एक अदने से अफसर मृत्युंजय कुमार मिश्रा को कुलसचिव पद से हटाना राजभवन की प्रतिष्ठा का विषय बन गया। क्या मिश्रा इतना भ्रष्ट है या फिर इसकी आड़ में राजभवन सरकार को निशाने पर लेना चाहता है। प्रस्तुत है पूरे प्रकरण की पड़ताल करती आवरण कथा
पर्वतजन ब्यूरो
‘जाको राखे लाट-साब, हटा सके न कोय’
शासन में बैठे आला अधिकारी यदि किसी को संरक्षण देने पर आ जाएं तो फिर राज्यपाल और मुख्यमंत्री जैसे दिग्गजों के आदेश भी किस तरह से डस्टबिन में चले जाते हैं, उत्तराखंड का मृत्युंजय मिश्रा वाला प्रकरण इसका सबसे ताजा उदाहरण है।
उत्तराखंड के राजभवन की ओर से पिछले एक साल में मुख्यमंत्री को लगभग एक दर्जन पत्र डा. मृत्युंजय कुमार मिश्रा (एमके मिश्रा) को कुलसचिव पद से हटाने के लिए लिखे गए। ताजा स्थिति यह है कि जिस प्रतिनियुक्ति से हटाने को राजभवन ने सीधे मुख्यमंत्री कार्यालय को निशाने पर ले लिया, उसी पोस्ट पर नौकरशाहों ने मिश्रा को परमानेंट तैनात कर राजभवन को उसकी हद और हैसियत दोनों बता दी है। यह लड़ाई अब कूटनीति, पैंतरेबाजी और मीडिया के सतही स्तर पर आकर हर जुबान पर तैन रही है।
जाहिर है कि राज्यपाल के सभी पत्रों के उत्तर मुख्यमंत्री द्वारा भी राजभवन को दिए गए हैं, किंतु राजभवन ने अपने किसी भी पत्र में सरकार से आए पत्रों का कोई भी हवाला अपने किसी पत्र में नहीं दिया है। यह प्रकरण अब राजभवन और सरकार के बीच प्रतिष्ठा का विषय बन गया है।
सचिवालय के गलियारों से लेकर विधानसभा की वीथिकाओं में आधे बांह की उजली शर्ट, गहरे आसमानी नीले रंग की स्लिम फिट जींस और चमचमाते जूतों वाले परिधान में मॉर्निंग वाक सी तेजी के साथ अपने गंतव्य की ओर बढ़ते मृत्युंजय मिश्रा को सचिवालय के अधिकांश आगंतुक पहचानते हैं। बगल में फाइल दबाए, चेहरे पर स्मित हास्य बिखेरे सबको सलाम बजाते और हाथ मिलाते मिश्रा को देखकर उनके प्रकरण से वाकिफ लोगों को सहसा ही एक खयाल आता है कि आखिर इस शख्स की ऐसी कौन सी पहुंच है कि विरोध के इतने बवंडर के बावजूद इसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सका।
उत्तराखंड में लेक्चरर के पद पर अपनी तैनाती के बाद से ही वित्तीय अनियमितताओं और घपले-घोटालों के लिए चर्चित हो जाने वाला यह शख्स लगातार सुर्खियों में रहा है। सबसे पहले चकराता और त्यूनी महाविद्यालयों में प्राचार्य के दोहरे प्रभारों के बाद चर्चा में आने वाले मृत्युंजय मिश्रा सबसे पहले एक ही शैक्षिक सत्र में दो-दो डिग्रियां हासिल करने को लेकर सवालों के घेरे में आए थे। उसके बाद उत्तराखंड तकनीकी विश्वविद्यालय में २००७ में कुलसचिव के तौर पर नियम विरुद्ध नियुक्ति के बाद विश्वविद्यालय में मिश्रा पर खरीद से लेकर नियुक्तियों तक में जमकर गड़बडिय़ां करने के आरोप लगे।
इन पर कैग ने भी सवाल खड़े किए तो पीडि़त लोगों ने कई मुकदमे दर्ज किए, किंतु राजनीतिक तथा नौकरशाही के संरक्षण के कारण मृत्युंजय मिश्रा जितने विवादित होते गए, उनकी पहुंच तथा उनका अनुभव बढ़ता चला गया। चकराता विश्वविद्यालय में प्राचार्य के रूप में तैनाती से लेकर आयुर्वेद विश्वविद्यालय में समायोजन तक के दरम्यान मिश्रा के खिलाफ राज्यपाल से लेकर मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री एक सुर में खड़े हो गए, किंतु शासन में तैनात अपर मुख्य सचिव एस. रामास्वामी और प्रमुख सचिव ओमप्रकाश के संरक्षण के चलते डा. मृत्युंजय कुमार मिश्रा के खिलाफ कोई भी कार्यवाही अमल में नहीं लाई जा सकी।
सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि लगभग दो माह तक राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल सर्वेसर्वा थे। उस दौरान वह चाहते तो एमके मिश्रा के खिलाफ कोई भी कार्यवाही करने को पूरी तरह स्वतंत्र थे, लेकिन इस दौरान राजभवन से कभी कोई कार्यवाही नहीं की गई तो फिर उससे पहले और उसके बाद राजभवन द्वारा इस विषय को प्रतिष्ठा का विषय बनाना कहीं न कहीं इस बात की ओर संकेत करता है कि मिश्रा प्रकरण को लेकर राजभवन सरकार को निशाने पर लेना चाहता है। इसके पीछे केंद्र सरकार का भी राज्य सरकार की छवि खराब करने का दबाव हो सकता है।
राज्यपाल विश्वविद्यालय के चांसलर होने के नाते विवि के मामलों में हस्तक्षेप तो कर सकते हैं, किंतु गवर्नर होने के नाते यह दखल उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। साथ ही रजिस्ट्रार की नियुक्ति तथा इससे संबंधित कोई भी निर्णय राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। इसीलिए राज्यपाल बार-बार मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कार्यवाही करने के लिए कह रहे हैं। यदि वह इस मामले में खुद कार्यवाही करते हैं तो इसे कोर्ट में चैलेंज किया जा सकता है।
एक तथ्य यह भी है कि आयुर्वेद विवि में इससे पहले भी जेपी जोशी तथा बीपी मैठाणी कुलसचिव के पद पर तैनात रहे हैं। ये भी कुलसचिव पद के लिए आवश्यक बताई जा रही योग्यताएं नहीं रखते। इसके अलावा उत्तराखंड के तमाम विश्वविद्यालयों में कुलसचिव के पद पर तैनात कई अन्य व्यक्ति भी वांछित योग्यता नहीं रखते तो सिर्फ मिश्रा के प्रकरण को इतना तूल देना कई अन्य सवाल खड़े करता है। सबसे अहम सवाल यह भी है कि इसी विवि में कुलपति के रूप में तैनात प्रो. सतेंद्र कुमार मिश्रा भी इस पद के लिए योग्य नहीं हैं तो राज्यपाल ने खुद इस नियम विरुद्ध नियुक्ति को कैसे पचा लिया और जब वह खुद ही अयोग्य कुलपति की नियुक्ति कर सकते हैं तो राज्य सरकार पर कुलसचिव की योग्यता को लेकर कैसे सवाल उठा सकते हैं।
वर्तमान में राजभवन, सरकार और शासन के मध्य फुटबाल बन चुके एमके मिश्रा ने खुद ही केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर जाने के लिए आवेदन कर दिया है तथा शासन में भी अपनी एनओसी के लिए अनुरोध किया है। वर्तमान में आयुर्वेद विवि के अंतर्गत मात्र तीन प्रमुख निजी आयुर्वेदिक शिक्षण संस्थान आते हैं। एक स्वामी रामदेव द्वारा संचालित पतंजलि विवि है, दूसरा भाजपा के दिग्गज नेता डा. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा संचालित है और तीसरा कांबोज बंधुओं द्वारा संचालित उत्तरांचल आयुर्वेदिक कॉलेज है।
ईमानदार सीएम की खोज है मिश्रा
लखनऊ के भाजपा नेता कलराज मिश्र से नजदीकी के चलते मृत्युंजय मिश्रा को भुवनचंद्र खंडूड़ी ने दबाव में उत्तराखंड तकनीकी विश्वविद्यालय का कुलसचिव नियुक्त किया था।
मृत्युंजय मिश्रा शायद मास्टरी की ही नौकरी बजा रहा होता, यदि तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूड़ी की नजर वर्ष २००७ में इस नायाब नगीने पर न पड़ती। तब उत्तराखंड तकनीकी विश्वविद्यालय बन ही रहा था।
