य तथा मेहनत करने की क्षमता ने मुझ पर गहरा असर डाला। मैं इस समय तक जिला युवा कांग्रेस का अध्यक्ष भी हो गया था। इसी दौरान कांग्रेस की एक बैठक में, मैंने श्री एच.एन. बहुगुणा जी की बड़ी तारीफ कर दी। इस घटना के बाद तिवारी जी थोड़ा मुझसे दूर हो गये। इधर कुछ दोस्तों के सहारे मैं मा. संजय गाॅधी जी के सम्पर्क में आया। संजय जी के पाॅच सूत्रीय व इन्दिरा जी के बीस सूत्रीय कार्यक्रम ने मुझमें एक नशा सा पैदा कर दिया। संजय जी का नाम दिल-दिमाग में ऐसा छाया कि, मैं सब कुछ भूल गया परन्तु तिवारी जी के लिये प्रेमपूर्ण आदर हमेशा बना रहा। सन 1977 में कांग्रेस की राष्ट्रव्यापी हार हुई। बड़ा कठिन दौर आया। बड़े-2 नेता भाग गये। इन्दिरा जी व संजय जी के संघर्ष ने लाखों लोगों को प्रेरित किया। इस प्रलयकारी हार के एक साल के अन्दर ही गाॅव-2 में फिर इन्दिरा गाॅधी जिन्दाबाद के नारे गूंजने लगे। आजमगढ़ के चुनाव के बाद सत्ता जनता पार्टी की रही, मगर जनता इन्दिरा जी के साथ खड़ी होने लगी।
कांग्रेस की हार ने खोले द्वार । संजय गांधी का प्रभाव
कांग्रेस की इस बड़ी हार ने हम जैसे लोगों के लिये राजनीति के रास्ते खोल दिये। मुझ जैसे सैकड़ों युवा सब कुछ भूलकर संजय गाॅधी जी के पीछे खड़े हो गये। संजय जी संघर्ष की प्रतिमूर्ति थे। केन्द्र की उस समय की सरकार उन्हें जेल में डालने को आमदा थी। लक्ष्य इन्दिरा जी थी, मगर निशाना संजय जी थे। संजय जी को तो सजा नहीं हुई, हाॅ इस प्रयास में केन्द्र सरकार जरूर बिखर गई। इतिहास के इस छोटे से कालखण्ड में कई घटनायें घटित हुई। भारत की राजनीति नये शिरे से आगे बढ़ी। “इन्दिरा लाओ-देश बचाओ” नारे के साथ लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हुये। कांग्रेस की विजय हुई, इन्दिरा जी पुनः प्रधानमंत्री बनी।
युवक कांग्रेस के साथ ग्यारह साल के संबन्ध ने मेरे भाग्य की धारा को भी बदल दिया। संजय जी के आर्शीवाद से इन्दिरा जी का स्नेह मुझे हांसिल हुआ। सबको आश्चर्यचकित करते हुये, मुझे भी लोकसभा का टिकट मिला। मैं टिकट (चुनाव चिन्ह का अधिकार पत्र) लेकर तिवारी जी के पास गया। उन्होंने मुझे गले लगाकर आशीर्वाद दिया। इस आशीर्वाद में स्व0 गोर्वधन तिवारी जी जो जिला पंचायत अल्मोड़ा के पूर्व अध्यक्ष थे और बाद में 1980 में विधायक व मंत्री बने, उनकी प्रेरणा सम्मिलित थी। उस समय कांग्रेस में हमारे क्षेत्र से दो बड़े नेता थे। श्री हेमवतीनन्दन बहुगुणा व श्री नारायण दत्त तिवारी जी, दोनों अल्मोड़ा से लगे संसदीय क्षेत्रों से चुनाव लड़े और जीते। मंत्रिमण्डल के गठन के वक्त व बाद में भी मैं भक्तिभाव से तिवारी जी के साथ खड़ा रहा। तिवारी जी यदा-कदा संसदीय कार्यों, चिठ्ठी पत्री लिखने व विकास की सोच का मुझे पाठ सिखाते रहते थे। मुझे जनसेवक के रूप में ढालने में, तिवारी जी की प्रेरणा को मैं कभी नहीं भूल सकता हॅूं। सन् 1991 तक हमारा यह संबन्ध बना रहा। कभी-2 मुझे लगता था कि, मेरा उनसे यह प्रेम एंकागी है। तिवारी जी इतने गहरे हैं उनके भावों का अनुमान पाना कठिन था। समय के चक्र में घटित घटनाओं के परिणामस्वरूप राजीव गाॅधी जी कांग्रेस के महासचिव बने फिर प्रधानमंत्री बने। मेरी निष्ठा स्वभावतः राजीव जी में थी, गाॅधी-नेहरू परिवार में थी। मैं जो कुछ था उसी परिवार की कृपा से था। प्रारम्भ में सब कुछ ठीक-ठाक था। आगे सरकते समय के साथ राजीव जी से तिवारी जी की दूरिया बनने लगी। फिर भी मेरे और तिवारी जी के संबन्ध यथावत बने रहे। सन 1980 के बाद स्व. के.सी. पन्त जी पुनः कांग्रेस में आ गये थे।
