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बदहाल स्थिति के लिए प्लानिंग अफसर जिम्मेदार!

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राज्य की दुर्दशा और वित्तीय अराजकता की असली वजह राज्य का प्लाङ्क्षनग विभाग और उसके मुखिया
रामास्वामी जैसे अफसर हैं

भारत सरकार नीति आयोग की तर्ज पर उत्तराखंड राज्य में भी राज्य योजना आयोग गठित है। आयोग के अध्यक्ष एवं नियोजन मंत्री स्वयं मुख्यमंत्री हैं। उपाध्यक्ष का पद खाली पड़ा है।
आयोग का मुख्य कार्य योजनाओं का संरक्षण करने के लिए थर्ड पार्टी के रूप में विभागों को समय-समय पर दिशा-निर्देश भेजना व योजनाओं की जांच/मूल्यांकन कर उसकी गुणवत्ता को सदैव ऊंची बनाए रखने का कार्य करता है और समय-समय पर विभागों द्वारा किए गए कार्यों का अध्ययन/मूल्यांकन के आधार पर विभागों को निर्देशित कर अनुपयोगी योजना को समाप्त करने और वास्तविक योजनाओं का परीक्षण कर जिसका लाभ क्षेत्र विशेष के लिए उपयोगी सिद्ध हो सके और रोजगारपरक योजनाओं को नियोजन की दृष्टि से परीक्षण कर वित्त विभाग को संस्तुति करता है, परंतु वर्तमान आयोग की स्थिति को देखते हुए सरकार ने आयोग के माध्यम से योजनाएं न भेजकर अब सीधे वित्त विभाग को प्रेषित की जाती है। जिससे राज्य के आयोग की भूमिका शून्य सी हो गई है।
व्यवहार में आयोग तो बन गया और आयोग का ढांचा भी बनाया गया, परंतु १७ वर्ष हो चुके हैं, अभी तक सेवा नियमावली नहीं बन पाई, जिससे अभी तक कोई भी नियुक्ति नहीं हो पाई है और जो कार्मिक उत्तर प्रदेश से आए, अधिकांश सेवानिवृत्त हो गए हैं और उनको ही पुन:नियुक्ति देकर सामान्य कार्य कर रहे हैं। इस प्रकार आयोग की कमजोरी को देखते हुए ऊंचे वेतन के रिक्त निदेशक व विभागाध्यक्ष के पद पर बैकडोर से नौकरशाह व सरकार की कृपा से जल संस्थान के मुख्य महाप्रबंधक को तैनाती दी गई, जबकि वे केवल जल संस्थान के मुखिया हो सकते थे। यह पद तो राज्य के समस्त योजनाओं एवं कार्यक्रमों को परखने के लिए था और यह पद राज्य योजना आयोग संवर्ग का है, तो कैसे इंजीनियरिंग विभाग को सौंप दिया गया, जो कि पूर्व में चर्चा का विषय रहा। उस पर तैनात निदेशक सभी लाभ लेकर अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं।
वर्तमान में लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियंता को आयोग में मुखिया के रिक्त पद पर बैकडोर से बैठा दिया गया है। इस प्रकार शासन के रवैये से विभागीय कार्मिक परेशान हैं। उनके सेवा नियमावली नहीं बनाने से पदोन्नति से भी वंचित रहे हैं और मन मारकर सेवा कर रहे हैं। जब से आयोग में इंजीनियरों की घुसपैठ शुरू हुई, तब से सिंचाई विभाग, लोक निर्माण विभाग व जल निगम के कई अधिकारी सलाहकार के पद पर माननीयों की कृपा से नियुक्ति पा चुके हैं। इसका लाभ राज्य को कितना मिल रहा है, इसको कभी प्रचारित नहीं किया गया। इन अधिकारियों की नियुक्ति करने में तत्कालीन प्रमुख सचिव एस. रामास्वामी, जो अब मुख्य सचिव पद से हाल ही में हट चुके हैं, उनकी विशेष कृपा दृष्टि रही है, क्योंकि प्रोक्योरमेंट रूल में आयोग के कार्यों की तात्कालिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन प्रमुख सचिव द्वारा माननीयों से अनुमोदन प्राप्त कर नियुक्त किए हैं। २-३ अधिकारी तो ७१-७२ वर्ष के हो चुके हैं, परंतु चहेते होने से अभी भी बरकरार सेवा दे रहे हैं, जबकि इन नियुक्तियों में सरकार से अनुमोदन की जरूरत नहीं है, परंतु शासन के अधिकारी अपने चहेते को सुरक्षित रखने के लिए माननीयों से अनुमोदन कराने में सफल रहते हैं।
इसी प्रकार आयोग के मुख्य समन्वयक के पद को खाली देखकर अर्थ एवं संख्या विभाग के संयुक्त निदेशक भी बैकडोर से दो स्तर ऊंचे वेतन पर, जो उनके विभागाध्यक्ष के समान वेतनमान है, उस पर प्रतिनियुक्ति पाने में सफल हो गए हैं। उन पर भी तत्कालीन प्रमुख सचिव एस. रामास्वामी की विशेष कृपा रही है। उक्त संयुक्त निदेशक का आयोग में जाने के बाद भी निदेशालय में जाने का मोह नहीं छूटा और शासन ने संयुक्त निदेशक अर्थ एवं संख्या का अतिरिक्त चार्ज दिया गया, जबकि यह पद उसके विभाग का मौलिक पद है?
