वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश ने किया हल्द्वानी आईएसबीटी निर्माण में करोड़ों का घोटाला। हल्द्वानी को अराजक शहर बनाने में तुली इंदिरा हृदयेश
पर्वतजन ब्यूरो
उत्तराखंड में सचिवालय के गलियारों में आजकल एक फाइल विगत नौ माह से आगे-आगे दौड़ रही है और पीछे-पीछे अनुभाग अधिकारी से लेकर मुख्य सचिव तक हांफते-हांफते लपके जा रहे हैं। हर कारिंदा बस इसी प्रयास में लगा है कि ये फाइल जल्दी से जल्दी अपने मुकाम तक पहुंच जाए। यह फाइल हल्द्वानी अंतर्राज्यीय बस अड्डे (आईएसबीटी) के निर्माण की है। सचिवालय के ही कुछ संबंधित अफसरों को इसमें करोड़ों का घोटाला नजर आ रहा है। इसकेबावजूद भी ये फाइल दौड़ रही है।
हल्द्वानी में अंतर्राज्यीय बस अड्डे का निर्माण कराए जाने के लिए वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश आखिर इतनी उतावली क्यों हैं कि उनके दबाव में सारे नियम-कायदे दरकिनार कर चहेती कंपनी को करोड़ों रुपए का निर्माण कार्य बिना नियम कायदे के मुंहमांगी दरों पर दे दिया गया है। विभागीय अधिकारियों ने काफी अगर-मगर और ना-नुकुर के बावजूद भी इंदिरा हृदयेश का दबाव इतना अधिक है कि इस कंपनी को दो बार में ७ करोड़ रुपए जारी भी कर दिए गए हैं, लेकिन कंपनी क्या कर रही है और क्या करेगी, इस बात का कोई भी जवाब जिम्मेदार अधिकारियों के पास नहीं है।
बिना काम के पहली किश्त
हल्द्वानी में अंतर्राज्यीय बस अड्डे के निर्माण के लिए वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश के दबाव में एनसीसी कंपनी को काम दिया गया है। इस कंपनी को २३ जून २०१६ को २६६.६७ लाख की धनराशि परिवहन सचिव सीएस नपलच्याल के आदेशों से जारी की गई थी। धनराशि जारी करते हुए परिवहन सचिव श्री नपलच्याल ने अपने पत्र में स्पष्ट शर्तें और प्रतिबंध जारी किए थे कि जिस काम के लिए यह धनराशि अवमुक्त की जा रही है, उसकी डीपीआर जल्दी से जल्दी शासन को उपलब्ध करा दी जाए।
परिवहन सचिव नपलच्याल ने यह शर्त भी रखी थी कि स्वीकृत धनराशि का पूर्ण उपयोग करने के उपरांत उपयोगिता प्रमाण पत्र व योजना की डीपीआर तत्काल शासन को उपलब्ध कराई जाएगी। ये दस्तावेज शासन में आ जाने के बाद ही द्वितीय चरण की स्वीकृति पर कार्यवाही की जा सकेगी।
एनसीसी कंपनी ने इस धनराशि से धरातल पर कुछ नहीं किया, किंतु और अधिक धनराशि जारी कराने के लिए शासन पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। विश्वस्त सूत्रों के अनुसार वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश के लिए सचिवालय में फाइलों का मूवमेंट और काम कराने के लिए कुछ लोग शासन के अधिकारियों पर अनुचित दबाव बनाए रखते हैं। उनके दबाव में शासन में बैठे अफसर इस तरह के नियम विरुद्ध कार्य करने को विवश हैं। एनसीसी कंपनी ने वित्त मंत्री के संरक्षण के चलते ये धनराशि तो हजम कर ली, किंतु सचिव नपलच्याल की शर्तों और प्रतिबंधों संबंधी पत्र को कचरे के डिब्बे में डाल दिया।
काम शुरू नहीं, दे दिए करोड़ों
एनसीसी कंपनी की इस नाफरमानी के बावजूद वित्त मंत्री के दबाव में शासन ने फिर से २ सितंबर २०१६ को इस कंपनी को अंतर्राज्यीय बस अड्डे के निर्माण के नाम पर ४ करोड़ ९४ लाख रुपए और जारी कर दिए। संभवत: सचिव नपलच्याल इस धनराशि को जारी करने के इच्छुक नहीं थे। जब वह छुट्टी पर चले गए तो प्रमुख सचिव डा. उमाकांत पंवार को उनका लिंक अधिकारी नामित किया गया था। उमाकांत पंवार ने २ सितंबर को यह धनराशि जारी कर दी।
सवाल उठता है कि ऐसी कौन सी आफत आ रही थी कि मात्र लिंक अधिकारी होने के बावजूद भी उमाकांत पंवार ने इतनी भारी-भरकम धनराशि कंपनी को जारी कर दी, जबकि एक दिन बाद यानि ३ सितंबर को सचिव नपलच्याल ने दोबारा से ज्वाइन कर लिया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि नपलच्याल यह धनराशि जारी नहीं करना चाहते थे, इसीलिए वह अवकाश पर चले गए और कंपनी को धनराशि जारी होते ही छुट्टी से आ गए। उमाकांत पंवार ने भी ४.९४ करोड़ जारी करते हुए फिर से यही शर्तें रखी कि कंपनी डीपीआर (डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट) और उपयोगिता प्रमाण पत्र तत्काल जमा कराएगी। इसके साथ ही यह शर्त भी थी कि कार्य करने से पहले विस्तृत आगणन/मानचित्र पर सक्षम अधिकारी से स्वीकृति प्राप्त करनी आवश्यक होगी। कंपनी ने यह रकम स्वीकृत कराने के बाद भी ऐसे कोई दस्तावेज जमा नहीं कराए। इससे साफ पता चलता है कि कंपनी ने करोड़ों रुपए हासिल करने के बाद भी कोई काम अब तक शुरू ही नहीं किया है।