सूत्र बताते हैं कि लखनऊ के भाजपा नेता कलराज मिश्र से नजदीकी के चलते मृत्युंजय मिश्रा को भुवनचंद्र खंडूड़ी ने दबाव में उत्तराखंड तकनीकी विश्वविद्यालय का कुलसचिव नियुक्त किया था। इस दौरान विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो. डीएस चौहान ने इस नियम विरुद्ध नियुक्ति का भारी विरोध किया था, किंतु उनकी तब एक नहीं सुनी गई थी। उस दौरान तत्कालीन प्रमुख सचिव ने मिश्रा की नियुक्ति को त्रुटिपूर्ण बताने वाली फाइल अंतिम निर्णय के लिए मुख्यमंत्री को भेजी थी, लेकिन खुद को भ्रष्टाचार के खिलाफ दर्शाने का कोई मौका न गंवाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूड़ी ने आंख मूंदकर उनकी नियुक्ति कर दी थी। तैनाती के बाद मिश्रा पर विश्वविद्यालय में करोड़ों रुपए की खरीद से लेकर तमाम घोटालों को लेकर कई आरोप लगे।
मिश्रा की नियुक्ति का विवाद विधानसभा में भी उठा था। तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत ने इस नियुक्ति और विवि के क्रियाकलापों की जांच का आश्वासन दिया था, किंतु उस पर कुछ नहीं हुआ। रजिस्ट्रार बनने से पूर्व मिश्रा राजनीति विज्ञान के प्रवक्ता थे और चकराता तथा त्यूनी के महाविद्यालयों में प्राचार्य के पद पर तैनात थे।
भाजपा के युवा नेता रविंद्र जुगरान ने मृत्युंजय कुमार मिश्रा के शैक्षिक प्रमाण पत्रों को संदेहास्पद बताते हुए जांच की मांग भी की थी, किंतु इस जांच का भी कुछ नहीं हुआ।
इस दौरान तकनीकी विश्वविद्यालय को राज्य सरकार के विभिन्न विभागों व निगमों के लिए लोक सेवा आयोग की परिधि के बाहर के पदों के लिए एजेंसी भी बना दिया गया था।
मृत्युंजय कुमार ने परीक्षा नियंत्रक के रूप में तकनीकी विश्वविद्यालय की जो परीक्षाएं आयोजित कराई, उस सत्र में सारे प्रश्नपत्र लीक हो गए। इससे विवि की जमकर फजीहत हुई और दोबारा परीक्षा आयोजित करानी पड़ी।
तत्कालीन कुलपति प्रो. चौहान ने इस दौरान सवाल खड़े किए थे कि कुलसचिव के रूप में तकनीकी पृष्ठभूमि का वरिष्ठ प्रोफेसर या अधिकारी ही चाहिए, जो अनुभव रखने के साथ ही वित्तीय नियम भी जाने, किंतु इस विवादित नियुक्ति पर तत्कालीन मुख्यमंत्री की चुप्पी भी कई सवाल खड़े करती है।
वर्ष अक्टूबर २००७ से लेकर जनवरी २०१० तक तकनीकी विश्वविद्यालय में कुलसचिव के पद पर कार्यकाल के दौरान उन पर कई आरोप लगे। राज्य संपत्ति विभाग में २४ वाहन चालकों की भर्ती से संबंधित परीक्षा वर्ष २००८ में आयोजित कराई गई थी। इस भर्ती परीक्षा की प्रक्रिया व परिणाम के विरुद्ध भी शासन में कई शिकायती पत्र आए। इसमें मृत्युंजय कुमार मिश्रा द्वारा कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया गया।
वर्ष २००९ में उत्तराखंड तकनीकी विवि में समूह ग के पदों की भर्ती को लेकर भी तमाम अनियमितता के आरोप लगाए गए थे।
इस पर कांग्रेस के तत्कालीन विधायक जोत सिंह गुनसोला तथा दिनेश अग्रवाल ने विधानसभा में भी कई प्रश्न उठाए, किंतु तत्कालीन भाजपा सरकार द्वारा उक्त प्रकरण में आश्वासन दिए जाने के बावजूद इन पर कोई जांच अथवा कार्यवाही नहीं की गई।
वर्ष २००९ में ही उत्तराखंड जल विद्युत निगम के सहायक अभियंता व अवर अभियंता के पदों पर भर्ती परीक्षा भी मृत्युंजय कुमार मिश्रा द्वारा आयोजित की गई थी। इनमें भारी अनियमितताओं के आरोप लगे। परीक्षा में पारदर्शिता न रखने के आरोपों की पुष्टि के बाद उक्त परीक्षा को निरस्त कर दिया गया था।
