कुलदीप एस. राणा
शुरुआत से ही कॉन्ट्रेक्ट फैकल्टी भरोसे चल रहा राजधानी स्थित राजकीय दून मेडिकल कालेज के हालात दिन प्रतिदिन बद से बदतर होटे जा रहे हैं। कालेज की शुरुआत के समय वर्ष 2016 में मेडिकल कालेज को सुचारू रूप से चलाने के लिए तत्काल व्यवस्था के अंतर्गत प्रोफेसर्स, एसोसिएट प्रोफेसर्स व अस्सिटेंट प्रोफेसर्स को तीन वर्ष के कॉन्ट्रेक्ट पर नियुक्त किया गया था, किंतु तीन वर्ष बीत जाने के बाद सरकार न तो कालेज को स्थायी प्रिंसिपल देने में सफल हो सकी और न ही स्थायी फैकल्टी। हालांकि 2018 में शासन ने चिकित्सा शिक्षा में138 अस्सिटेंट प्रोफेसर्स की स्थायी नियुक्ति का विज्ञापन जरूर जारी किया था, किंतु एक अरसा बीत जाने के बाद भी अभी तक उक्त पदों पर नियुक्ति नहीं की गई है।
सरकार एमबीबीएस छात्रों को स्थायी अस्सिटेंट प्रोफेसर्स देने में सफल तो नहीं हो सकी, अलबत्ता कांटे्रक्ट पर रखे गए फैकल्टी मेंबर्स का तीन वर्ष का कॉन्ट्रेक्ट पूरा हो जाने से उनसे यह भी छिन गए हैं।
आपको बताते चलें कि 2016 में दून मेडिकल कालेज में कॉन्ट्रेक्ट पर हुई फैकल्टी नियुक्तियों का तीन वर्ष का कार्यकाल 4 जनवरी 2019 से समाप्त होना शुरू हो गया है। पहले दिन ही लगभग 11 फैकल्टी मेंबर्स, जिनमें प्रोफेसर्स, एसोसिएट व अस्सिटेंट प्रोफेसर्स भी शामिल हंै, का कॉन्ट्रेक्ट समाप्त हो गया था। दिन-ब-दिन कालेज में पढ़ाने व दून चिकित्सालय में मरीजों को देखने व आपरेशन का कार्य कर रहे अधिकांश फैकल्टी मेंबर्स का कॉन्ट्रेक्ट समाप्त हो रहा है। यह हाल तब है, जब चिकित्सा शिक्षा के विभाग का जिम्मा स्वयं सूबे के मुख्यमंत्री के पास है। ऐसे में राजधानी स्थित मेडिकल कालेज की इतनी बड़ी समस्या से सचिव चिकित्सा शिक्षा नितेश झा का अंजान होना सवाल खड़े करता है। क्या कॉन्ट्रेक्ट के पूर्ण होने से पहले ही एहतियातन जरूरी कदम नहीं उठाये जाने चाहिए थे? खासकर तब, जब दो माह बाद ही एमबीबीएस छात्रों की परीक्षाएं होनी है।
आश्चर्य यह है कि कॉन्ट्रेक्ट समाप्त हो चुके अधिकांश फैकल्टी मेंबर्स अभी भी मेडिकल कालेज से लेकर दून चिकित्सालय में रुटीन कार्य कर रहे हैं। उक्त परिस्थिति में यदि दून चिकित्सालय में कोई पुलिस केस जैसा मामला आता है तो कॉन्ट्रेक्ट समाप्त हो चुके यह डॉक्टर किस अधिकार से कानूनन चिकित्सकीय कार्य अंजाम दे पाएंगे।
आपको बताते चले कि दून मेडिकल कालेज मुख्यमंत्री की महत्वकांशी कही जाने वाली अटल आयुष्मान चिकित्सा बीमा योजना के अंतर्गत भी इम्पेनल्ड है। ऐसे में उक्त लापरवाहियों से सचिव नितेश झा का चिकित्सा शिक्षा के प्रति गैरजिम्मेदाराना रवैया नहीं झलक रहा है?
एक तरफ तो चिकित्सा शिक्षा विभाग समाचार पत्रों में विज्ञापन जारी कर एसआर व जेआर के पदों पर डॉक्टर्स के कॉन्ट्रेक्ट नियुक्ति के विज्ञापन जारी कर उन्हें इंटरव्यू के लिए आमंत्रित करता है, फिर बिना किसी पूर्व सूचना के उनका इंटरव्यू को कैन्सिल भी कर देता है। अनिर्णय व असमंजस की इन परिस्थितियों में कौन डॉक्टर उत्तराखंड चिकित्सा शिक्षा का रुख करना चाहेगा। एक दिन पूर्व ही ७ जनवरी को होने वाले एसआर व जेआर के पदों हेतु इंटरव्यू को बिना किसी पूर्व सूचना के कैंसिल कर दिया गया। एक ओर जहां सरकार सूबे में चिकित्सकों की कमी का रोना रो रही है, वहीं इंटरव्यू कैंसिल कर उत्तराखंड में अपनी सेवाएं देने को तैयार युवा चिकित्सकों को क्या संदेश दे रही है।
सरकार व शासन में बैठे अधिकरियों की गलत नीतियों व अनिर्णय क्षमता का बोझ उठाने को मजबूर एमबीबीएस के छात्रों को अपना भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा है।
सूबे की सरकार जहां प्रदेशवासियों के लिए चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग के अंतर्गत स्वास्थ्य बीमा योजना का तो खूब प्रचार प्रसार करती दिख रही है, वहीं वह यह भूल रही है कि अस्पतालों में बिना डॉक्टर्स के इलाज कैसे उपलब्ध कराएगी, क्योंकि प्रदेश को डाक्टर्स उपलब्ध कराने वाले चिकित्सा शिक्षा विभाग की ओर न तो मुख्यमंत्री का ध्यान है और न ही सचिव नितेश झा का। इस तरह दून मेडिकल कालेज कोमा में जाता हुआ नजर आ रहा है।