असली सवाल अब खड़ा होता है कि आखिर इस कंपनी पर ऐसा क्या शहद लगा है कि इसको बिना काम किए ही साढे सात करोड़ से अधिक की रकम दे दी गई है और उसने अब तक यह तक नहीं बताया कि आखिर वह क्या काम करेगा। उसकी कितनी लागत आएगी और यह काम वह कैसे करेगा! आखिर किस दबाव में शासन में बैठे अधिकारी आंख मूंदकर खजाना खाली करते जा रहे हैं। सरकार मैं बैठे किस शख्स के कौन से हित इस कंपनी को भारी भरकम धनराशि लुटाने में सध रहे हैं।
पर्वतजन ने अपनी पड़ताल में पाया कि शासन में नीचे से लेकर ऊपर तक कोई भी अधिकारी-कर्मचारी कंपनी को इस तरह से धन जारी करवाने के पक्ष में नहीं था, किंतु वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश के दबाव में उनकी एक न चली। आइए गहराई से इसका खुलासा करते हैं।
तिवारी सरकार में शुरुआत
हल्द्वानी में आईएसबीटी के निर्माण की आवश्यकता एनडी तिवारी की सरकार के कार्यकाल में ही शासन स्तर पर लिखा-पढ़ी का विषय बन गई थी। तब एनडी तिवारी ने इस परियोजना के निर्माण के लिए वाइबल गैप फंडिंग के तहत भारत सरकार को एक प्रस्ताव भेजे जाने के निर्देश दिए थे, किंतु शासन स्तर के अधिकारियों की ढिलाई के कारण एनडी तिवारी की यह सोच कागजों पर भी नहीं उतर पाई थी कि उनकी सरकार चली गई। वर्ष २००८ में भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान वर्ष २००७-०८ में इसके निर्माण हेतु एक हजार रुपए धनराशि टोकन मनी के रूप में रखे जाने संबंधी निर्देश जारी हुए थे, किंतु ऐसा नहीं हो पाया। वर्ष २००९-१० में इसकी लागत १५ से २० करोड़ रुपए आंकी गई और तत्कालीन अपर सचिव परिवहन विनोद शर्मा ने पीपीपी मोड में इसका निर्माण किए जाने के लिए सचिव नियोजन को वित्तीय वर्ष २००९-१० में इसका हैड खोलने के लिए कार्यवाही शुरू की थी।
नियोजन विभाग ने टोकन धनराशि पर सहमति देते हुए प्रशासकीय विभाग को यह परामर्श दिया था कि इस प्रोजेक्ट को नियोजन विभाग के पीपीपी सेल से परीक्षण करवाकर भारत सरकार से अनुमोदित करा लिया जाए, ताकि केंद्र सरकार से इसके निर्माण के लिए वायबिलिटी गैप फंडिंग के तौर पर पैसा मिल सके। उस दौरान राज्य में भाजपा की सरकार थी और हल्द्वानी के एक विधायक बंशीधर भगत ही परिवहन मंत्री भी थे। हल्द्वानी में आईएसबीटी की स्थापना के लिए तत्कालीन मंत्री बंशीधर भगत ने ट्रांसपोर्टनगर हल्द्वानी में १०-१२ हैक्टेयर भूमि चिन्हित की थी, किंतु यह परिवहन विभाग के स्वामित्व में नहीं थी। लिहाजा वन विभाग से भूमि स्थानांतरण की कार्यवाही शुरू की गई। इस बीच भाजपा सरकार भी चली गई।
असली खेल इस सरकार में
मार्च २०१२ के बाद दोबारा से इस पर कार्यवाही शुरू की गई। ३१ मार्च २०१५ को ८३ लाख ३६ हजार रुपए भारत सरकार के कैंपा फंड में जमा करने के बाद यह भूमि परिवहन विभाग को हस्तांतरित कर दी गई। इसके एवज में ८ मई २०१५ को ८ हैक्टेयर वन भूमि परिवहन विभाग को मिल गई। वित्तीय वर्ष २०१५-१६ में आईएसबीटी हल्द्वानी के निर्माण के लिए १० करोड़ की धनराशि दी गई। अब असली खेल शुरू होना था।
इंदिरा की एंट्री
शासन ने स्पष्ट लिखा था कि आईएसबीटी के निर्माण के लिए कार्यदायी संस्था का चयन किए जाने के बाद निर्माण कार्य के लिए डीपीआर बनाई जाएगी, किंतु इससे पहले कि शासन स्तर पर कार्यदायी संस्था चुने जाने के लिए टेंडर आदि आमंत्रित किए जाने की कार्यवाही शुरू की जाती, इससे पहले ही वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश ने शासन में परिवहन के प्रमुख सचिव एस. रामास्वामी को फोन पर एचएससीएल नामक कंपनी से काम कराने के लिए कहा।
यह घटना २९ मई २०१५ की है। सहयोगी मंत्रियों का दबाव मुख्यमंत्री पर बढ़ता जा रहा था और इसी दबाव में मुख्यमंत्री को नियम-कायदों से अपनी आंखें बंद करनी पड़ी और मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भी इस संस्था को कार्यदायी संस्था बनाने के लिए अपना अनुमोदन दे दिया। इस बीच अज्ञात कारणों से वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश और एचएससीएल कंपनी के बीच की ट्यूनिंग बिगड़ गई और वित्त मंत्री हृदयेश ने इस कंपनी को कार्यदायी संस्था बनाने के आदेशों को निरस्त करने के लिए कह दिया। यह फरमान अफसरों के गले अटक गया। अपनी गर्दन बचाने के लिए और फाइल का पेट भरने के लिए अफसरों द्वारा कारण बताया गया कि यह कंपनी कार्य में रुचि नहीं ले रही है और काम में विलंब कर रही है। सवाल यह उठता है कि जब २० जुलाई २०१५ को कार्यदायी संस्था और परिवहन विभाग के बीच एमओयू जारी करने का फैसला हुआ तो मात्र ९ दिन बाद ही २९ जुलाई को इस कंपनी पर विलंब करने का आरोप लगाने के पीछे कौन सा औचित्यपूर्ण आधार था?