शासन की कार्यशैली पर सवाल यह है कि प्रतिनियुक्ति पर दो स्तर ऊंचे वेतनमान पाकर मूल विभाग का अतिरिक्त चार्ज कैसे हो सकता है! परंतु उत्तराखंड में तो सब कुछ संभव है। यहां माननीयगण भी उदार प्रकृति के हैं। उनको नियम से क्या लेना-देना है। यहां तो आम खाने से मतलब है। प्रतिनियुक्ति के पद पर न विज्ञप्ति निकली और न कार्मिक विभाग का परामर्श ही लिया गया, जबकि कार्मिक विभाग के जीओ के अनुसार ८७०० ग्रेड पे की नियुक्ति मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित कमेटी द्वारा की जाती है तो एस रामास्वामी ने कैसे नियमों को ताक पर रख प्रतिनियुक्ति पर नियुक्ति दी?
एस. रामास्वामी तत्कालीन प्रमुख सचिव ने तो २० सूत्रीय कार्यान्वयन समिति के सचिव पद के अधिकार को अपने मन से अर्थ एवं संख्या निदेशक को प्रतिनिधानित कर दिया। जब निदेशक २० सूत्रीय के सचिव व विभागाध्यक्ष हो गए तो कैसे विभागों के सचिव/प्रमुख सचिव उनकी बैठक में जा सकते हैं? ऐसे में शासन के प्रमुख सचिव व सचिवों को बैठक में निदेशक कैसे बुला सकेगा? इस प्रकार २० सूत्रीय विभाग भी असहाय विभाग रह गया है।
यह भी जानकारी में आया है कि २० सूत्रीय कार्यक्रम एवं कार्यान्वयन विभाग के उपाध्यक्ष एवं क्षेत्रीय विधायक बद्रीनाथ को केवल अपने विधानसभा क्षेत्र भ्रमण पर उनको निजी स्कार्पियो गाड़ी का किराया व पेट्रोल आदि का बिल लगभग २० लाख रुपए एस. रामास्वामी तत्कालीन प्रमुख सचिव द्वारा स्वीकृत कर भुगतान कर दिया गया। अब लगभग ७-८ लाख और भुगतान होना है। बजट प्राप्त होकर भुगतान भी हो जाएगा। मजे की बात यह है कि सभी विधायकों को अपने क्षेत्र भ्रमण के लिए क्षेत्र भत्ता मिलता है। इस प्रकार जनता के पैसे का किस प्रकार दुरुपयोग हो रहा है, इसको देखने वाला कोई नहीं है। वित्त विभाग द्वारा भी कैसे भुगतान कर दिया गया, इस पर प्रमुख सचिव एस. रामास्वामी व वित्त विभाग की जिम्मेदारी निर्धारित की जानी चाहिए।
इसी प्रकार २० सूत्रीय कार्यक्रम द्वारा प्रत्येक वर्ष दो विभागों के कार्यक्रमों का भौतिक सत्यापन कर वास्तविक रिपोर्ट नियोजन विभाग को प्रस्तुत की जाती है, किंतु नियोजन विभाग ने १७ वर्षों में सत्यापन में जो कमियां पाई थी, उस पर आवश्यक कार्यवाही करने में कोई रुचि नहीं दिखाई तो योजनाओं में सुधार, गुणवत्ता लाए जाने की कल्पना कैसे की जा सकती है।
अर्थ एवं संख्या निदेशालय द्वारा ५० लाख से ऊपर की धनराशि पर लैपटॉप खरीदने के लिए शासन से अनुमति प्राप्त करने के लिए प्रस्ताव भेजा था, उन्होंने तकनीकी परीक्षण के लिए आईटी विभाग को भेज दिया। उसके बाद एस. रामास्वामी ने आईटी विभाग से फाइल वापस मंगाकर निदेशालय को सीधे एप्पल का लैपटॉप खरीदने के सीधे ऑर्डर कर दिए। इस प्रकार वित्त विभाग द्वारा जारी प्रोक्योरमेंट रूल्स का सीधा उल्लंघन किया गया है। क्या इस पर भी सरकार गंभीरता से विचार करेगी?
