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ओम प्रकाश पार्ट 9:ओमप्रकाश की मनमानी का स्मारक है 32 लाख मे बना सचिवालय के दो भवन को जोड़ने वाला पुल 

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 लगता है उत्तराखंड में जिसकी चलती है, उसकी कोई गलती नहीं।
 सुपर सीएम ओम प्रकाश को उनके अनाप शनाप कार्यों के औचित्य को भी पूछने जांचने वाला इस राज्य में कोई नहीं बचा। पिछले दिनों अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश ने सचिवालय के दो भवनों  की चौथी मंजिलों को ऊपर ही ऊपर एक पुल बना कर जोड़ने का फरमान सुना डाला और पूरी मशीनरी उस में जुट गई।
 यह पुल सचिवालय स्थित विश्वकर्मा भवन को एपीजे अब्दुल कलाम भवन से जोड़ने के लिए बनाया गया है। विश्वकर्मा भगवान की पांचवी मंजिल में अपर मुख्य सचिव ओम प्रकाश का कार्यालय है और एपीजे अब्दुल कलाम भवन के चौथे तल पर मुख्यमंत्री कार्यालय है।
 यह पुल अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश की संवेदनहीनता, फिजूलखर्ची,और मनमानी का जीता जागता स्मारक बन गया है।
इस पुल के औचित्य पर कुछ सवाल उठ रहे हैं।इन सवालों के आलोक मे पर्वतजन के बुद्धिजीवी पाठक खुद ही विश्लेषण कर सकते हैं कि इस पुल का क्या औचित्य था!
 — पहला सवाल है कि इस पुल की आवश्यकता सचिवालय संघ या सचिवालय के किसी अधिकारी-कर्मचारी ने नहीं जताई थी। न कभी किसी भी स्तर से इस तरह के पुल की मांग की गई थी।फिर क्यों बनाया गया?
— दूसरा सवाल है कि 10 मीटर से भी कम की लंबाई के इस पुल में 32लाख रूपये का खर्च आया है। इतने भारीभरकम खर्च का इस कंगाल राज्य मे क्या औचित्य है?
 —-तीसरा सवाल है कि इस पुल को लोक निर्माण विभाग बना रहा है और राज्य संपत्ति विभाग इसका भुगतान कर रहा है। वर्तमान में लोक लोक निर्माण विभाग और राज्य संपत्ति विभाग दोनों ही अपर मुख्य सचिव ओम प्रकाश के पास हैं। सवाल उठता है कि अगर किसी अफसर के पास कोई विभाग है तो क्या वह जब मर्जी आए कहीं भी, कितना भी धन खर्च करने के लिए स्वतंत्र है ?
—-चौथा सवाल है कि इन दो भवनों को जोड़ने के लिए दोनों भवनों के एक-एक विशालकाय कमरों को भी तोड़ दिया गया है। अब यह दो कमरे कमरे पुल से गुजरने के लिए गलियारों के रुप में काम आएंगे। यदि IAS ओम प्रकाश को एक भवन से दूसरे भवन तक आने-जाने में इतनी ही दिक्कत थी तो क्या मुख्यमंत्री कार्यालय के ही चतुर्थ तल पर ही उन्हें दो कमरों का एक कार्यालय आवंटित नही किया जा सकता था ? क्योंकि दो कमरे तो वैसे भी निष्प्रयोज्य हो चुके हैं। ऐसे में इस फिजूलखर्ची से बचा नही जा सकता था ?
—पांचवा सवाल है कि इस पुल को बनाने और सचिवालय के 2 भवनों की दीवारें तोड़ने के लिए मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण  से भी मंजूरी लेने की गुंजाइश क्यों नहीं समझी गई ? अधिकारी चाहे जो भी तर्क इसके बचाव में दें लेकिन यदि कोई आम व्यक्ति इस तरह की तोड़फोड़ में इस निर्माण कार्य को नजीर बना ले तो एमडीडीए के पास क्या जवाब होगा ?