आरटीआई में पर्वतजन के पास उपलब्ध दस्तावेजों से साफ पता लगता है कि एचएससीएल कंपनी को जानबूझकर काम नहीं दिया गया। कार्यदायी संस्था बनाए जाने के बाद एचएससीएल ने कई बार शासन से पत्र व्यवहार करके आगे के लिए आदेश मांगे, किंतु इंदिरा हृदयेश के दबाव में शासन ने कोई उत्तर नहीं दिया। उल्टा उन्हीं के सिर काम में रुचि न लेने का ठीकरा फोड़कर एनसीसी को कार्यदायी संस्था बना दिया।
एनसीसी कंपनी हल्द्वानी में स्टेडियम का निर्माण कर रही है और इसकी काम की रफ्तार वहां भी बेहद धीमी है। एनसीसी कंपनी की सहयोगी कंपनी कोलाज डिजाइन एनसीसी के साथ ही कार्य करती है। शासन ने बिना किसी नीतिगत फैसले के परिवहन विभाग में आईएसबीटी के काम के लिए उक्त कोलाज कंपनी के साथ मिलकर प्रिक्वालिफिकेशन टेंडर भी तैयार कर लिया। जाहिर है कि इसके पीछे मंशा यही थी कि अगर कोलाज कंपनी के मार्फत एक बार एंट्री हो गई तो फिर एनसीसी कंपनी को निर्माण कार्य मिलने में आसानी हो जाएगी। २५ जुलाई २०१५ को प्रमुख सचिव परिवहन रामास्वामी ने मुख्य सचिव से इस कंपनी को डिजाइन और डीपीआर बनाने के लिए नामित करने की अनुमति मांगी, किंतु परिवहन विभाग पहले ही इस कंपनी से डीपीआर और प्रिक्वालिफिकेशन टेंडर करा चुका था।
इंदिरा हृदयेश का हस्तक्षेप
सवाल उठता है कि जब परिवहन विभाग पहले ही उक्त कंपनी से प्रिक्वालिफिकेशन टेंडर और डीपीआर तैयार करा ली थी तो फिर मुख्य सचिव से अनुमति मांगने का दिखावा करने की जरूरत क्या थी! एक सवाल यह भी है कि परिवहन विभाग को उस एजेंसी से ये कार्य कराने को किसने कहा? रामास्वामी ने अनुमति मांगते हुए एक मीटिंग के दौरान इंदिरा हृदयेश द्वारा दिए गए निर्देशों का हवाला दिया कि इस कंपनी को काम देने के लिए उन्होंने ही कहा था। बकौल रामास्वामी, इसके पीछे इंदिरा हृदयेश ने यह तर्क भी दिया था कि डिजाइन और डीपीआर तैयार करने वाली कंपनी फ्री में यह काम कर देगी।
हल्द्वानी में आईएसबीटी के निर्माण के लिए १ सितंबर २०१५ को इच्छुक निविदादाताओं से प्रिक्वालिफिकेशन टेंडर मांगे गए। २४ सितंबर २०१५ को जब टेंडर खोले गए तो तीन कंपनियों ने अपनी निविदा दी थी। इनमें से एनसीसी लिमिटेड और प्रसाद एंड कंपनी को प्रिक्वालिफिकेशन बिड में सफल घोषित किया गया।
शासन के हलकों में इस बात की आम चर्चा है कि टेंडर डालने वाली सभी कंपनियां एनसीसी को ही काम दिलाना चाहती थी।
इसके अलावा कोलाज कंपनी ने भी ८८ करोड़ ४४ लाख ६२ हजार की लागत वाली प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाकर प्रमुख सचिव को प्रस्तुत कर दी। अब यह प्रोजेक्ट रिपोर्ट टीएसी (टेक्निकल एंड एकाउंट्स कमेटी) से भी परीक्षित और अनुमोदित कराई जानी थी। इसके बाद ही वित्त व्यय समिति (एफईसी) धन स्वीकृत करने की कार्यवाही कर सकती है।
सीएम के दोबारा टेंडर के निर्देश
गौरतलब है कि इस दौरान विभागीय मंत्री सुरेंद्र राकेश मरणासन्न अवस्था में थे। लिहाजा कोलाज कंपनी से काम कराने से लेकर निविदा में एनसीसी और प्रसाद कंपनी के प्रस्तावों को चयनित करने तक वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश का ही दबाव चला। इस दबाव के चलते एक और बड़ा खेल कर दिया गया।
कोलाज कंपनी ने पहले २८ सितंबर २०१५ को आईएसबीटी के निर्माण के लिए ६९.४९ करोड़ के आगणन डीपीआर को शासन के अनुमोदन हेतु प्रस्तुत किया था। किंतु कंपनी का चयन हो जाने के बाद १५ अक्टूबर २०१५ को ८८ करोड़ ४४ लाख ६२ हजार रुपए का संशोधित आगणन शासन को थमा दिया। किंतु इस बीच परिवहन मंत्री सुरेंद्र राकेश का निधन हो गया और यह मंत्रालय मुख्यमंत्री हरीश रावत के पास आ गया। मुख्यमंत्री ने फाइल देखी तो पहले अनुमानित लागत ६९ करोड़ के मुकाबले ८८ करोड़ की अत्यधिक लागत को देखते हुए १९ अक्टूबर को दोबारा से टेंडर आमंत्रित करने के निर्देश दे दिए। इससे बना बनाया खेल बिगड़ते देखकर वित्त मंत्री इंदिरा हक्की-बक्की रह गई। उन्होंने मुख्यमंत्री पर फिर से दबाव बनाया।
सीएम के आदेश रद्दी में