इस प्रकार रामास्वामी जिस विभाग में भी रहे, चर्चित रहे हैं। कृषि विभाग में अपने चहेते को फिट करने के लिए कृषि शिक्षा निदेशक व परियोजना निदेशक का अतिरिक्त पद अपने मन से सृजित कर उन पदों पर प्रभारी बनाकर तैनात करा दिया। उसके बाद अविलंब डीपीसी के लिए प्रस्ताव प्रेषित कर दिया। डीपीसी के समय कार्मिक विभाग ने आपत्ति कर दी, तभी डीपीसी रुक गई? ऐसे ही वन विभाग में स.वि.अ.(वन) को नियम को ताक कर सीधे रेंजर बना दिया, जबकि रेंजर पद लोक सेवा आयोग के अधीन है, जो कई दिन तक चर्चा में रहे और विभाग के कार्मिकों द्वारा माननीय न्यायालय की शरण लेने के बाद उनकी पदोन्नति निरस्त हुई, जो राज्य में काफी समय तक चर्चा का विषय रहा।
एस. रामास्वामी प्रमुख सचिव जब-जब नैनीताल शासकीय भ्रमण पर गए तो मनुमहारानी होटल में तीन-चार कमरे बुक कर परिवार सहित रहते थे, जबकि राज्य संपत्ति भवन इन्हीं अधिकारीगणों के लिए बना है। नियोजन विभाग के लंबे कार्यकाल में भी उनके द्वारा कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया गया। यहां तक कि नियोजन विभाग के अधिकांश पद आज भी रिक्त चल रहे हैं, जबकि यह एक रुटीन प्रक्रिया है। इसमें उनके द्वारा कभी भी रुचि नहीं ली गई। जिसके फलस्वरूप उत्तराखंड के सभी विकासखंडों में सहायक विकास अधिकारी सांख्यिकी के रिक्त रहने के कारण विकासखंड स्तर पर आंकड़ों का संकलन का कार्य अब समाप्त सा हो गया है?
नियोजन विभाग की मुख्य कमजोरी यह रही है कि कभी भी समय पर प्लान नहीं बन पाया, जिससे विभागों के लक्ष्य पूर्ण करने व उन पर शत प्रतिशत खर्च करने में सदैव विफल रहा है। उदाहरणार्थ गत वर्ष ३१ मार्च २०१७ को वित्त विभाग द्वारा २५०० करोड़ रुपया अवमुक्त किया गया। क्या यह एक दिन में खर्च किया जाना संभव था?
यदि नहीं था तो ३१ मार्च से पूर्व धनराशि खर्च क्यों नहीं की गई, जबकि प्रत्येक विभाग से मासिक योजनाओं का व्यय विवरण मांगा जाता है। अब वित्तीय वर्ष में भी बजट खर्च कैसे होगा, यह चर्चा का विषय बना हुआ है, क्योंकि सरकार की प्रतिबद्धता प्लान बनाने की ३१ मार्च से पूर्व थी, परंतु अभी भी जिला प्लान कुछ जनपदों से प्राप्त नहीं है, जबकि लगभग ८ माह बीत चुके हैं। क्या शेष चार माह में सभी विभागों के भौतिक लक्ष्य पूर्ण हो जाएंगे?
यह डबल इंजन की सरकार के लिए एक प्रकार से चुनौती होगा। क्या वर्तमान सरकार आयोग में अनियमित रूप से हुई नियुक्तियों को शीघ्र समाप्त करेगी? इस प्रकार राज्य योजना आयोग में अवैध रूप से की गई नियुक्ति पर जीरो टोलरेंस की सरकार क्यों चुप बैठी है? क्या जांच कर दोषी लोगों के विरुद्ध कार्यवाही करेगी, जबकि नियोजन विभाग के मंत्री व आयोग के अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री हैं।

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