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जौनसार बावर सामाजिक रूढिय़ों से जूझता लोकतंत्र

in पर्वतजन
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जौनसार बावर के एक गांव में मनचाहे उम्मीदवार को वोट देने के कारण एक परिवार का हुक्का-पानी बंद हो गया। प्रशासन के दबाव में हुक्का-पानी तो बहाल हो गया, किंतु सात दशक के लोकतंत्र के लिए कुछ सवाल छोड़ गया।

सुभाष तराण

उत्तराखंड में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव के दौरान चकराता विधानसभा क्षेत्र में ख़त बावर के फणार गांव में फर्जी मतदान के खिलाफ खड़े होने वाले तीन परिवारों को गांव के वर्चस्वशाली लोगों द्वारा सामाजिक रूप से बहिष्कृत करने का मामला मीडिया के माध्यम से संज्ञान में आया है। जौनसार बावर में इस तरह के फतवे सुनाने वाले ये वर्चस्वशाली लोग कौन हंै और जौनसार बावर के समाज में इनकी क्या भूमिका है, यह जानने के लिए यहां के गुजरे वक्त की पड़ताल करना जरूरी है।
अंग्रेजों से पहले जौनसार बावर की जनता अतीत की किसी बेनाम तारीख से इस क्षेत्र के आराध्य महासू देवताओं और उनके नायबों के प्रतीकात्मक शासन द्वारा परोक्ष रूप शासित होती आयी है। इस क्षेत्र की प्रशासनिक धुरी महासू बंधु और उनके नायब रहते आए हंै, जो कि किसी जमाने में इस क्षेत्र के सामंत या शासक रहे होंगे। जौनसार बावर में क्षेत्रीय देवताओं और स्थानीय लोगों के बीच सदियों से जो व्यवस्था चली आ रही है, उसकी प्रशासनिक कड़ी के
रूप में गांव और ख़त (गांव के समूह का एक भौगोलिक क्षेत्र) स्तर पर एक मुखिया का पारंपरिक पद होता है, जिसे स्याणा कह कर संबोधित किया जाता है। प्राचीन और मध्यकाल के शासकों और सामन्तों की तर्ज पर जौनसार बावर की स्याणाचारी (मुखिय़ागिरी) भी वंश परंपरा के अंतर्गत नीहित रहती आयी है। स्याणा बनने के लिए एकमात्र योग्यता यह होती है कि वह उससे पहले वाले स्याणा का ज्येष्ठ पुत्र हो। हर स्याणा अपने गांव तथा क्षेत्र में ‘कारी और कूतÓ जैसी पारंपारिक दैवीय वसूलियों के अलावा देवताओं को हाजिर नाजिर मानकर अपने गांव या क्षेत्र के लोगों का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक प्रतिनिधित्व करता आया है, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था के बरक्स स्याणा की जवाबदेही जनता की बजाय केवल प्रतीकात्मक देवताओं के प्रति होती है।
जौनसार बावर के मूल निवासी आदिकाल से न्याय और स्वास्थ्य के लिए अपने देवताओं पर निर्भर रहते आए हैं। इस क्षेत्र के निवासी महासू देवताओं को अपने जीवन और आकांक्षाओं की सुरक्षा का आश्वासन मानते हैं। आज भी यहां के एक बड़े तबके के लिए महासू देवताओं का भरोसा ही न्यायाधीश और डाक्टर हैं। कोई मांग हो या मुराद, झगड़ा-फ़साद हो या हारी-बीमारी, जौनसार बावर से संबधित अधिकतर लोग आज भी ऐसे मसाईलों के निदान हेतु महासू देवताओं की शरण में जाते हैं। ये देवता इन लोगों पर किसी भी आई गई बला से टकराने की हिम्मत का काम करते हैं, क्योंकि पारंपरिक स्याणाचारी इन्हीं देवताओं के द्वारा स्थापित मानी जाती है। इसलिए ग्राम गणो द्वारा बिना किसी प्रतिरोध के स्याणा द्वारा लिया गया हर फैसला शिरोधार्य रहा है। यदि कभी कोई व्यक्ति इनके द्वारा सुनाए गये फरमानों की अवमानना करने की जुर्रत करता है तो ये चकड़ैतों और माली-पश्वाओं के माध्यम से देवता का भय दिखाकर, उस व्यक्ति का परिवार सहित सामाजिक बहिष्कार करने के लिए, बाकी गांव के सभी लोगों को बाध्य करने से नहीं चूकते। इसके लिए इनका मुख्य अस्त्र होता है ‘लोटा नूणÓ। महासू देवताओं को साक्षी