शासन के उपसचिव प्रकाशचंद्र जोशी ने पुन: निविदा आमंत्रित करने के लिए फाइल चलाई, किंतु मौखिक रूप से पड़ रहे इंदिरा हृदयेश और तत्कालीन मुख्य प्रधान सचिव राकेश शर्मा के दबाव के कारण परिवहन सचिव ने मुख्यमंत्री के आदेशों को दरकिनार करते हुए पुरानी डीपीआर पर ही टीएसी की सहमति प्राप्त करने के निर्देश जारी कर दिए। नपलच्याल ने दबाव को तर्कसंगत ढंग से छुपाते हुए जस्टीफाई किया कि इस प्रकरण में काफी समय व्यतीत हो चुका है और वित्तीय वर्ष समाप्ति की ओर है। नपलच्याल का तर्क था कि वित्तीय वर्ष २०१५-१६ में इस मद में १२ करोड़ रुपए का बजट प्राविधान है और पुन: निविदा आमंत्रित किए जाने पर समय लगने तथा यथाशीघ्र अग्रिम कार्यवाही न होने पर यह धनराशि लैप्स होने की संभावना है।
वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश के दबाव में मुख्यमंत्री ने भी अपनी सहमति दे दी। वरना मुख्यमंत्री इस पैसे को लैप्स न होने देने के लिए परिवहन आयुक्त के पीएलए खाते में डलवाकर दोबारा से निविदा आमंत्रित करने के पक्ष में ही थे।
गौरतलब है कि सीएस नपलच्याल अपेक्षाकृत साफ छवि के अफसर माने जाते हैं। मुख्यमंत्री पर आंख बंद करने का दबाव हो सकता है, किंतु नपलच्याल पर आखिर कौन सा दबाव था, यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है।
टीएसी ने लगाई आपत्ति
बहरहाल, जब परियोजना पर आने वाली लागत का आगणन टीएसी के अनुमोदन के लिए भेजा गया तो टीएसी ने तमाम आपत्तियां लगाते हुए दोबारा से आगणन तैयार करने के लिए वापस भेज दिया। टीएसी वित्त ने आपत्ति लगाई कि उक्त आगणन प्लिन्थ एरिया दरों पर बनी होने के कारण इसका परीक्षण नहीं किया जा सकता। साथ ही उन्होंने शासनादेश संख्या ५७१/ङ्गङ्गङ्गङ्कढ्ढढ्ढ(ढ्ढ)/२०१० दिनांक १९ अक्टूबर २०१० के अनुसार आगणन गठित करने को कहा तथा परामर्श दिया कि यह आगणन उत्तराखंड अधिप्राप्ति नियमावली, २००८ में दिए गए दिशा-निर्देशों के आधार पर गठित किया जाए। अब फिर से यह प्रोजेक्ट खटाई में पड़ता दिखने लगा। इस प्रोजेक्ट के निर्माण शासन द्वारा ईपीसी (इंजीनियरिंग प्रोक्योरमेंट एंड कंस्ट्रक्शन) मोड में करने का निर्णय लिया गया। अब सवाल आया कि ईपीसी मोड के लिए तो कोई गाइड लाइन उत्तराखंड में अभी तक लागू ही नहीं है। ऐसे में इस तरह की नियमावली को और ईपीसी फ्रेम वर्क को इंटरनेट से डाउनलोड किया गया, किंतु अब एक सवाल और खड़ा था कि इस फ्रेम वर्क पर मंत्रिमंडल का अनुमोदन आवश्यक था। ईपीसी मोड में डिजाइन और कंस्ट्रक्शन के आधार पर निर्माण कार्य किया जाता है और लमसम लागत के आधार पर ठेकेदार का चयन किया जाता है। साथ ही इसमें एक कंसल्टेंट की भी नियुक्ति की जाती है जो सरकार के लिए इस काम की देखरेख करता और आवश्यक दिशा-निर्देश देता। टीएसी पर भी काफी दबाव डाला गया, किंतु फिर भी टीएसी ने कोलाज के द्वारा बनाई गई ८८ करोड़ की लागत को काट कर इस निर्माण कार्य के लिए ८० करोड़ २ लाख ८२ हजार रुपए स्वीकृत किए और यह भी निर्देश दिए कि इसमें कंसल्टेंसी चार्ज ३ करोड़ ६७ लाख १५ हजार की धनराशि भी सम्मिलित रहेगी।
लागत बढ़ाती चली गई कंपनी
अब ताज्जुब देखिए कि पहले कोलाज कंपनी ने ६९ करोड़ की डीपीआर बनाई और जब कंपनी को काम मिल गया तो उसकी सशोधित डीपीआर ८८ करोड़ की थी। इस पर टीएसी ने ८० करोड़ अनुमोदित किए, किंतु इसके बाद एक बार फिर एनसीसी कंपनी ने इसकी लागत ९० करोड़ ९ लाख ६२ हजार रुपए बताते हुए नई वित्तीय निविदा शासन में जमा की।
शासन ने कंपनी के प्रतिनिधियों को नेगोशिएशन के लिए बुलाया, ङ्क्षकतु कंपनी ने लागत कम करने से साफ मना कर दिया। जाहिर है कि कंपनी को पूरा सियासी संरक्षण प्राप्त था। अंत में शासन के अधिकारियों ने इज्जत बचाने के लिए और बवाल न हो, इसके लिए आईएसबीटी परिसर के लिए रिवर प्रोटेक्शन वर्क को हटा दिया। इस तरह से यह कार्य अब ७६ करोड़ ४७ लाख ९३ हजार ८४९ का ही रह गया। इस पर कंपनी ने अवशेष कार्य पर अधिकारियों को बड़ी राहत देने का ड्रामा करते हुए मात्र ०.६५ प्रतिशत की राहत देने पर अपनी सहमति दे दी, जबकि हकीकत यह है कि इस कार्य की मूल डीपीआर ६९ करोड़ रुपए थी, जो एनसीसी कंपनी ने बढ़ाकर ९० करोड़ रुपए कर ली थी। इस पर ०.६५ प्रतिशत का रिवेट देना आंखों में धूल झोंकने के अलावा और कुछ नहीं था। सवाल इस बात का भी है कि जिम्मेदार अधिकारियों ने खुली आंखों से यह जीवित मक्खी कैसे निगल ली!
