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न जाने कहां खो गए भैलो!

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मामचन्द शाह//

”भैलो रे भैलो, स्वाल पकोड़ खैलो”
भैलो का मतलब आज की युवा पीढ़ी शायद ही समझ पाती होगी, लेकिन एक समय था, जब लगभग पूरे गढ़वाल क्षेत्र में भैलो के बगैर दीपावली अधूरी सी मानी जाती थी। दरअसल भैलो गढ़वाल का एक प्राचीन और पारंपरिक खेल(नृत्य) है। दीपावली की संध्या पर सर्वप्रथम महालक्ष्मी पूजन-अर्चन किया जाता था। तत्पश्चात गांव के पंचायत चौक में भैलो की विधि-विधान से पूजा-अर्चना की जाती थी। मिष्ठान वितरण चलता रहता था। खूब पटाखे फोड़े जाते थे और फुलझड़ी, चक्री, अनार, रॉकेट आदि छोड़कर जश्न मनाया जाता था। कहीं-कहीं ढोल-दमाऊं की थाप के साथ भैलो मण्डाण रातभर चलता था, लेकिन अब न जाने कहां खो गए भैलो!
ऐसे बनता था भैलो
लोकगीतों के साथ छिल्ले, तिल, भांग, सुराही और हिसर की लकड़ी से घुमाने लायक एक गट्ठर बनाया जाता है। जिसे सिरालू (विशेष लताबेल) या मालू की रस्सी से बांधा जाता है। खेतों में बनाए गए आड़ों पर माचिस लगाई जाती है और फिर वह आड़ा जल उठते हैं। इन्हीं आड़ों में ग्रामीण भैलों को दोनों छोरों पर आग लगाई जाती है और फिर लोग उसे अपने चारों ओर ”भैलो रे भैलो, स्वाल पकोड़ खैलो”, भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू.., तो कहीं ”भैला ओ भैला, चल खेली औला, नाचा, कूदा मारा फाल.. फिर बौड़ी ऐगी बग्वाले” आदि गीतों को गाते हुए भैलो नृत्य किया जाता है। इस बीच पटाखे फोडऩे का दौर जारी रहता है।

भैलो बनाना भी अपने आप में इतना आसान कार्य नहीं है और इसको बनाने का कार्य दिवाली से एक-दो दिन पहले ही शुरू हो जाता है और छिल्लों को धूप में सुखाया जाता था।
कुछ वर्षों पहले तक यमकेश्वर क्षेत्र में भैलो के कुछ विशेष कलाबाज भी होते थे, जिसको स्थानीय भाषा में पुठ्यिा भैलो कहते थे। यह कलाकार भैलो को दोनों छोरों से जलाकर हाथ से घुमाने की बजाय इसकी रस्सी कमर में बांध देते थे। फिर दोनों हाथों को जमीन पर टिका देते थे और पैरों को ऊपर-नीचे उछालकर भैलों को अपनी कमर के सहारे चारोंं ओर घुमाते थे, लेकिन अब यह कला लगभग विलुप्ति की ओर जा चुकी है। पौड़ी गढ़वाल के ढांगू पट्टियों के कई गांवों में आज भी भैलो खेले जाते हैं।
आधुनिक साज-सज्जा और रस्मों के बीच चांदपुर पट्टी के कई गांवों में भी दीपावली पर भैलो नृत्य किया जाना दर्शाता है कि पहाड़ की लोक संस्कृति की जड़ें बहुत मजबूत हैं।
जनपद चमोली के चांदपुर पट्टी के गांवों में धनतेरस के दिन से ग्रामीण भैलो खेलने लगते हैं। पुरुष और महिलाएं अलग-अलग समूह में पारंपरिक चांछड़ी और थड्या नृत्य में दीपावली के गीत गाते हैं। कर्णप्रयाग क्षेत्र में भी पंचायत चौंरी में भैलो नृत्य होता है। हालांकि टिहरी, रुद्रप्रयाग व उत्तरकाशी जनपदों में दीपावली के अवसर पर अब नाममात्र के गांवों में ही भैलो खेले जाते हैं, जबकि देहरादून के जौनसार क्षेत्र में दीपावली के एक माह बाद बग्वााल मनााते हैं। इसमें भी भैलो खेले जाते हैं।

इसके अलावा दीपावली  से ११ दिन बाद आने वाली इगास के अवसर पर भैलो खेला जाता है। कुुुुछेक पहाड़ी इलाकों के साथ ही कुछ सामाजिक संगठन भी देहरादून में भैलो खेलकर इगास मनाते हैं, जो लोक संस्कृति को संजोये रखने के लिए अच्छी पहल है।

अत्याधुनिकता  है भैलो से मुंह मोडऩे की वजह
इसकी असल वजह युवा पीढ़ी द्वारा अपने आप को अति आधुनिक समझना माना जा रहा है।

यह भी कटु सत्य है कि जब माता-पिता ने अपने बच्चों को भैलो खेलना नहीं सिखाया तो वे इस पारंपरिक खेल से कैसे जुड़ेंगे! इसके अलावा पहाड़ी मूल के अधिकांश लोग अपने बच्चों को गढ़वाली बोलने से परहेज करते हैं। यही कारण है कि बच्चे आज पहाड़ी संस्कृति की बजाय पश्चिमी सभ्यता की ओर अधिक आकर्षित हो रहे हैं। ऐसे में भैलो जैसे पारंपरिक नृत्य अब धीरे-धीरे अदृश्य होने लगा है।
कुल मिलाकर भैलो को संरक्षित, संरक्षण व संंवर्धन किया जाना अति आवश्यक है, नहीं तो वह दिन दूर नहीं, जब भैलो केवल कहानियों में ही सुनने के लिए रह जाएगा।

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