इस कार्यकाल के दौरान उन पर ९० लाख रुपए की वित्तीय अनियमितता करने का भी आरोप लगा। जिस पर अपर सचिव एमसी जोशी को जांच अधिकारी नियुक्त किया गया था।
२०१० में उन पर सरस्वती प्रेस देहरादून द्वारा उत्तर पुस्तिकाओं की आपूर्ति के क्रम में ५० लाख रुपए की धोखाधड़ी किए जाने के आरोप में एफआईआर रायपुर थाने में दर्ज की कराई गई थी। हालांकि इस पर जांच अधिकारी ने कोई पुख्ता सबूत न होने पर मामले में फाइनल रिपोर्ट लगा दी थी।
कैग ने भी उठाए थे सवाल
कैग ने विभिन्न प्रेसों से बिना निविदा के काम कराने पर अनियमित भुगतान के लिए भी मृत्युंजय मिश्रा को दोषी ठहराया था।
एमके मिश्रा के कार्यकाल में ही कैग ने तकनीकी विश्वविद्यालय में तैनात कर्मचारियों को कई अवसरों पर ५ हजार रुपए मानदेय के रूप में भुगतान करने को लेकर आपत्ति जताई थी और नियम विरुद्ध १५ लाख रुपए से अधिक के इस भुगतान को नियमों और शासनादेशों का स्पष्ट उल्लंघन बताया था। इसके अलावा कैग ने विभिन्न प्रेसों से बिना निविदा के काम कराने पर अनियमित भुगतान के लिए भी मृत्युंजय मिश्रा को दोषी ठहराया था।
इसके अलावा मूल्यांकन कार्यों के पारिश्रमिक में भी अधिक भुगतान करने पर भी कैग ने सवाल खड़े किए थे। कैग की ये सभी रिपोर्ट विधानसभा पटल पर रखी गई थी। तकनीकी विश्वविद्यालय की इन अनियमितताओं पर विपक्ष ने काफी हंगामा भी किया, किंतु आश्वासन के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं हुई।
रामास्वामी का संरक्षण
रामास्वामी मृत्युंजय के पक्ष में थे, इसलिए विवादों के बावजूद मिश्रा डटे रहे।
आयुर्वेदिक विवि के रजिस्ट्रार के पद पर नियुक्ति भी प्रमुख सचिव स्वास्थ्य एस. रामास्वामी ने ही कराई। उनकी नियुक्ति पर स्वास्थ्य व आयुष मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी को सफाई देनी पड़ी कि इस मामले में उन्हें और मुख्यमंत्री को पूरी जानकारी नहीं दी गई। आयुर्वेदिक विवि एक्ट का उल्लंघन करके एस. रामास्वामी ने इस पद पर उच्च शिक्षा से प्रतिनियुक्ति पर एसोसिएट प्रोफेसर मृत्युंंजय कुमार मिश्रा की नियुक्ति की थी। मुख्यमंत्री ने भी रामास्वामी को बुलाकर उनका पूरा रिकार्ड खंगालने और पत्रावलियों के जांच करने के निर्देश दिए थे, किंतु रामास्वामी मृत्युंजय के पक्ष में थे, इसलिए विवादों के बावजूद मिश्रा डटे रहे।
अपर मुख्य सचिव एस. रामास्वामी पर आरोप है कि उन्होंने मिश्रा की इस मामले में पूरी मदद की। इसके पीछे यह कारण बताया जा रहा है कि पहले मृत्युंजय मिश्रा ने रामास्वामी के पुत्र को आयुर्वेद विश्वविद्यालय में तैनाती देकर दून अस्पताल में फिजियोथैरेपिस्ट के पद पर तैनात कर दिया। बवाल के बाद इन्हें हटा दिया गया। हालांकि जिम्मेदार अफसरों का कहना है कि वह केवल जॉब टे्रनिंग पर थे। उसके एवज में रामास्वामी ने मिश्रा को उच्च शिक्षा विभाग से आयुर्वेद विश्वविद्यालय में समायोजन के लिए एनओसी दे दी।
तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने नियमों की जानकारी न होने की बात कहते हुए यह नियुक्ति निरस्त करने के आदेश भी दिए, किंतु रामास्वामी के संरक्षण के चलते मिश्रा बच गए। बाद में खानापूर्ति के लिए शासन स्तर पर एक जांच बिठाकर मृत्युंजय मिश्रा को क्लीनचिट दे दी गई।