 —–छटा सवाल है कि एक तरफ वर्ष 2013 की आपदा के बाद से उत्तराखंड के नौनिहाल रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी जैसे इलाकों में पुल बहने के बाद से ट्रॉली या गरारी के सहारे नदी पार करके स्कूल जा रहे हैं। अथवा रोजमर्रा के काम निपटा रहे हैं। कई लोगों के इस दौरान गरारी में हाथ कट गए तो कोई उफनती अलकनंदा में जा समाया। लेकिन वहां पर पुल बनाने के बजाए आम आदमी के टैक्स के पैसे से लोक निर्माण विभाग के सर्वोच्च मुखिया को अपनी आराम तलबी के लिए यह पुल बनाना ज्यादा प्राथमिक क्यों लगा ?
— सातवाँ सवाल है कि इस पुल के बनने के बाद भी अपर मुख्य सचिव को इस पुल का प्रयोग करने के लिए अपनी ही बिल्डिंग के पांचवें तल से चौथे तल पर लिफ्ट से ही चढ़ना उतरना पड़ेगा। यदि अपर मुख्य सचिव दोनों भवनों में तीन-तीन लिफ्ट होने के बाद भी इस पुल के बिना एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग में नहीं आ-जा सकते तो फिर देश के लोकप्रिय  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति अथवा अनिवार्य सेवानिवृत्ति की स्कीम किन अफसरों के लिए बना रखी है ?
—- आठवां सवाल है कि रुद्रप्रयाग जिले में पुलों के धीमे निर्माण की जांच के लिए लोक निर्माण विभाग के सीनियर अफसर ललित मोहन के नेतृत्व में एक जांच कमेटी बनी हुई है। कई रिमाइंडर भेजने के बाद भी विभागों ने जवाब तक नहीं दिया है। ऐसे में इस तरह के पुल में इतनी तेजी और प्राथमिकता दिखाए जाने से सरकार की कैसी छवि राज्य में निर्मित होगी ?
—–नौवां सवाल यह है कि इस पुल के निर्माण में लगे मजदूरों का कोई भी पंजीकरण नहीं था। यह मजदूर बिना सुरक्षा के लटककर काम करते रहे यदि यह मजदूर इतनी ऊंचाई से गिर जाते तो उनके मुआवजे आदि के भुगतान की जिम्मेदारी किसकी होती?क्या इन अफसर ने यह जानने की कोशिश की ?
—- सबसे अहम दसवाँ सवाल यह है कि क्या इस पुल की आवश्यकता प्लान के खर्चे में शामिल थी ? यदि राज्य के बजट मे इस पुल का प्राविधान नहीं था तो क्या यह अनावश्यक खर्च नहीं है? राज्य संपत्ति विभाग सचिवालय के कर्मचारियों-अधिकारियों की विभिन्न मांगों के लिए बजट का रोना रोता रहता है। सचिवालय की कई कार्य राज्य संपत्ति विभाग द्वारा बजट जारी न किए जाने के कारण लंबित पड़े हुए हैं। कई मदों का भुगतान राज्य संपत्ति विभाग ने अभी तक नहीं किया है।ऐसे में एक अफसर द्वारा सिर्फ अपनी आराम तलबी के लिए एक पुल बनाना कहां तक जायज है?अगर आज लोकतंत्र मे यह जायज है तो राजा महाराजाओं के जमाने मे ऐय्याशी के तमाम इंतजाम कैसे गलत हो सकते हैं !
एक जिम्मेदार अफसर कहते हैं कि यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि इस राज्य की जनता उत्तराखंड आंदोलन के बाद सवाल पूछना भूल गई है। यहां एक प्रभावी सिविल सोसाइटी की कमी है, जो इन अफसरों से सवाल पूछ सके कि उनके टैक्स के पैसों से क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? और क्या होना चाहिए ? जब तक हम यह नहीं पूछेंगे तब तक ओमप्रकाश जैसे अफसर हमारा मार्गदर्शन करने के नाम पर हम जैसे अंधे लोगों के कंधों पर सवार होकर मौज करते रहेंगे। और हम इसी गफलत में रहेंगे कि यही हमारे भाग्य विधाता हैं।
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