टीएसी और ईएफसी अड़ी
हालांकि शासन के अधिकारियों ने टीएसी के शोध अधिकारी से भी इस निर्णय पर मुहर लगवानी चाही, किंतु वह अपना मत पहले ही दे चुके थे, इसलिए उन्होंने इस झमेले से किनारा करना ही उचित समझा और वह २३ मार्च २०१६ को तत्कालीन मुख्य प्रधान सचिव राकेश शर्मा की अध्यक्षता में बुलाई गई इस बैठक में ही नहीं आए। अब यह प्रस्ताव व्यय वित्त समिति के सम्मुख रखा जाना था, किंतु व्यय वित्त समिति के सम्मुख यह प्रकरण रखे जाने से पूर्व शासनादेशों के अनुसार आगणन का परीक्षण टीएसी वित्त से कराकर उस पर विभागीय समिति की भी बैठक कराई जानी अनिवार्य होती है, किंतु पत्रावली में आगणन ही उपलब्ध नहीं था। ऐसे में व्यय वित्त समिति (ईएफसी) में रखे जाने का मामला भी खटाई में पडऩे लगा।
पाठकों को एक बार फिर से याद कराना समीचीन होगा कि इस बीच १८ मार्च २०१६ से लेकर ११ मई २०१६ तक प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा था। ऐसे में इस दौरान आईएसबीटी निर्माण को लेकर कोई प्रगति नहीं हुई। हरीश रावत के दोबारा मुख्यमंत्री बनते ही सबसे पहला दबाव उन पर आईएसबीटी के लिए स्वीकृति देने के लिए ही बनाया गया। ११ मई को हरीश रावत पुन: सीएम बने और १२ मई को हल्द्वानी में अंतर्राज्यीय बस टर्मिनल के निर्माण के प्रकरण पर १५ मई २०१६ को संपन्न मंत्रिमंडल की बैठक में निर्णय लिया गया कि हल्द्वानी में प्रस्तावित अंतर्राज्यीय बस टर्मिनल (आईएसबीटी) का निर्माण किए जाने की स्वीकृति प्रदान की जाए, किंतु अभी भी एक पेंच अड़ा हुआ था कि यह निर्माण अगर ईपीसी मोड में होना है तो राज्य में ईपीसी मोड अभी लागू ही नहीं था।
इस बीच आईएसबीटी के निर्माण कार्य के लिए ६० करोड़ रुपए की स्वीकृति भी हो चुकी थी, किंतु सरकार को दबाव में देखकर कंपनी को लागत बढ़ाने को कहा गया। पहले कंपनी ने अपनी निविदा में १६ हजार रुपए प्रतिवर्ग मीटर की दर से काम करने का प्रस्ताव दिया था, वहीं वित्तीय निविदा के समय उसने यह दर बढ़ाकर २३,५०० रुपए प्रति वर्गमीटर कर दी। नियोजन विभाग ने २३ मई २०१६ को आयोजित बैठक में इस प्रस्ताव को अत्यधिक बताकर असहमति प्रकट करते हुए अस्वीकृत कर दिया।
३० मई २०१६ को मुख्य सचिव की अध्यक्षता में व्यय वित्त समिति की बैठक आयोजित की गई, किंतु व्यय वित्त समिति ने भी दो-तीन बार आगणन नई-नई दरों पर प्रस्तुत किए जाने के कारण अपनी आपत्ति व्यक्त की। साथ ही कार्य की प्रकृति, कौन-कौन से कार्य किए जाएंगे यह स्पष्ट नहीं होने और कुल कितने एरिया में कार्य किया जाएगा, यह भी स्पष्ट न होने के कारण प्रस्ताव को स्वीकृति नहीं दी।
मंत्रिमंडल ने उड़ा दी आपत्तियां
कोई रास्ता निकलते न देखकर दोबारा से इस मामले को मंत्रिमंडल में लाया गया। ६ जून २०१६ को मंत्रिमंडल की बैठक आयोजित की गई। इसमें व्यय वित्त समिति की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया गया। मंत्रिमंडल की बैठक में यह तर्क दिया गया कि वर्ष २०१७ में राष्ट्रीय खेल के आयोजन की तात्कालिकता तथा पुन: निविदा आमंत्रित किए जाने पर लगने वाले समय एवं लागत में बढोतरी के दृष्टिगत व्यय वित्त समिति की आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए पूर्व में आमंत्रित टेंडर दरों पर सफल निविदादाता से नेगोशिएशन के अनुसार प्राप्त दरों के आधार पर आईएसबीटी हल्द्वानी का निर्माण शीघ्र कराया जाए, जबकि हकीकत यह है कि राष्ट्रीय खेलों के लिए बस अड्डे को जल्दी बनाने का तर्क कंपनी और शासन के वही दस्तावेज नकार देते हैं, जिसमें कंपनी को कार्य पूरा करने के लिए १८ माह यानी अंतिम दिसंबर २०१७ की समय सीमा तय की गई है, तब तक राष्ट्रीय खेल खत्म भी हो चुके होंगे।
तत्कालीन वित्त सचिव दिलीप जावलकर को भी मंत्रिमंडल के निर्णय का समादर करते हुए धनराशि अवमुक्त करने के लिए सहमत होना पड़ा। इस तरह से मनचाही दरों पर एनसीसी कंपनी को ठेका हासिल हो गया। इसके बाद भी इस कार्य के लिए प्रशासकीय विभाग ने प्रशासनिक एवं वित्तीय स्वीकृति प्रदान नहीं की थी तथा उक्त कंपनी को अनिवार्य रूप से डीपीआर उपलब्ध करानी थी, जो कि उसने अभी तक जमा नहीं कराई है।
एडवांस के नाम पर लूटा