मानकर लोटे में डाला गया नमक इस बात का प्रतीक होता है कि यदि इस प्रक्रिया में भाग लेने वाला झूठ बोलता है या अपनी बात पर नहीं ठहरता तो उसका खानदान पानी में पड़े नमक की तरह घुल कर खत्म हो जाएगा।
हो सकता है कि देवताओं पर अथाह आस्था के चलते यहां एक समय यह तरीका सच्चाई के पक्ष के लिए कारगर रहा हो, लेकिन बाद के समय में इस तरकीब का क्षेत्र के चंट-चकड़ैतों ने स्याणों की मदद से राजनीति के लिए खुल कर दुरुपयोग किया और मनमाफिक परिणाम पाये। गौर करने वाली बात यह है कि जौनसार बावर का आम तबका जिस ताकत को देवताओं की मर्जी मानता आया है, वह एक ऐसा तिलिस्म है, जिस पर सदियों से क्षेत्र की खास जातियों के परिवारों का कब्जा रहता आया है।
1815 के बाद जब अंग्रेजों ने जौनसार बावर को अपने कब्जे में लिया तो उन्होंने सबसे पहले इस क्षेत्र का अपने जिम्मेदार अधिकारियों से उचित सर्वेक्षण करवाया। जौनसार बावर क्षेत्र से अधिकतम राजस्व हासिल करने के लिए अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में दोहन की संभावनाओं के लिए यहां होने वाली पैदावार और पशुपालन सहित सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक और आर्थिक स्थितियों की पड़ताल करवाई और फिर इसी को आधार बनाकर जौनसार बावर के काश्तकारों पर लगान ठहराया। जौनसार बावर में जहां एक ओर बेशकीमती जंगल थे, वहीं दूसरी ओर अनाज और पशुओं से समृद्ध भोले-भाले मेहनतकश लोग थे। जौनसार बावर की जमीनी तहकीकात में अंग्रेजों ने पाया कि इस क्षेत्र के लोग जातिवाद और अंधविश्वास की एक ऐसी व्यवस्था में जकड़े हुए हैं, जो प्रशासनिक तौर पर अंग्रेजी हुकूमत के लिए बहुत ही फायदेमन्द साबित हो सकती है। अंग्रेजों ने केवल यहां के स्याणो पर अपना नियंत्रण रखा। उन्हें यह बात अच्छी तरह से मालूम हो गयी थी कि इस क्षेत्र की देव भीरू जनता चुपचाप स्याणों के पीछे हो लेगी।
अंग्रेजों ने जौनसार बावर की पारंपारिक व्यवस्था में छेड़छाड़ किए बिना ही अपने गांव क्षेत्रों में खासा दखल रखने वाले स्याणों को हुकूमत के हित साधने हेतु बखूबी से इस्तेमाल किया। रुपये में दो से पांच टका हिस्से की एवज में जौनसार बावर के स्याणों ने खुशी-खुशी अंग्रेज बहादुरों के लिए काम करना शुरू कर दिया। बीसवीं सदी के चौथे और पांचवें दशकों के दौरान जहां देशभर में आमो-खास के अंदर आजादी का उबाल था, वहीं जौनसार बावर के ये पारंपारिक मुखिया अंग्रेजों के प्रति पूरी निष्ठा के साथ वफादार रहे।
