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बचनी देवीः चिपको आंदोलन की गुमनाम पुरोधा

October 9, 2017
in पर्वतजन
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कुसुम रावत

 

यह कहानी एक ऐसी खास औरत की कहानी है, जिसकी बहादुरी व काम को भले ही वह पहचान नहीं मिली जिसकी वह हकदार थी, लेकिन हेंवलघाटी में 1970 के दशक में चला ‘‘चिपको आन्दोलन’’ उसकी स्पष्ट सोच, धैर्य और मजबूत इरादों का जीवंत दस्तावेज है। वह खास औरत है- टिहरी जिले के आदवाणी गांव की लगभग 95 साल की बचनी देवी। आदवाणी गांव खाड़ी से गजा के रास्ते पर साल के घने जंगलों में ढ़लान पर रचा बसा है। बचनी देवी के नेतृत्व में औरतों ने पेड़ों से चिपक कर 12-14 सालों तक अपने जंगल बचाये। आंदोलन खत्म होने पर आंदोलन से जुड़े लोग रातों रात देश दुनिया में मशहूर हो गये पर बचनी देवी को अफसोस है कि वह इस बुलंद इमारत का कंगूरा ना बना सकी। लेकिन बचनी देवी को पर्यावरण विकास की इस मजबूत इमारत की बुनियाद होने का बेहद गर्व है।

बचनी देवी की कहानी में आप देखोगे कि उसकी पूरी जिंदगी किस तरह से संघर्षों से भरी है। उसका चिपको आंदोलन का संघर्ष तो दुनिया के सामने आया पर उसकी निजी जिन्दगी के दर्द व घर के भीतर के संघर्ष को किसी ने ना देखा। बचनी देवी की जिंदगी में दो लड़ाईयां साथ साथ समान्तर रूप से चलीं। पहली “चिपको आंदोलन’ की और दूसरी ‘घर के भीतर पति से’। पति जंगलों के ठेकेदार थे। वह भी उन्हीं जंगलों के जिसके पेड़ों पर बचनी देवी की टोली चिपकी थी। वह इलाके के राशन डीलर थे और बचनी देवी को दूसरों की दुकानों से राशन खरीदना पड़ता था। 16-12-1993 को मैंने और इंटैक की तब की संपादक इंदिरा रमेश ने यह साक्षात्कार लिया था। इस साक्षात्कार में बचनी देवी ने अपनी जिंदगी के तमाम अनछुए पन्नों को खोलकर सामने रखा है। 1993 में पैनोस इंग्लैंड की मदद से इंटैक दिल्ली की मौखिक साक्षात्कार परियोजना के लिए इस साक्षात्कार को बिना बदले जैसे का तैसा हिमालय ट्रस्ट की अनुमति से प्रकाशित किया जा रहा है।

बचनी देवी की कहानी में हमने बार-बार महसूस किया कि सामाजिक बदलाव की लड़ाई के बीच एक औरत को कैसे अपनी निजी खुशियों, निजी सुरक्षा और निजी जगह को खोना पड़ता है। सामाजिक आन्दोलनों से जुड़ी औरतों के घर-परिवारों का संघर्ष उनको रोकता है, पीछे धकेलता है. इन अवरोधों के बावजूद बचनी देवी पहाड़ी नदी की माफिक रास्ते की मुसीबतों से बिना घबराए अपनी ही चाल से मदमस्त होकर अपना रास्ता खुद बनाकर बहती गई। मैंने बचनी देवी की जिन्दगी से समझा कि एक औरत की जिन्दगी में आये संघर्षों को पुरूष नेतृत्वकारियों और आंदोलनकारियों को नहीं झेलना पड़ता है। मेरी सोच है औरतों के संघर्ष ज्यादा अहम हैं, कठिन हैं और प्रेरणादायी हैं। अक्सर औरतें बड़ी लड़ाईयों में सहायक की भूमिका में ही खो जाती हैं। उन्हें वह पहचान नहीं मिलती जिसकी वह सही मायने में हकदार होती है. औरतों के संघर्ष उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा पर असर डालते हैं। परिवार के विरोध के बाद मिली किसी भी सफलता के पीछे छिपी पीड़ा को सिर्फ उस औरत का दिल ही जान सकता है। इस कहानी में एक बात और है कि लगातार विरोधों के बाद मिली सफलता के मायने तब कम हो जाते हैं जब जीत की मंजिल पर पहुँचकर उसके अपने लोग उसके साथ खडे नहीं मिलते। वह सफलता के शिखर पर बिलकुल अकेली खड़ी होती है। कदाचित सोचिये तब उस सफलता के मायने उस औरत के लिए क्या रह जाते होंगे? ऐसा ही कुछ बचनी देवी की जिंदगी में हुआ चिपको आन्दोलन पूरा हो जाने के बाद, जब वह चिपको आन्दोलन की विश्वव्यापी सफलता के बाद एकदम अकेले अपनी तिबार पर एक दो दिन नहीं बल्कि बरसों खड़ी रही.