ईपीसी की गाइड लाइन के अंतर्गत कंपनी को सरकार ब्याज पर बैंक गारंटी के सापेक्ष मोबिलाइजेशन एडवांस के नाम पर अग्रिम पैसा दे सकती है। इसी को आधार बनाकर इस कंपनी को बिना काम के पैसा दिया जा रहा है, किंतु गाइड लाइन के अनुसार इस कंपनी को कुल लागत का १० प्रतिशत बैंक गारंटी देनी अनिवार्य है। इस कंपनी ने काफी ना-नुकुर के बाद ७ करोड़ ६० लाख की बैंक गारंटी तो दे दी, लेकिन बैंक गारंटी से अधिक एडवांस जारी कर उसे बिना काम के साढे सात करोड़ रुपए से अधिक दे दिया गया है। यही नहीं इस कंपनी को साढे चार करोड़ रुपए और दिए जाने की पूरी तैयारी है। यदि यह कंपनी काम करने से हाथ खड़े कर देती है तो इससे धन की वसूली किस प्रकार हो पाएगी, यह भी एक बड़ा सवाल है। इस कंपनी को अग्रिम धन स्वीकृति के लिए वित्त मंत्री और मुख्यमंत्री का भी अनुमोदन आवश्यक था, किंतु अफसरों ने बगैर मुख्यमंत्री के अनुमोदन के ही पैसा जारी कर दिया। जब विभाग के पास धन की व्यवस्था नहीं हुई तो यह धन राज्य आकस्मिकता निधि से जारी किया गया। ऐसे में एक और सवाल खड़ा होता है कि जिस क्षेत्र में यह बस अड्डा बनाया जा रहा है, वह वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश की विधानसभा क्षेत्र में भी नहीं आता। ऐसे में इंदिरा हृदयेश को इससे वोट के रूप में तो कोई जुड़ाव होने की संभावना मुश्किल लगती है। एक और संभावना यह है कि निविदा के समय एनसीसी कंपनी ने अपने अधीन तीन सब कांट्रेक्टर से कार्य कराए जाने का विवरण दिया है। ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि इंदिरा हृदयेश अपनी या अपनों से जुड़ी किसी कंपनी को सब कांट्रेक्टर के रूप में दर्शाकर एनसीसी के बैनर तले यह कार्य खुद करना चाह रही है।
शासन उठा रहा कंपनी के खर्चे
इस प्रोजेक्ट के लिए प्रोजेक्ट मैनेजमेंट कंसल्टेंट का चयन कराए जाने की भी बात सामने आई तो नि:शुल्क प्रिक्वालिफिकेशन टेंडर और डीपीआर बनाने की बात कहने वाली एजेंसी कोलाज डिजाइन को ही कंसल्टेंट बनाने की स्वीकृति के लिए प्रयास शुरू हो गए और इसके लिए ३३ लाख रुपए की धनराशि भी अवमुक्त कराए जाने के लिए शासन स्तर पर स्वीकृति फाइनल स्टेज पर है। हालांकि अभी तक वित्त विभाग इसी बात पर अड़ा है कि कंसल्टेंट की नियुक्ति के लिए धन की व्यवस्था डीपीआर में ही सम्मिलित होती है। ईपीसी गाइड लाइन के अनुसार इसका खर्च कंपनी को ही उठाना होता है। इसलिए अलग से कंसल्टेंट के लिए कोई पैसा स्वीकृत नहीं किया जाएगा। इसके लिए कोई रास्ता निकालने के लिए वित्त विभाग में पृथक-पृथक पत्रावलियां भी चलाई जा रही हैं, ताकि शासन में भ्रम की स्थिति रहे और परीक्षण ठीक से न हो पाए, किंतु मुख्य सचिव ने इस प्रकरण से संबंधित सभी पत्रावलियों को मूल पत्रावली में ही नत्थी करने के आदेश कर दिए हैं।
मुख्य सचिव के आदेश दरकिनार
ईपीसी की गाइड लाइन में यह स्पष्ट उल्लेख है कि यदि काम करने वाली कंपनी को धन की अग्रिम जरूरत पड़ती है तो उसे १० प्रतिशत ब्याज पर धन दिया जा सकता है, किंतु शासन में बैठे अफसरों ने दबाव में १० प्रतिशत ब्याज को पहले एक बार ५ प्रतिशत कर दिया था।
ईपीसी के नियमों के अनुसार कंपनी को अग्रिम के तौर पर जो भी भुगतान दिया जाएगा, वह उसकी बैंक गारंटी से अधिक नहीं हो सकता, किंतु एनसीसी कंपनी ने बहुत ना नुकुर के बाद पहले ५ प्रतिशत की दर से मात्र ३.८० करोड़ की सिक्योरिटी जमा की, किंतु शासन द्वारा बार-बार याद दिलाए जाने पर वह कुल लागत ७५.९८ करोड़ का १० प्रतिशत ७.५९८ करोड़ रुपए की बैंक गारंटी देने को राजी हुई, किंतु इस कंपनी को अब तक दो किस्तों में गारंटी से अधिक रुपए दिए जा चुके हैं और शासन पर पूरा दबाव है कि इसे १२ करोड़ रुपए दिए जाने हैं। शासन पर दबाव इतना अधिक था कि १२ करोड़ रुपए का भुगतान इस कंपनी को ३१ मार्च २०१६ तक ही कर दिया जाता, किंतु इस बीच राष्ट्रपति शासन लग गया और अफसर फिर से चैन की सांस लेते हुए नियम-कायदों की पटरी पर आ गए। तब यह भुगतान तो नहीं हो पाया, किंतु अब फिर से वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश द्वारा दबाव बनाया जा रहा है कि किसी भी मद से धन की व्यवस्था कर इस कंपनी को १२ करोड़ रुपए भुगतान अग्रिम कर दिया जाए। सवाल उठता है कि जब कंपनी ने मात्र ७.५९८ करोड़ रुपए की ही बैंक गारंटी जमा की है तो फिर इसे १२ करोड़ रुपए नियम-कायदों के विपरीत जाकर कैसे दिए जा सकते हैं!