मृत्युंजय कुमार मिश्रा की उत्तराखंड आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय में कुलसचिव के पद पर नियुक्ति करने में उत्तराखंड आयुर्वेदिक विवि अधिनियम २००९ की पूर्णत: अनदेखी की गई। इस अधिनियम की धारा १६ के अंतर्गत कुलसचिव पद हेतु अर्हता निम्न है:-
”कुलसचिव विश्वविद्यालय का पूर्णकालिक अधिकारी होगा। राज्य सरकार अखिल भारतीय सेवाओं में/राज्य आयुर्वेदिक शिक्षा सेवाओं में वरिष्ठ वेतनमान/प्रांतीय सिविल सेवा (पीसीएस) के चयन श्रेणी के अधिकारी को विश्वविद्यालय का कुलसचिव नियुक्त कर सकती है।ÓÓ
आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय में मिश्रा द्वारा की गई भारी अनियमितताओं का संज्ञान लेते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कुलसचिव की नियुक्ति को निरस्त करते हुए आयुर्वेदिक विवि में कुलसचिव के लिए नया पैनल तैयार करने के निर्देश दिए थे। इनके कार्यकाल में विश्वविद्यालय ने लिपिक संवर्गीय भर्ती परीक्षा २०१४, यूएपीएमटी प्रवेश परीक्षा २०१४ तथा यूएपीजीएमईई प्रवेश परीक्षा २०१४ भी आयोजित कराई। इस दौरान भी इनका कार्यकाल अनियमितताओं के आरोपों से लिथड़ा रहा।
विजय बहुगुणा के निशाने पर आए मिश्रा को प्रमुख सचिव एस. रामास्वामी बचा ले गए तथा उनके खिलाफ समस्त जांचें भी खत्म करा दी गई।
राजभवन बनाम् सरकार
मिश्रा प्रकरण को लेकर राजभवन सरकार को निशाने पर लेना चाहता है। इसके पीछे केंद्र सरकार का भी राज्य सरकार को विचलित करने का दबाव हो सकता है।
आयुर्वेद विश्वविद्यालय के कुलसचिव मिश्रा की मनमानियों की शिकायतें राजभवन तक पहुंची तो राजभवन ने सरकार से जवाब तलब कर लिया। जिस मिश्रा को ८ नवंबर २०१३ को तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने नियुक्ति निरस्त कर तीन महीने में नया पैनल बनाने के आदेश दिए थे, उसे रामास्वामी ने दरकिनार तो किया ही, साथ ही कुलपति की एक टिप्पणी की आड़ लेते हुए अपने नोट में लिखा कि आयुर्वेद विवि के कुलपति ने मिश्रा की सत्यनिष्ठा को प्रमाणित किया है तथा उन्हें उत्कृष्ट श्रेणी का माना है। इसलिए कार्यकाल में मोहलत दे दी जाए। जून २०१५ से राज्यपाल इस नियुक्ति पर दसियों बार एतराज जता चुके हैं। ९ जून २०१५ को राज्यपाल ने शासन को पहली बार ऐतराज जताया था। इसका कोई जवाब नहीं मिला तो राज्यपाल के सचिव ने १६ जून २०१५ को फिर से शासन को याद दिलाया।
अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए यह लॉबी विवि के एक्ट में भी संशोधन करने में कामयाब रही। परिणाम यह हुआ कि २५ जून २०१५ को सीएम ने राज्यपाल को पत्र भेजकर मामले को समवर्ती सूची का बताते हुए नियुक्ति को सही ठहराया था, किंतु २२ अगस्त और फिर २९ अगस्त २०१५ को राज्यपाल के सचिव ने शासन को पत्र भेजकर कहा कि मिश्रा की नियुक्ति एक्ट में संशोधन से ७ माह पहले की है, इसलिए यह नियुक्ति अवैध है।
राजभवन और सरकार में मृत्युंजय कुमार को लेकर तलवार खिंच गई और जनवरी २०१६ में राज्यपाल के पदेन सचिव अरुण ढौंडियाल ने शासन को भेजी चि_ी में कहा कि यह छठा पत्र भेजा जा रहा है, फिर भी कार्यवाही क्यों नहीं हो रही है। विजय ढौंडियाल ने अपने पत्र में नई दिल्ली निवासी अरुण विजय सती के एक पत्र का भी हवाला दिया, जिसमें मिश्रा पर भ्रष्टाचार के कई गंभीर आरोप लगाए गए थे।