बावर क्षेत्र की ग्यारह खतों समेत जौनसार के कुछ भागों में अफीम की खेती अंग्रेजों के आने से भी पहले से होती आ रही थी। यहां के लोग अफीम किसी अमल या ऐब के लिए नहीं, बल्कि पारंपरिक व्यंजनों में इस्तेमाल होने वाले पोस्त दाने के लिए उगाते थे। जो अफीम से अर्क निकलता था, उसे वे खनाबदोश किन्नौरों और भोटों को वस्तु विनियम के आधार पर दे देते थे। क्षेत्र में फिरंगी हुकूमत आयी तो उसने अफीम की खेती को व्यस्थित कर दिया और स्याणों के माध्यम से नाममात्र की दरों पर अफीम के अर्क को अपने मालखानों में जमा करवाया। यह व्यवस्था काफी समय तक चलती रही, लेकिन जब अंग्रेजों के हिन्दुस्तान से पैर उखडऩे लगे तो स्याणों ने माल खानों में नाममात्र का अर्क जमा करवा कर बाकी का माल इधर-उधर करना शुरू कर दिया। इन्हीं स्याणों की बदौलत इस क्षेत्र में अफीम की पैदावार
का सिलसिला आजादी के बाद भी अवैध रूप से लंबे समय तक जारी रहा। 1982 के दौरान चकराता के क्षेत्रीय विधायक गुलाब सिंह, जो तब उत्तर प्रदेश सरकार में राज्य मंत्री थे, को अफीम की खेती के चलते मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। हालांकि बाद में हुई जांच में वे निर्दोष पाए गये थे।
सन 1951 से सक्रिय राजनीति में उतरने वाले गुलाब सिंह भी बावर के एक स्याणा परिवार से संबधित थे। सन् 1957 से लेकर, (1974 के अलावा) सन् 1991 तक गुलाब सिंह लगातार लखनऊ विधानसभा में क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते रहे। जौनसार बावर में गुलाब सिंह का समर्थन और विरोध भी कमोवेश स्याणों तक ही सीमित रहा, आम जनता यहां भी स्याणो के पीछे ही थी। जौनसार बावर में ऐसी अनेकों घटनाएं हुई हंै, जिसमें क्षेत्र के आम व्यक्ति ने यदि स्वतंत्र होकर अपना राजनीतिक पक्ष रखने की जुर्रत की तो उस गांव या क्षेत्र के लोगों पर अपना पारंपरिक रुआब रखने वाले स्याणा ने उसे या तो सामाजिक रूप से बहिष्कृत करने की कोशिश की या उसे झूठे और जाली मुकदमों में फंसा दिया। इस पूरे गठजोड़ को समझने के लिए इस बात को भी मद्देनजर रखना होगा कि जौनसार बावर के लगभग सभी स्याणा परिवार वैवाहिक रिश्तों द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए है।
उस जमाने में स्नातक स्तर के पढ़े-लिखे सहृदय और खुश मिजाज गुलाब सिंह हिमाचल के यशवंत सिंह परमार, गढ़वाल के हेमवती नन्दन बहुगुणा और कुमाऊं के नारायण दत्त तिवारी के समकालीन राज नेता थे। जहां यह तीनों नेता अपनी राजनैतिक काबिलियत के चलते अपने-अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने में कामयाब रहे, वहीं गुलाब सिंह अपने 50 साल के अजेय राजनीतिक सफर में बमुश्किल बहुत थोड़े समय के लिए ही राज्य मंत्री का दर्जा पा सके। जहां इन तीनों नेताओं ने अपनी प्रशासनिक सूझ-बूझ से अपने क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के नये आयाम स्थापित किए, वहीं गुलाब सिंह अपने विधानसभा क्षेत्र में एक डिग्री कॉलेज तक नहीं खुलवा पाए। आजादी के बाद जहां देश में हर वर्ग को राजनीतिक प्रतिनिधित्व का मौका मिला, वहीं जौनसार बावर क्षेत्र की राजनीति में अपने दैवीय रसूख के चलते ग्रामसभा से लेकर विधानसभा तक पक्ष और विपक्ष में जौनसार बावर के स्याणों का लंबे समय तक एकछत्र कब्जा रहा। बहुत से लोगों को इस बात का मुगालता है कि जौनसार बावर को जनजाति का दर्जा मिलना एक राजनैतिक उपलब्धि थी, लेकिन हकीकत तो कुछ और ही बयान करती है।