एक खुलासा और हुआ है। कंपनी को किया जा रहा भुगतान इतनी चालाकी से किया जा रहा है कि इसमें अगर जांच हुई तो शायद ही सरकार या शासन में बैठे किसी अफसर के खिलाफ कार्यवाही हो पाएगी। पूरी गाज शासन या परिवहन विभाग के किसी अदने अफसर पर गिरना तय है। तथ्य यह है कि इस कंपनी की ओर से कहीं भी एडवांस भुगतान के लिए मांग नहीं की गई है, न ही ऐसा कोई पत्र शासन में एनसीसी कंपनी द्वारा भेजा गया है।
एनसीसी कंपनी ने अपनी निविदा में यह स्पष्ट लिखा है कि वह १० प्रतिशत गारंटी जमा करेगी और उसे १५ प्रतिशत तक एडवांस रकम दी जा सकेगी। कायदे से शासन को यहीं पर इस विसंगति को सही कर देना चाहिए था, किंतु सरकार ने अपनी सभी कमेटियों और वित्त की राय को दरकिनार कर कंपनी की बात ज्यों की त्यों स्वीकार कर ली।
एक तथ्य यह भी सामने आया है कि जानबूझकर कंपनी और सरकारी एजेंसी के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न करा दी जाए, ताकि काम में देरी होने का ठीकरा सरकार के सिर फोड़कर उल्टा हर्जे-खर्चे के रूप में परियोजना की कीमत का ५ प्रतिशत तक की वसूली और हो सके। ऐसी योजना भी बन रही है।
इस परियोजना में इतना झोल है कि मंत्रिमंडल द्वारा सभी तरह की आपत्तियां दरकिनार करने के निर्देश दिए जाने के बाद भी मुख्य सचिव ने ३० मई २०१६ को सभी जिम्मेदार अधिकारियों की एक बैठक कराई और साफ-साफ निर्णय लिया गया कि इस परियोजना के लिए पहले तो फंडिंग की व्यवस्था ही नहीं है। ऐसे में यह परियोजना विलंब होने के कारण विवाद का प्रकरण बन सकती है। दूसरा इस कंपनी ने पहले तो १६ हजार प्रतिवर्ग मीटर की दर से रेट दिए थे और फिर दोबारा २३,५०० वर्गमीटर के रेट किस आधार पर दिए, इसका कोई यथोचित आधार नहीं पाया गया।
मुख्य सचिव शत्रुघ्न सिंह ने आपत्ति लगाई थी कि पहली निविदा के बाद द्वितीय निविदा के बीच कंपनी ने कई परिवर्तन किए हैं। इसलिए कंपनी से डीपीआर लेने के बाद ही काम के सापेक्ष मिलान किया जाना जरूरी है। इसलिए इन दरों पर पुनर्विचार नहीं किया जा सकता और फिर से निविदा प्राप्त करनी ज्यादा बेहतर रहेगी। मुख्य सचिव ने इस मामले को दोबारा से मंत्रिमंडल में ले जाने की आवश्यकता जताई थी, किंतु मुख्य सचिव के इन आदेशों को भी रद्दी टोकरी में डाल दिया गया।
सभी ने डाले हथियार
अपर परिवहन आयुक्त सुनीता सिंह कई बार कंपनी को एडवांस किए गए भुगतान का उपयोगिता प्रमाण पत्र तथा उससे संबंधित श्रम विभाग का पंजीकरण, ईपीएफ प्रमाण पत्र, वैट, टैन, टिन, सर्विस टैक्स आदि उपलब्ध कराए जाने के लिए पत्र लिख चुकी हैं, किंतु उच्च स्तर पर दबाव को देखते हुए परिवहन विभाग भी इस प्रकरण को ज्यादा तूल देने की स्थिति में नहीं है। दूसरी ओर शासन ने भी आगे की कार्यवाहियों के लिए गेंद परिवहन कार्यालय के आयुक्त की तरफ खिसका दी है और २८ जुलाई २०१६ को साफ कह दिया कि उक्त प्रकरण पर शासन स्तर पर अब कोई कार्यवाही अपेक्षित नहीं है। इस प्रकरण से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि भविष्य में इस घोटाले की फाइल जरूर खुलेगी और जांच के बाद जिम्मेदार अफसरों की गर्दन नपनी तय है। वहीं शासन में परिवहन विभाग से संबंधित एक अधिकारी तो वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश के आदेशों के प्रति इतना नतमस्तक रहता है कि वह सरेआम कहता है कि उसने पहले भी मैडम का नमक खाया है, इसलिए इस फाइल को नहीं रोकता। सवाल यह है कि तब भले ही उसके पास इंदिरा हृदयेश का कोई विभाग रहा हो, किंतु वेतन तो उसे सरकार से ही मिलता था। ऐसे में उसका यह तर्क भी सवाल खड़े करता है।
शुरुआती समय में इस घोटाले को रोकने की पूरी कोशिश करने वाले एक अफसर किलसते हुए यहां तक कह देते हैं कि विपक्षी पार्टी भाजपा के बस का कुछ नहीं है। ऐसे तमाम घोटाले हो रहे हैं और भाजपा को नजर नहीं आते।
एनसीसी कंपनी पर ऐसा क्या शहद लगा है कि इसको बिना काम किए ही साढे सात करोड़ से अधिक की रकम दे दी गई है और उसने अब तक यह तक नहीं बताया कि आखिर वह क्या काम करेगा। उसकी कितनी लागत आएगी और यह काम वह कैसे करेगा!