श्री ढौंडियाल ने इस मामले में उच्चस्तरीय जांच कराकर राजभवन को भी अवगत कराने को कहा और हिदायत दी कि अभी तक जितने भी पत्र राजभवन से भेजे गए हैं, उनकी प्रगति के बारे में राज्यपाल को स्थिति स्पष्ट कर दी जाए। राजभवन से दबाव बढऩे के बावजूद सरकार ने कुलसचिव को न केवल पद पर बहाल रखा, बल्कि १३ जून २०१६ को उन्हें आयुर्वेद विश्वविद्यालय के कुलसचिव पद पर स्थायी रूप से नियुक्त भी कर दिया।
राजभवन इस पर काफी खफा हो गया और राजभवन अब आयुर्वेद विश्वविद्यालय में अब तक हुई नियुक्तियों सहित निर्माण कार्यों और तमाम खरीद-फरोख्त की जांच कराने का भी मन बना चुका है। यदि ऐसा हुआ तो मिश्रा की मुश्किलें बढऩी तय हैं।
राजभवन का रुख देखकर चौंके स्वास्थ्य मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी भी मृत्युंजय मिश्रा को कुलसचिव बनाए रखने के पक्ष में नहीं हैं। बदलते समीकरणों के चलते मिश्रा को उत्कृष्ट श्रेणी का बताने वाले कुलपति डा. सतेंद्र प्रसाद मिश्रा से भी कुलसचिव के संबंध मधुर नहीं रहे। दोनों के बीच बढ़ती संवादहीनता भी मिश्रा की मुश्किलें बढ़ा रही हैं।
भर्तियों पर भड़का राजभवन
राजभवन के तल्ख तेवरों को देखते हुए जैसे ही मुख्यमंत्री कार्यालय ने ४ जुलाई को मिश्रा को हटाकर जांच कराने के निर्देश दिए, वैसे ही ७ जुलाई को मिश्रा ने विश्वद्यालय में भर्तियों के लिए प्रक्रिया शुरू कर दी। रिक्त पदों पर चयन के लिए विज्ञापन प्रकाशित होते ही कई शिकायतें शासन और राजभवन तक पहुंची तथा इसमें चयनित होने वाले संभावित अभ्यर्थियों के नाम सहित कई शिकायतों को देखते हुए विश्वविद्यालय में खलबली मची हुई है। आशंका जताई जा रही है कि यह भर्तियां पहले से ही फिक्स थीं। राजभवन ने तत्काल मुख्य सचिव को पत्र लिखकर इस चयन प्रक्रिया पर रोक लगवा दी। राज्यपाल ने यह जवाब भी मांगा कि कुलसचिव को हटाए जाने के बाद यह ‘वाक इन इंटरव्यूÓ के माध्यम से हो रही शिक्षकों की भर्ती के मानक क्या थे, किंतु विश्वविद्यालय ने कुलाधिपति को इसका जवाब तक देना उचित नहीं समझा। राजभवन ने आपत्ति जाहिर की कि जब चयन के लिए समिति के गठन का अनुमोदन ही नहीं लिया गया तो यह नियुक्ति कैसे हो सकती है? इसके अलावा राजभवन ने सवाल उठाया कि वाक इन इंटरव्यू की व्यवस्था विश्वविद्यालय अधिनियम व परिनियम में ही नहीं है तो नियुक्ति हो ही नहीं सकती।
राजभवन ने मुख्य सचिव को पत्र लिखकर यह भी जानना चाहा कि मिश्रा के विरुद्ध प्रस्तावित जांच किसके द्वारा व किस विषय में की जा रही है। जाहिर है कि शासन ने अपर सचिव आयुष जीबी औली को मिश्रा के खिलाफ जांच करने के आदेश दिए थे, लेकिन इसमें जांच के बिंदु स्पष्ट नहीं किए गए थे। इस कारण जांच चंद शिकायतों के इर्द-गिर्द ही सिमट गई थी और जांच के नाम पर कुछ एफआईआर और पहले से ही खत्म हो चुके मामलों को संतुलित करते हुए मिश्रा को क्लीन चिट दे दी गई। हालांकि जीबी औली कहते हैं कि उन्होंने कोई जांच नहीं की। वह केवल शिकायतों पर आख्या देने तक सीमित मामला था। इसलिए जांच और क्लीन चिट जैसी कोई बात ही नहीं है।
मिश्रा की नियुक्ति नियम विरुद्ध है या नहीं, इस पर कोई जांच नहीं की गई। संभवत: इस बिंदु पर जांच करने का कोई उच्चादेश भी प्राप्त नहीं था।