तिवारी जी को शंका थी कि, मैंने इन्दिरा जी से उनके लिये लाॅबिंग की है। मगर मैं हमेशा सतर्क प्रयास करता था कि, कहीं भी मैं तिवारी जी से दूर न दिखूॅ, मगर पार्टी की आन्तरिक राजनीति अन कहे भी बहुत कुछ कहने लगी थी। लोग भी दूरियां बढ़ाने में जुट गये। लोगों के दुष्प्रयासों के बावजूद, मैं तिवारी जी से शिष्यत्व भाव से आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करता रहा।
राजीव गांधी की मौत के बाद
राजीव जी की आकस्मिक मौत के बाद पार्टी में प्रधानमंत्री पद की चर्चा चलने लगी। मैं उस समय पार्टी में व संसदीय दल में बहुत सक्रिय था। राजीव जी ने विपक्ष के नेता के तौर पर मुझे अपना सचेतक बनाया था। पार्टी में मेरे दोस्तों की संख्या बहुत बड़ी थी। अधिकांश दोस्त संसद की राजनीति में सक्रिय थे। चुनाव के नतीजे अभी आये नहीं थे, तिवारी जी का नाम भी प्रधानमंत्री पद हेतु चर्चा में था। एक दिन तिवारी जी मेरे घर पर डुबके-भात खाने आये। तिवारी जी ने मुझसे लोगों के मनोभावों की विस्तृत जानकारी ली। मैंने उनकी पूर्ण मद्द करने की बात कही। मैं दिल से चाहता था कि, मेरे घर गाॅव का व्यक्ति प्रधानमंत्री बने। यद्यपि पार्टी की आन्तरिक स्थिति तिवारी जी के पक्ष में नहीं थी, इस तथ्य से तिवारी जी भी परिचित थे। चर्चा हमारे क्षेत्र के चुनावों की भी चली। मैंने तिवारी जी से अपने मन की आशंका जाहिर की और एक घटना का जिक्र करते हुये बताया कि, मैं चुनाव हार रहा हॅू और तिवारी जी की जीत भी संदिग्ध है। यह सुनते ही गोरे तिवारी जी काले पड़ गये। मुझे उसी क्षण अपनी भूल का एहसास हो गया था। परन्तु तीर कमान से छूट चुका था। तिवारी जी के मन में मेरे लिये गहरी दरार पड़ गई। चुनाव के दौरान व पूर्व में घटित कई प्रसंगों जो तिवारी जी के चुनाव लड़ने से जुड़ी थी, पंत जी व तिवारी जी के मध्य विवाद को लेकर थी। तिवारी जी उनके लिये मेरे कुछ दोस्तों को दोषी मानते थे। हुआ वहीं जो नहीं होना चाहिये था। इतिहास के महत्वपूर्ण मोड़ पर हम दोनों चुनाव हार गये। मुझे अपनी हार से तिवारी जी की हार का ज्यादा सदमा था। मैं तिवारी जी को एक ऐतिहासिक सम्भावना मानता था, होनी हो चुकी थी। नरसिंहा राव जी प्रधानमंत्री बन गये। मुझे भी मेरी कांग्रेस भक्ति का कुछ ईनाम मिला। मुझे सेवादल का राष्ट्रीय दायित्व सौंपा गया। परन्तु तिवारी जी का आशीर्वाद मुझसे पूर्णतः छूट गया, बहुत बड़ी कीमत था मेरे लिये यह पद।
ऐसे पड़ी “कांग्रेस टी” नींव
स्व. हेमवतीनन्दन बहुगुणा जी व के.सी. पन्त जी समय के साथ पुनः कांग्रेस छोड़ गये। परन्तु तिवारी जी कांग्रेस के स्तम्भ बने रहे। मैं निरन्तर कोशिश करता रहा, तिवारी जी का स्नेह जीतू, मुझे राजनीति में खड़े रहने के लिये तिवारी जी की मद्द नहीं चाहिये थी, मगर भावनात्मक लगाव के चलते मैं तिवारी जी का स्नेह चाहता था। मेरी स्व. जितेन्द्र प्रसाद जी, स्व. माधो राव जी, स्व. राजेश पायलट जी, श्री गुलाम नबी जी से दोस्ती थी। तिवारी जी इन लोगों से दूरी रखते थे। तिवारी जी मुझे इन लोगों के साथ-2 स्व. नरसिंहाराव जी का भी अन्तरंग मानते थे। जबकि ऐसा कुछ नहीं था। राव साहब से मेरे संबन्ध केवल