मैंने बचनी देवी की कहानी में शिद्दत से महसूस किया कि कैसे सरकारी महकमा आंदोलनों से जुड़ी औरतों का मजाक बनाता है? अनपढ़ होने के कारण बचनी देवी के पास शब्द नहीं थे। लेकिन वह उस तीक्ष्ण व पैनी दृष्टि की धनी थी, जिसने 1993 में ही मौसम बदलाव की भविष्यवाणी कर दी थी। बचनी देवी की कहानी एक ऐसे समृद्ध इलाके की कहानी है जहां जंगलों की हरियाली लोगों के घरों-परिवारों और जीवन में में खुशहाली लेकर आई। बचनी देवी के दिखाए आइने में आज रोजगार के लिये पलायन करते नौजवानों व नीतिकारों के लिये विकास की ठोस रणनीतियां छुपी हैं। जरूरत है इस आइने पर बरसों से पड़ी धूल को साफ कर इसे पढ़ने, समझने व समझकर जमीन पर कुछ ठोस कर दिखाने की। कुछ ऐसी नीतियां-रीतियां बनाने की जो उत्तराखंड को राह दिखा सकें. इस गुमनाम पुरोधा की कहानी पढ़ आप खुद तय करेंगे कि उत्तराखंड के जंगल क्यों बचाने जरूरी हैं? कैसे जगंल बचाकर यहां के जनजीवन और धरती को आने वाली प्राकृतिक आपदाओं एवं विनाश से बचा सकते है? कैसे जंगल बचाकर जीवन में खुशहाली लाई जा सकती है?

बचनी देवी की आज 95 साल के करीब पहुंचने वाली हैं। वैसे तो वह पूरी तरह स्वस्थ हैं पर कानों से सुनना बहुत कम हो गया है। पिछले 15 सालों से अपने परिवार के बीच ही उनकी दुनिया रची बसी है। मैंने यह साक्षात्कार उनके गांव आदवाणी में उनकी ही तिबार में बैठकर लिया था। साक्षात्कार के अंत में बचनी देवी के कहे शब्द मुझे आज भी उतेजित करते हैं कि “अब सब फाइनल हो गया….. मैं बूढ़ी हूं तू आगे चल! लठ्ठी लेकर मैं चलूंगी हर जगह… काम तुम लोग करो। बाबा मैं देश दुनिया पर मंडराते खतरे को महसूस कर रही हूं। मेरा रैबार है कि हमें अपने घर बार, रीति रिवाज, खेत खलिहान, जंगल और पेड़ पौधे, नदी पहाड़ सब बचाने होंगे यदि हम मनखियों-मनुष्यों को जिंदा देखना चाहते हैं। 1993 में बचनी देवी के कहे यह महत्वपूर्ण शब्द मेरे लिए नहीं थे. ये शब्द हमारे हर पुरखे के हैं और आने वाली पीढ़ी के लिए हैं. ये हमारी अनमोल विरासत हैं. यह शब्द हमारे बुजुर्गों के खत्म होते ‘परंपरागत ज्ञान और अनुभव के कोठार’ को परख कर उत्तराखंड ही नहीं देश दुनिया में सही नीति नियोजन की स्वस्थ परंपरा और उसके अनुसार धरातल पर काम करने की जरूरत और खाका खींचने पर बल देते हैं। मूल रूप से साक्षात्कार गढ़वाली में दिया गया। इसके कुछ अंश पैनोस इंग्लैंड द्वारा मांउटेन वायस- अमर ज्ञान श्रृंखला नामक पुस्तक में छपे हैं। बचनी देवी से 1993 में हुई बातचीत की ‘अमर ज्ञान श्रृंखला’ की अनमोल धरोहर बचनी देवी के ही शब्दों में-