ओमप्रकाश का संरक्षण
ओमप्रकाश ने मिश्रा के खिलाफ कोई कार्यवाही करने से इंकार करते हुए स्वास्थ्य मंत्री को अपने स्तर से ही कार्यवाही करने के लिए लिख दिया।
विभाग की बदनामी को देखते हुए अबकी बार स्वास्थ्य मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी ने प्रमुख सचिव ओमप्रकाश को मिश्रा को हटाने और जांच करने के लिए पत्र लिखा तो प्रमुख सचिव ओमप्रकाश खुद ही अड़ गए। ओमप्रकाश ने मिश्रा के खिलाफ कोई कार्यवाही करने से इंकार करते हुए स्वास्थ्य मंत्री को अपने स्तर से ही कार्यवाही करने के लिए लिख दिया। जाहिर है कि मृत्युंजय कुमार ने ओमप्रकाश को भी उपकृत किया है। ओमप्रकाश को विश्वास में लेने के लिए मिश्रा ने आयुर्वेद विश्वविद्यालय में पहले उपनल के जरिए कर्मचारी को भर्ती किया और फिर ओमप्रकाश के दिल्ली स्थित आवास पर घरेलू काम करने के लिए भेज दिए। एक-डेढ़ महीने तक अपना शोषण कराने के बाद जब उपनल का यह कर्मचारी घरेलू काम करने से मना करने लगा तो उसे काम से निकाल दिया गया। उस दौरान उपनल कर्मचारियों ने इसका विरोध किया और धरना प्रदर्शन भी किया, किंतु ओमप्रकाश और मिश्रा के दबाव में उक्त कर्मचारी को सेवा में नहीं लिया गया।
वर्ष २०१३ में स्वास्थ्य मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी ने भी मृत्युंजय मिश्रा को कुलसचिव पद पर बनाए रखने की संस्तुति की थी। उस दौरान ग्राम्य विकास मंत्री प्रीतम सिंह ने भी मिश्रा को पद से न हटाए जाने को लेकर विजय बहुगुणा से सिफारिश की थी। सुरेंद्र सिंह नेगी ने उसी पत्र का हवाला देते हुए मिश्रा को मोहलत दिए जाने की बात कही थी। हालांकि तब विजय बहुगुणा ने कोई खास राहत न देते हुए सिर्फ तीन माह की मोहलत देकर नया पैनल कुलसचिव की नियुक्ति के लिए गठित करने के आदेश दिए थे। बाद में मिश्रा के बारे में जानकारी होने पर उन्होंने इस प्रकरण से अपना पल्ला झाड़ लिया।
शासन अब राजभवन और मुख्यमंत्री की ओर से निर्देश जारी होने के बाद फाइल-फाइल खेल कर इस सरकार का तीन-चार महीने का समय निकालना चाह रहा है। मृत्युंजय मिश्रा से शासन ने उनके मूल विभाग में भेजे जाने के बारे में पूछा है। दिलचस्प यह है कि जब शासन पहले ही मिश्रा को आयुर्वेद विवि में कुलसचिव के पद पर नियुक्त कर चुका है तो मूल विभाग में उनका पद तो समाप्त हो चुका है। ऐसे में मिश्रा से इस विषय में पूछा जाना केवल खानापूर्ति के तौर पर इस कार्रवाई का उद्देश्य आंखों में धूल झोंकने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।
स्वास्थ्य एवं आयुष शिक्षा प्रमुख सचिव ओम प्रकाश कहते हैं कि इस पत्र को भेजने के बारे में पत्रावलियोंं पर आयुष शिक्षा मंत्री का भी अनुमोदन लिया गया है। मिश्रा से पूछे जाने का एक अर्थ और है कि शासन इस मामले में बैकफुट पर है और मिश्रा को संरक्षण दे रहा है।
मामले से जुड़े शासन के एक अधिकारी कहते हैं कि मिश्रा के मामले में राजभवन को मिसगाइड किया गया है। मिश्रा के खिलाफ कोई दोष सिद्ध नहीं होता।
यह अधिकारी कहते हैं कि राज्यपाल के आदेश के अनुसार विवि में कुलसचिव के चयन के लिए कुलपति पैनल गठित कर सकता है। शासन ने कुलपति से पैनल मांगा था। इसके लिए मिश्रा ने आवेदन किया था।