औपचारिक थे। मगर राजनीति के एक तकाजे के तहत श्री राव मुझे उत्तर प्रदेश कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहते थे। उनके द्वारा गठित सरदार बेंत सिंह समिति ने भी यही राय उन्हें दी थी। दुर्भाग्य से श्री तिवारी जी से बनी मेरी दूरी ने, तिवारी जी को उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिये अपने को दांव पर लगाने को मजबूर कर दिया। स्व. राव अन्दर ही अन्दर ऐसा ही चाहते थे। प्रदेश अध्यक्ष बनने के साथ तिवारी जी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा उत्तर प्रदेश में घिर गयी। यहीं से कांग्रेस टी की नींव पड़ी।
कांग्रेस और उत्तराखंड आंदोलन
रामपुर तिराहाकाण्ड व उससे पूर्व खटीमा, मसूरी, देहरादून में हुई सरकारी हिंसा ने देश को हिला दिया था। समस्त उत्तराखण्ड दुःखपूर्ण उद्वेग में था। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में मायावती जी/मुलायम सिंह जी की सरकार को समर्थन दे रही थी। गाॅव-2 में नारा गूंजा, नरसिंहाराव-उत्तराखण्ड का काव (काल)। कांग्रेस उत्तराखण्ड में अप्रसांगिक ही नहीं हो रही थी, बल्कि लोग हम लोगों से घृणा करने लगे थे। इस सारे दुःखद घटनाक्रम व राज्य आन्दोलन के दौरान, मैं निरन्तर प्रयास कर रहा था कि, कांग्रेस पूर्णतः अलग न छिटके, किसी न किसी रूप में राज्य की मांग के साथ जुड़ी रहे। मैंने स्व. राव जी को मनाया कि, वे उत्तराखण्ड को केन्द्रशासित राज्य बनायें व ओ.बी.सी. आरक्षण के दायरे में लावें। रामपुर तिराह काण्ड से स्व. राव अन्दर तक हिल गये थे। स्व. जितेन्द्र प्रसाद जी के समझाने पर वे ऐसी व्यवस्था देने के लिये तैयार हो गये। मैंने प्रधानमंत्री हाउस में उत्तराखण्ड के कांग्रेसजनों को आमंत्रित किया। श्री तिवारी, स्व. के.सी. पन्त भी आये। उत्तर प्रदेश से जितेन्द्र प्रसाद जी, बलराम जी, महावीर प्रसाद जी व अजीत सिंह जी भी आये। बड़ा उत्तेजनापूर्ण वातावरण था। स्व. राव अपने स्वभाव के प्रतिकूल बड़े खुश थे। घोषणा का पर्चा भी श्री राव जी के सचिव खाण्डेकर जी ने उनको थमा दिया था। मेरे प्रारम्भिक संबोधन के बाद श्री के.सी. पन्त ने भी उत्तराखण्ड को आरक्षण का समर्थन किया। फिर तिवारी जी बोलने उठे, तिवारी जी ने राजनैतिक मकड़जाल का जिक्र करते-2 एक एतिहासिक प्रसंग का हवाला देते हुये कहा, स्व. गोविन्द बल्लभ पन्त कभी उत्तर प्रदेश के विभाजन के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने नेहरू जी से कहा था कि, उत्तर प्रदेश का विभाजन उनकी लाश पर होगा, और बोलते-2 यह भी कहा कि, मैं भी ऐसा ही सोचता हॅू।
सभा का सारा माहौल खराब हो गया। दुःखी श्री राव ने कुछ औपचारिक बातें कहकर अपना पल्ला झाड़ा। स्व. राव पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को समाप्त करने का आरोप लग ही रहा था। तिवारी जी के इन शब्दों के बाद श्री राव की हिम्मत नहीं थी, उत्तर प्रदेश के विभाजन की घोषणा करने की। केन्द्र शासित राज्य का अर्थ भी उत्तर प्रदेश का विभाजन था। केन्द्र शासित राज्य के बच्चे का प्रसव होते-2 रह गया और फिर कभी नहीं हुआ। खैर मैंने प्रयास नहीं छोड़े, तिवारी जी कांग्रेस ”टी“ हो गये थे। कांग्रेस के कलकत्ता महाअधिवेशन में मैंने छोटे राज्यों उत्तराखण्ड, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के पक्ष में प्रस्ताव पास करवा लिया। स्व. जितेन्द्र प्रसाद जी, स्व. माधव राव सिंधया जी व आदरणीय मीरा कुमार जी की मद्द से यह सम्भव हुआ। इतिहास के इस काल खण्ड में, मैं अपना दायित्व पूर्ण कर पाया, मुझे इसका संतोष है।