संत विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के पुरोधा धर्म देव शास्त्री आजाद भारत के पहले दशक के दौरान कालसी के अशोक आश्रम से जुड़े थे। इसी बीच शास्त्री जी का कालसी से लगते जौनसार बावर के उस समाज से परिचय हुआ जो अत्यन्त पिछड़ा और दयनीय स्थिति में होने के साथ साथ जातिवाद और छुआछूत से भी बुरी तरह ग्रसित था। आजाद भारत के नव सृजित संविधान की मूल अवधारणाओं और समतामूलक समाज के पक्षधर शास्त्री जी ने जौनसार बावर की सामाजिक दशा देखकर एक प्रतिवेदन तैयार किया और देश के पहले पिछड़ा आयोग, जिसे काका कालेलकर आयोग भी कहा जाता है, को प्रेषित किया। काका कालेलकर आयोग ने शास्त्री जी के इस प्रतिवेदन को प्रमुखता के साथ तवज्जो दी और इसको पड़ताल के लिए ढेबर कमीशन के सुपुर्द कर दिया। ढेबर कमीशन जब जौनसार बावर की जमीनी हालात का जायजा लेने हेतु क्षेत्र के दौरे पर आया तो अतीत की जातीय श्रेष्ठता के दंभ से ओतप्रोत और संविधान की समानता और समरसता की संकल्पना से अनभिज्ञ जौनसार बावर के इन पारंपरिक स्याणों ने उनका खुल कर विरोध किया।
बहरहाल, ढेबर कमीशन ने जौनसार बावर के समाज की जमीनी हकीकत को आधार बनाते हुए अपनी रिपोर्ट में जौनसार बावर को अनुसूचित जनजाति क्षेत्र घोषित करने की केन्द्र सरकार से सिफारिश की और सन् 1967 में जौनसार बावर अनुसूचित जनजाति क्षेत्र घोषित हो गया। क्षेत्र के लोगों को इसका यह फायदा हुआ कि शिक्षा और आरक्षण के चलते जो पढ़-लिख गये, वे सरकारी नौकरियां पाने में कामयाब हो गये, लेकिन सामाजिक चिंतकों की क्षेत्र को आरक्षण देने के पीछे जो समतामूलक समाज की मूल अवधारणा थी, वो राजनीति में पारंपरिक ग्राम और क्षेत्र के क्षत्रपों की अगुआई के चलते यथावत बनी रही। अंधविश्वास, जातिवाद और छुआछूत के चलते सामाजिक विषमताएं ज्यों की त्यों बनी रही और आरक्षण केवल रोजगार का माध्यम होकर रह गया। हैरानी की बात यह है कि जौनसार बावर का पढ़ा-लिखा तबका और राज नेता आज भी क्षेत्र में जातिवाद और छुआछूत को लेकर चुप्पी साध लेते हैं। जहां जौनसार बावर के पढ़-लिख गये लोगों ने आरक्षण का लाभ लेते हुए सरकार की नौकरियां हासिल कर छुट्टी पा ली, वहीं यहां के नेता भी अपने राजनीतिक लाभ के लिए अमानवीय परंपराओं और जनता के जातीय दंभ का पोषण करते रहे। पिछले दो-तीन दशकों से जौनसार बावर में ग्राम तथा ब्लॉक स्तर पर आरक्षण के चलते दलितों और महिलाओं को प्रतिनिधित्व का मौका तो मिल रहा है, लेकिन ये भी मात्र मोहरे ही साबित हो रहे हैं। बदलाव की इस फेहरिश्त में ग्राम स्तर पर कुछ अद्र्ध शिक्षित ठेकेदार मानसिकता के लोग भी प्रतिनिधित्व पाने में कामयाब हो रहे हैं, लेकिन उनके लिए राजनीति मात्र कमाई का जरिया है।

