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घोटालेबाजों की चरागाह नगर निगम

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घपले-घोटालों के लिए आए दिन चर्चा में रहने वाले नगर निगम में स्ट्रीट लाइट घोटाले का पर्दाफाश

भूपेंद्र कुमार

नगर निगम देहरादून ने वर्ष २०१४-१५ में बिजली के पोल तथा लाइटों की खरीद में करोड़ों का घोटाला कर डाला। हुआ यूं कि पिछले साल नगर क्षेत्र में विद्युत व्यवस्था के लिए ३२५ पोल लगाए जाने थे। इसके लिए निगम ने अपने चहेते ठेकेदारों को जानकारी देकर एक टेंडर आमंत्रित किया। इसके लिए २९-१०-२०१४ को अखबार में विज्ञप्ति प्रकाशित कराई गई, किंतु इसमें सिर्फ ३ ठेकेदारों ने ही टेंडर डाले और आपस में मिलीभगत कर दी।
दोगुनी कीमत पर सप्लाई
जिस ठेकेदार ने टेंडर हासिल किया, उसने अन्य ठेकेदारों से सेटिंग कर उनको बाहर कर दिया। अब ठेकेदार ने नगर निगम के अधिकारियों से मिलीभगत कर दुगुनी कीमत पर पोल की सप्लाई कर दी। जिस पोल की कीमत ११ हजार रुपए थी, उसे १८९२० में खरीद लिया गया, जबकि एमडीडीए ने भी उस दौरान इसी तरह के पोल मात्र ११ हजार रुपए में ही लगाए थे। नगर निगम ने इन ३२५ पोल के लिए कुल ६८,३५,८३२ रुपए का भुगतान किया। नगर निगम को पीडब्ल्यूडी के शेड्यूल रेट के अनुसार ही सामान की खरीद करनी होती है, किंतु ठेकेदार ने इसकी सरासर अनदेखी कर दी। पीडब्ल्यूडी ने वर्ष २००८ के बाद से २०१५ तक वर्तमान दर का कोई शेड्यूल रेट जारी नहीं किया था। इसलिए यह भी एक बड़ा सवाल है कि निगम ने लगभग दोगुने रेट पर सामान की खरीद किस आधार पर कर दी।
यही नहीं, नगर निगम को जब सोडियम लाइटों की खरीद में भी लाखों का घोटाला कर डाला। निगम को ९०० सीएफएल खरीदनी थी। इसके लिए लोकल अखबारों को छोड़कर दैनिक जागरण के मात्र दिल्ली संस्करण में ही विज्ञापन प्रकाशित कराया गया और ४२८२ रुपए की दर से ९०० सीएफएल लाइटें खरीद ली गई। ३८ लाख ५७ हजार रुपए में हुई इस खरीद में भी निगम ने कोई टीडीएस तक नहीं काटा। ठेकेदार ने सोनीपत की एक कंपनी को इसका ठेका दिया गया। ठेकेदार ने १३ जनवरी २०१५ को बिल लगाया और चुस्ती दिखाते हुए निगम ने एक दिन बाद १५ जनवरी को इसका पेमेंट भी कर दिया।
अखबारों के स्थानीय संस्करणों में विज्ञापन प्रकाशित न कर निगम ने इसकी गुपचुप खरीद की और निगम को घटिया सीएफएल बेचकर लाखों का गोलमाल कर दिया। अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों की ब्रांडेड सीएफएल लाइटें भी इनसे आधी कीमतों पर उपलब्ध हैं।
निगम के पास नहीं रिकार्ड
इस संवाददाता ने सूचना के अधिकार में इस खरीद से संबंधित जानकारी मांगी तो नगर निगम के हाथ से तोते उड़ गए। न तो नगर निगम के पास इस बात का कोई रिकार्ड है कि ठेकेदार ने कितने पोल कहां लगाए और न ही निगम यह जानकारी दे पाया कि इन पोलों पर कितनी-कितनी लाइटें लगाई गई हैं। निगम के पास इस बात की भी कोई जानकारी नहीं है कि प्रत्येक वार्ड में खाली पोलों की संख्या कितनी है और कितने पोलों पर दो या तीन सोडियम लगाए गए हैं। नियम के अनुसार ठेकेदार द्वारा विद्युत पोल लगाने के बाद निगम के नामित अधिकारी को इसका मेजरमेंट और सत्यापन करना होता है, किंतु नगर निगम के पास इस बात का कोई रिकार्ड नहीं है कि खरीदे गए पोल और लाइटें कहां-कहां लगाई गई है। नगर निगम ने एक खेल इसमें और किया। जितनी मोटाई और वजन के ये पोल होने चाहिए थे, उनसे काफी कम गुणवत्ता के पोल ठेकेदार ने सप्लाई किए हैं। यही कारण है कि पतले डायमीटर वाले पोल कुछ ही सालों में जंक लगकर टूटने लग जाते हैं।
लोकल खरीद में खाईबाड़ी
नगर निगम के ठेकेदार ने नगर निगम की अतिक्रमण की हुई भूमि पर भी पोल लगाए हैं। जब निगम से यह जानकारी मांगी गई तो निगम चुप्पी साध गया। इसके अलावा १८० सोडियम लाइट तो ऋषिकेश के एक सप्लायर से भी खरीदी गई। इसके लिए निगम ने ८ लाख ६३ हजार ९८५ रुपए का भुगतान भी कर दिया। न तो इसके लिए कोई टेंडर डाला गया और न ही इस भुगतान पर कोई टीडीएस काटा गया।
एक तथ्य यह भी है कि समय-समय पर जनप्रतिनिधि अपनी विधायक निधि से भी इस तरह के पोल और बिजली के उपकरण लगाते रहते हैं तथा उत्तराखंड पावर कारपोरेशन भी समय-समय पर विद्युत पोल और लाइटें लगवाता है, किंतु इन तीनों स्तरों से विद्युत पोल और विद्युत सामान लगाए जाने के बाद भी आपस में कोई आधिकारिक सूचना संवाद आदि न होने से अधिकारियों को इसमें और अधिक घोटाला करने का अवसर मिल जाता है। इस तरह का सामान कोई भी उपलब्ध कराए, दूसरा विभाग इस मद में अपनी ओर से भी खरीद दिखाकर बजट हड़प कर लेता है।
नगर निगम की गाइड लाइन में यह साफ-साफ लिखा है कि स्ट्रीट लाइट की सामग्री सिर्फ निर्माता कंपनी से ही खरीदी जाएगी। यहां तक कि निविदा भी सिर्फ निर्माता कंपनी ही डाल सकती है तथा निविदा डालने वाली कंपनी के लिए यह भी महत्वपूर्ण तकनीकी शर्त रखी गई है कि कंपनी को दो वर्ष की बैलेंस शीट, आयकर रिटर्न सहित इस बात का शपथ पत्र भी देना होगा कि उसे किसी भी राज्य में ब्लैक लिस्ट नहीं किया गया है। अब देखना यह है कि प्रकाश अनुभाग की इस अंधेरगर्दी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों पर कब गाज गिर पाती है।

ऐसी कंपनी को ढाई लाख रुपए तक की धरोहर राशि भी निविदा के साथ देनी होती है, किंतु नगर निगम ने टेंडर के समय ऐसी किसी भी शर्त का अनुपालन इन कंपनियों से नहीं कराया। इस मिलीभगत के लिए लाइट अनुभाग के स्टोर कीपर, प्रकाश निरीक्षक सहित अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी दोषी हैं।

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