हम आदवानी गांव के हैं। तीन पीढ़ियों से हमारे बुजुर्ग यहां हैं। बुजुर्गों ने बाजरा खाकर अकाल दुकाल भी देखे और अपने दिन निकाले। हमारी कुछ पानी वाली खेती बेरनी गांव में है। हमारे लगभग 50 परिवार हैं. गांव में सबने अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से मकान बना रखे हैं। मेरी शादी 13 साल में हो गयी थी। इस समय मेरी उम्र लगभग 80 साल के करीब होगी। मेरे पति की दो शादी हैं। मैं छोटी हूं। बड़ी दीदी के 3 लड़के और मेरे 5 लड़के और 3 लड़कियां हैं। हम दोनों में आपस में बहुत प्रेम है। बच्चों और बहुओं में भी। हमारे पति मर चुके हैं। मैं तो पढ़ी-लिखी नहीं पर लड़के पढे़-लिखे हैं। सब अपने अपने काम धन्धों पर हैं। कोई वकील, कोई डाक्टर, पटवारी, मास्टर है। नाती नतेड़े भी अपनी जगह शान से खड़े़ हैं। मेरी लड़कियां अनपढ़ हैं पर उन्हें देख नहीं लगता कि वह अशिक्षित हैं। सब अपने घर गृहस्थी के कामों में लगी हैं। पुराने जमाने में लोग लड़कियों को पढ़ाते नहीं थे। मुझे अक्षर ज्ञान भी नहीं है अगर मेरे को अक्षर ज्ञान होता तो मैं सीधे चिपको नेता सुंदर लाल बहुगुणा जी के पास जाती और उनसे सवाल जवाब करती? कि चिपको आन्दोलन में हमारी भागेदारी भी थी. हमारा नाम-दाम क्यों नहीं दुनिया में हुआ? पर बाबा मैं घाटे बाटे-रास्ते नहीं जानती हूं। सो मेरी बात मेरे दिल में ही रह गई. सो अपने पढ़े लिखे न होने का मुझे बहुत अफसोस हुआ. मेरी बेटियां भी अनपढ़ हैं पर दामाद सब अधिकारी हैं. लेकिन मेरी पोतियां सब पढ़ी लिखी हैं। सो लड़कियों की पढ़ाई लिखाई के बारे में मेरा ख्याल है कि कोई व्यक्ति अपनी लड़की को दहेज दे या नहीं पर लड़कियों को थोड़ा पढ़ा लिखा जरूर दे। ऐसी मेरी मर्जी है। हम बुजुर्ग लोग तो अनपढ़ ही रह गये। अब समय ऐसा नहीं है। मेरी तीनों लड़कियों की शादी पढे़ लिखे बड़ी नौकरी वाले लड़कों से हुई। वह अच्छे से खा कमा रही हैं।

बचनी देवी कहती हैं कि बाबा! मेरे को एक बात बिल्कुल नहीं भूलती कि मैं चिपको आंदोलन में अपने पति के खिलाफ गई। मेरा पति जंगलों का ठेकेदार था. मैंने चिपको आन्दोलन में जो कुछ किया तो वह अपनी हिम्मत से और अपने दिमाग से किया। पढ़ने लिखने से कुछ नहीं होता। यदि मैं कागज में लिख कर बक्से में रख दूं वह कुछ नहीं होता। वह भी रद्दी है. असली बात तो दिमाग की ही है। दिमाग की बात ही ठीक है। पढ़ने लिखने से क्या होता है यदि तुम उसे अपनी जिंदगी में गुणों नहीं। हम सब अपने दिमाग का खाते हैं। भूख और पेट बड़ी चीज है। जो अन्न भरकर ही खत्म होगा। ऐसे ही किताबों में लिखे से क्या होगा यदि तुम उसे गुणोगे नहीं जिन्दगी के हिसाब से। पढ़ने का मतलब है कि तुम पढ़ कर अपनी जिन्दगी की किताब पढ़ सको। लिखने का मतलब है तुम लिखना सीखकर अपनी जिन्दगी को अपने अनुभवों से अपनी किस्मत खुद से लिखकर सजा संवार सको। हिसाब सीखने का फायदा तब है बाबा जब तुम अपनी जिन्दगी में भले बुरे का हिसाब लगाना सीख सको। यदि ऐसा नहीं तो मेरे हिसाब से ऐसी पढ़ाई लिखाई का कोई फायदा नहीं है कि आप अपने दिमाग से अपने घर परिवार-गांव-समाज के भले बुरे का विचार ना कर सको। जैसा चिपको से पहले जंगल काटने वाले ठेकेदारों ने किया।