वित्त मंत्री इंदिरा हृदयेश के लिए सचिवालय में फाइलों का मूवमेंट और काम कराने के लिए कुछ लोग शासन के अधिकारियों पर अनुचित दबाव बनाए रखते हैं। उनके दबाव में शासन में बैठे अफसर इस तरह के नियम विरुद्ध कार्य करने को विवश हैं।
एनसीसी कंपनी की इस नाफरमानी के बावजूद वित्त मंत्री के दबाव में शासन ने फिर से 2 सितंबर 2016 को इस कंपनी को अंतर्राज्यीय बस अड्डे के निर्माण के नाम पर 4 करोड़ 94 लाख रुपए और जारी कर दिए।
रामास्वामी ने अनुमति मांगते हुए एक मीटिंग के दौरान इंदिरा हृदयेश द्वारा दिए गए निर्देशों का हवाला दिया कि इस कंपनी को काम देने के लिए उन्होंने ही कहा था।
मुख्यमंत्री ने फाइल देखी तो पहले अनुमानित लागत 69 करोड़ के मुकाबले 88 करोड़ की अत्यधिक लागत को देखते हुए 19 अक्टूबर को दोबारा से टेंडर आमंत्रित करने के निर्देश दे दिए। इससे बना बनाया खेल बिगड़ते देखकर वित्त मंत्री इंदिरा हक्की-बक्की रह गई। उन्होंने मुख्यमंत्री पर फिर से दबाव बनाया।
पहले कंपनी ने अपनी निविदा में 16 हजार रुपए प्रतिवर्ग मीटर की दर से काम करने का प्रस्ताव दिया था, वहीं वित्तीय निविदा के समय उसने यह दर बढ़ाकर 23,500 रुपए प्रति वर्गमीटर कर दी। नियोजन विभाग ने इस प्रस्ताव को अत्यधिक बताकर अस्वीकृत कर दिया।
कोई रास्ता निकलते न देखकर दोबारा से इस मामले को मंत्रिमंडल में लाया गया। 6 जून 2016 को मंत्रिमंडल की बैठक आयोजित की गई। इसमें व्यय वित्त समिति की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया गया।
कंपनी को अब तक दो किस्तों में गारंटी से अधिक रुपए दिए जा चुके हैं और शासन पर पूरा दबाव है कि इसे 12 करोड़ रुपए दिए जाने हैं।
”परिवहन विभाग ने सभी कार्यवाहियां माननीय मंत्रिमंडल के निर्देशों के अनुपालन में की हैं। कंपनी को बैंक गारंटी से अधिक भुगतान किए जाने का मामला मेरे संज्ञान में नहीं है।
– सी.एस. नपलच्याल
परिवहन आयुक्त
कंपनी पर अनुकम्पा
उत्तराखंड अधिप्राप्ति नियमावली २००८ के नियम ४८ में अग्रिम भुगतान के संबंध में यह व्यवस्था दी गई है कि साधारणतया ठेकेदारों को अग्रिम दिया जाना वर्जित है, किंतु मोबिलाइजेशन एडवांस अथवा मशीन या निर्माण कार्य में तेजी लाने के लिए सिर्फ इसी शर्त पर दिया जाएगा कि अग्रिम की वसूली या समायोजन सुनिश्चित करने के लिए इतनी ही बैंक गारंटी अथवा अन्य धरोहर राशि ली जाए। यदि बैंक गारंटी ली जाए तो उसे स्वीकार करने से पूर्व बैंक गारंटी की अधिक प्रमाणिकता एवं वैधता की अवधि जांच ली जाए तथा यह धनराशि भी लागत का १० प्रतिशत ही दी जा सकती है और वह भी उसे १० प्रतिशत साधारण ब्याज की दर पर ही दी जा सकती है, जो कि उसे काम समाप्त होने से पहले ब्याज सहित लौटानी होगी, किंतु शासन इस कंपनी को मोबिलाइजेशन एडवांस बैंक गारंटी से अधिक धन अवमुक्त करचुका है और अभी पांच करोड़ और जारी करने की तैयारी में है। कंसल्टेंसी के नाम पर ३३ लाख रुपए जारी करने की प्रक्रिया अंतिम चरण में है, जबकि कंसल्टेंसी का खर्च कंपनी ने खुद ही उठाना था।