इसी जौनसार बावर ने उत्तराखंड को गृह मंत्री दिया है, लेकिन इसके बदले में इस क्षेत्र को क्या हासिल हुआ है, यह अपने आप में एक शोध का विषय है। नब्बे के दशक में मुन्ना सिंह चौहान एक जनवादी नेता के रूप में जरूर उभरे थे, लेकिन वे भी बहुत जल्दी ही क्षेत्र को उसके भाग्य पर छोड़ कर कुलीन वर्ग और कांट्रेक्टर प्रिय हो गए। 90 के दशक के बाद जौनसार बावर में कुछ और युवाओं ने भी राजनीति में हाथ आजमाना चाहा, लेकिन क्षेत्र की मूल समस्याओं की समझ से अनभिज्ञ तथा लक्ष्यविहीन होने के कारण ये छुटभैया होकर जल्दी ही स्थापित नेताओं के पिछलग्गू हो गए। उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद क्षेत्र के झण्डाबरदारों ने सत्ता के जोर पर चुनावों में पार पाने के लिए नये धनिक पैदा किए, लेकिन इससे देवताओं और स्याणों की भूमिका कम नहीं हुई।
जौनसार बावर में चुनाव के दौरान राजनीतिक लाभ के लिए देवताओं को माध्यम बनाकर जनता का भयादोहन करना कोई नई बात नहीं हैं। स्थानीय मीडिया की उदासीनता, देवताओं का डर और स्याणों की दबंगई के चलते इस तरह के मामले अक्सर अपनी जगहों पर ही दम तोड़ते आए हैं, लेकिन वैकल्पिक मीडिया के आने से अब यह सड़ांध छुप नहीं पाएगी। वैसे क्षेत्र का भला तो तब होता, जब ऐसी घटनाओं के खिलाफ जन आन्दोलन खड़े होते।
फिलहाल तो जौनसार बावर की सुस्ती का आलम यह है कि एक असंवैधानिक कृत्य होने के बावजूद कहीं कोई बेचैनी या सुगबुगाहट नहीं है। ऐसे में यदि फणार की हालिया घटना दैवीय भय और राजनीतिक रसूख के चलते बेबुनियाद साबित हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। वैसे भी कुछ महीनों पहले जौनसार के सवर्ण तबके से संबंध रखने वाले वीर बहादुरों द्वारा पुनाह पोखरी में दलितों की पिटाई का प्रकरण अब लगभग ठंडे बस्ते के हवाले हो चुका है। अफसोस इस बात का है कि जो संविधान व्यक्ति प्रत्येक की समानता, समरूपता और मत भेद को लेकर असहमति जैसे मूल अधिकारों की बात कहता है उसी की शपथ लेकर सत्ता पर काबिज लोग क्षेत्र में घट रही ऐसी अनेकों अमानवीय और जघन्य घटनाओं का कारण जानते हुए भी मूक दर्शक बनकर पर्दे के पीछे लीपा-पोती करते नजर आते हैं।
आज जबकि जौनसार बावर में पढ़े लिखे युवाओं की एक अच्छी खासी तादाद है, लेकिन ऐसे समय गिनती भर के लोग भी सामने नहीं आते, जो बिना किसी राजनीतिक स्वार्थ के इस तरह के संवेदनशील मसलों को लेकर आवाज उठाएं और जौनसार बावर की जनता और उनके अगुआओं को इस बात से आगाह करवाएं कि हमारा संविधान जातिवाद को नकारता है और देश के हर नागरिक को वैचारिक स्वतंत्रता और थोपे गये निर्णयों पर असहमत होने का अधिकार देता है। देहरादून में हर दूसरे दिन राजनीति से प्रेरित किसी न किसी हड़ताल, जुलूस और रैलियों में शामिल होने वाले जौनसार बावर के युवाओं ने अपने जातीय प्रभाव के चलते कभी भी अपने समाज में व्याप्त कुरीतियों पर संवाद करने का कोई प्रयास ही नहीं किया है। यही कारण है कि क्षेत्र में फणार या पुनाह पोखरी जैसी घटनाएं हो रही हैं, लेकिन जिस दिन इस क्षेत्र के युवा अपने जातीय पूर्वाग्रहों को छोड़, एकजुट होकर कुरीतियों का विरोध करेंगे, उस दिन जौनसार बावर अपनी मूल समस्याओं से पार पाता हुआ वास्तविक और व्यावहारिक रूप से समृद्ध हो जाएगा और जनजातीय क्षेत्र के अलावा अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब हो पाएगा।

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