बाबा! मेरे परिवार की व्यवस्था मैं स्वंय करती हूं। हम दोनों बुढियांए अपने काम खुद ही करते हैं। लड़के अलग-अलग जगह नौकरियों पर हैं। हमारे पास काफी खेती बाड़ी है। मैं कुछ खेती खुद करती हूं। कुछ आधे पर दे रखी है। बेरनी गांव में 7-8 मील दूर हमारे गांव की सिंचित खेती है। हम यहीं से वहां की खेती करते हैं। यदि बारिश ना हो तो अनाज नहीं होता है। अनाज कम होने पर हम दुकानों से ही अनाज लाते हैं। हमारे यहां धान, गेंहू, कोदा, झंगोरा, दालें, चीणा, गाथ और तोर दाल आदि धन धान्य होता है। मेरे पास एक जोड़ी बैल व दो भैंस हमेशा रहती हैं। पहले से धन चैन काफी घट गया है। मेरे में अब काम की हिम्मत नहीं रही। पशुओं के लिये चारा, खेतों, जंगलों और खेतों की मेंढों में से लाते हैं। हमें कभी घास खरीदना भी पड़ता है। हमारे पशु हैं पर हम दूध बेचते नहीं है। खूब खाते पीते हैं। फालतू दूध का घी, मक्खन, मठ्ठा बनाते हैं। तेल के बदले घी से छौंकते हैं। घी बेचते हैं। उस पैसे से अपना नमक, तेल खरीदते हैं। पहले सामान के बदल सामान लेते थे पर अब घी बेच लेते हैं।

हमारे गांव की पंचायत बहुत मजबूत है। हमारी मजबूत पंचायत ही हमारी गाँव की मजबूती का कारण है. गांव की सड़कें, सार्वजनिक भवन, पुस्ते, पेड़ों के ठेके सब पंचायत ही करती है। पंचायत में ठेके प्रथा पर काम होता है। गांव के शादी-ब्याह में सब मिल जुलकर काम करते हैं। सारा गांव मिलकर काम करता है, चाहे गरीब या अमीर किसी का भी काम हो। गांव के काम सहमति से बैठक में तय होते हैं। गांव में पंचों का निर्णय सबसे ऊपर माना जाता है। मेरे पति 30 साल र्निविरोध प्रधान रहे। उसके बाद मेरा डाक्टर बेटा प्रधान बना। हमारे परिवार की गांव में बड़ी हाम-प्रतिष्ठा है। लोग हमें पूछते गाछते हैं सब कामों में। चिपको आन्दोलन में जंगलों की लड़ाई के बाद तो मेरी मुल्क भर में शान बढ़ गई है. पहले तो लालाजी के कारण ही मुझको जानते थे. अब तो मेरे कारण मेरी शान है. ये बोल कर वह मुस्कराने लगीं.

बाबा! हमारे यहां देवी देवताओं की संस्कृति है। गांव में देवता भी पंचायती हैं। हमारे देवता हमारे इन्हीं पेड़ों और जंगलों में वास करते हैं। हम देवताओं को रोट-प्रसाद चढ़ाते हैं। जब नया अनाज होता है तो वह भी पहले देवता को चढ़ता है। हमारी कुलदेवी का मन्दिर हडिसेरा नाम की जगह में धान के हरे भरे खेतों में है। यह बेरनी के पास है. देवी हमको समय-समय पर अपनी शक्ति का अहसास कराती है। हमारे पूरे मुल्क का देवता घंडियाल है, जो बांज बुरांश के घने जंगलों में रहता है। जब बारिश नहीं होती तो ढोल-बाजों के साथ सारे गांव उसकी जात्रा देते हैं। हम अपनी परम्परा को मानते आये हैं और आगे भी मानेंगे। यही हमारे बुर्जर्गों की रीति-नीति है और बच्चों की भी रहेगी। अपनी इन्हीं परंपराओं के कारण हमारे जंगलों में हरियाली है और यही हरियाली हमारे घरों में खुशहाली लेकर आई। इसीलिए हमने चिपको आन्दोलन में 1970 के दशक में अपने पेड़ों पर चिपककर अपने जंगलों को कुल्हाड़ों की मार से बचाया है। हमारे इन्हीं खेत खलिहानों व जंगलों में ये हमारे देवी देवता बसते हैं। तो हम इन्हें कैसे कटने देते? अपनी इसी भावना के कारण हमने अपनी जान पर खेल चिपको आन्दोलन चलाया था.

नोट- बचनी देवी का यह इंटरव्यूह लम्बा होने की वजह से अगली पोस्ट में जारी है. जिसमें आप चिपको और घर के भीतर उनका असली संघर्ष देखोगे जो अभी तक दुनिया की नजरों में नहीं आया.
जारी….२.


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