नारायण दत्त तिवारी की कांग्रेस में वापसी
समय बीतता गया। कमजोर कांग्रेस सोनिया जी के नेतृत्व में एक जुट हुई। श्री तिवारी जी पुनः कांग्रेस में आये, मैं बड़ा खुश हुआ।इसी दौरान मैं उत्तराखण्ड कांग्रेस का अध्यक्ष बना, एक-2 रूपया जुटाकर हमने कांग्रेस का वर्तमान कार्यालय खड़ा किया और सहयोगियों के विरोध व गम्भीर सलाह के बावजूद मैंने तिवारी जी को कांग्रेस भवन के उद्घाटन के लिये बुलाया। तिवारी जी को कांग्रेस भवन ऐसा भाया कि, चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद, श्री तिवारी उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री बन गये। मैं कांग्रेस अध्यक्ष बना रहा। श्रीमती सोनिया गाॅधी जी ने राजनैतिक स्थायित्व बनाये रखने का दायित्व मुझे सौंपा। लोगों ने बहुत सारी बातें कही, कभी-2 हमारे साथी भी अपना काम निकालने के लिये कुछ ऐसा कर देते थे कि, मीडिया को उत्तराखण्ड कांग्रेस में बड़ी खटर-पटर दिखाई देती थी। वास्तव में थी नहीं, मेरा आदर श्री तिवारी जी के लिये हमेशा बना रहा। तिवारी जी भी कभी एकान्त में मेरा सर सहला देते थे। मैंने इस दौरान दो मुद्दे उठाये, लालबत्तियों का वितरण व उत्तराखण्ड में लग रहे उद्योगों में सत्तर प्रतिशत स्थानीय आरक्षण का। देहरादून से दिल्ली तक भवें तन गई। लालबत्ती तब से लेकर मेरे कार्यकाल तक गले की फांश बनी रही। सत्तर प्रतिशत आरक्षण का शासनादेश तिवारी जी ने जारी कर दिया।
ओछी राजनीति ने पैदा की हमारे बीच दूरियां
सन 2007 में कांग्रेस क्यों हारी मैं उस पर यहां चर्चा नहीं करूंगा। मगर यह जरूर कहॅूंगा कि, मैं सन 1991 के माध्यावधि चुनावों के बाद तिवारी जी का स्नेह व विश्वास कभी हासिल नहीं कर पाया। राजनीति कितनी ओछी हो जाती है, लोगों ने अपने स्वार्थ के लिये तिवारी जी को इस विधानसभा चुनाव के दौरान रिक्शे में बैठाकर किच्छा की गली-2 में घुमा दिया। उनके नाम के पर्चे छपवाकर मुझे हराने की अपील घर-2 पहुंचा दी। खैर मैं हार गया, मगर असहाय तिवारी जी की महत्ता भी किच्छा में हार गई। मुझे इस घटना का बड़ा दुःख है। प्रश्न हार-जीत का नहीं था, प्रश्न सार्वजनिक जीवन के कुछ सिद्धांतों का है। मैंने श्री तिवारी को हमेशा कांग्रेस के नेता के रूप में देखा और भविष्य में भी देखना चाहूंगा। श्री तिवारी के साथ हमारा मान जुड़ा हुआ है। कुछ लोगों ने अनावश्यक उनके जीवन की महान पूॅजी कांग्रेस को उनसे दूर कर दिया। जबकि मैं आज भी इस महान योद्धा को हजारों लोगों का आदर्श कांग्रेसजन मानता हूं।
अवसान बेला पर सादर नमन
आज तिवारी जी दिल्ली के एक हाॅस्पिटल में असहाय, अचेत लेटे हुये हैं। मैं तीन बार उन्हें देखने गया हॅू। उनमें हमारी धरती की महत्ता विद्यमान है। लोकतंत्र का एक महान योद्धा, विकास का एक अथक धावक लेटा हुआ है। विन्रमता व बुद्धिमत्ता का चितेरा लेटा हुआ है। मेरा मन भगवान से प्रार्थना कर रहा है, केवल-2 एक बार फिर तिवारी जी को खड़े कर दो। मैं उनसे उनका प्रिय गीत सुनना चाहता हॅूं, ‘‘खुट-खुटा-खुटानी, फट विनायका’’। शायद सोमवारी बाबा का आशीर्वाद ऐसा कर सकता है। हम सब चाहते हैं, ऐसा हो।
(हरीश रावत)