पहले आयुर्वेदिक विवि एक्ट में यह व्यवस्था थी कि कुलसचिव पद के लिए पीसीएस अथवा आयुर्वेदिक शिक्षा सेवा के अफसर ही योग्य होंगे। बाद में एक्ट में यह संशोधन कर दिया गया कि कुलसचिव पद के लिए यूजीसी के मानक लागू होंगे। मृत्युंजय का चयन भी इन्हीं मानकों के अंतर्गत हुआ है।
जाहिर है कि आज तक मृत्युंजय कुमार के खिलाफ आरोपों की कोई जांच नहीं की गई है। तकनीकि विश्वविद्यालय में उनके कार्यकाल में हुई भर्तियों से लेकर एजेंसी के रूप में अन्य संस्थानों की कराई गई परीक्षाओं और खरीद-फरोख्त को लेकर जितनी भी शिकायतें की गई, उनकी कोई भी जांच कभी की ही नहीं गई। न ही आयुर्वेदिक विवि में उनके कार्यों की कोई जांच की गई। शासन में मिश्रा के संरक्षक बने प्रमुख सचिव ओमप्रकाश और अपर मुख्य सचिव एस रामास्वामी के संरक्षण के चलते राजभवन और मुख्यमंत्री कार्यालय भी बौना साबित होकर अपनी खासी फजीहत करा चुका है।
मुख्यमंत्री के सचिव शैलेष बगौली ने भी स्वास्थ्य एवं आयुष प्रमुख सचिव ओमप्रकाश को मिश्रा को आयुर्वेदिक विवि के कुलसचिव पद से हटाकर कहीं और तैनाती देने और तब इस पूरे प्रकरण की जांच के निर्देश दिए थे, लेकिन ओमप्रकाश ने इन आदेशों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया।
जाहिर है कि जब तक ओमप्रकाश और रामास्वामी से हटाकर आयुष व तकनीकि शिक्षा जैसे विभाग हटाकर किसी अन्य अफसर को नहीं सौंपे जाते, तब तक मिश्रा के खिलाफ जांच भी नामुमकिन है।
मृत्युंजय कुमार के खिलाफ तकनीकि विवि में कुलसचिव के पद पर तैनाती के दौरान वित्तीय अनियमितताओं के आरोपों की दिसंबर २०१२ में जांच के आदेश हुए थे। इसमें जांच अधिकारी वित्त सचिव डा. एमसी जोशी ने उन्हें क्लीन चिट दी है।
सचिव श्री जोशी ने अपनी जांच कहा है कि उस दौरान विवि के धन का आहरण वितरण तत्कालीन कुलपति की अनुमति और वित्त नियंत्रक की देखरेख में हुआ था। अत: मिश्रा के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता।
सचिव जोशी की यह रिपोर्ट मिश्रा के लिए संजीवनी साबित हो सकती है, किंतु उस दौरान कराई परीक्षाएं और भर्तियों के खिलाफ यदि स्वतंत्र जांच एजेंसी से जांच कराई गई तो मिश्रा की मुश्किलें बढऩी तय हैं, क्योंकि इनमें से कुछ परीक्षाएं व भर्तियां पेपर लीक होने से निरस्त हो गई थी तो कुछ में भारी धांधली के आरोप लगे थे।
एमके मिश्रा पर भले ही विवाद ने तूल पकड़ लिया हो, किंतु प्रदेश के अन्य विश्वविद्यालयों में जमे अयोग्य कुलपतियों और कुलसचिवों पर किसी की भी नजर नहीं है। इन विश्वविद्यालयों की बदहाली न तो राजभवन के लिए चिंता का विषय है और न ही इसकी चिंता किसी सरकार या शासन को है।
बहरहाल, मृत्युंजय मिश्रा अपने उच्च संपर्कों के बदौलत न सिर्फ कुलसचिव के पद पर बदस्तूर डटे हैं, बल्कि इसी खूबी के कारण नौकरशाह उनके माध्यम से विवि के तमाम अटके हुए कामों को भी हल कराते रहे हैं।
यदि अपने संपर्कों की बदौलत एमके मिश्रा केंद्र में नियुक्ति पाने में सफल रहते हैं तो न सिर्फ उत्तराखंड में उनके खिलाफ हो रही शिकायतों और जांच पर एक बार फिर से परदा पड़ जाएगा, बल्कि हरीश रावत सरकार को निशाना बनाने वाला एक और हथियार भी राजभवन के हाथ से फिसल जाएगा।
उत्तराखंड में लेक्चरर के पद पर अपनी तैनाती के बाद से ही वित्तीय अनियमितताओं और घपले-घोटालों के लिए चर्चित हो जाने वाला यह शख्स लगातार सुर्खियों में रहा है।
राजभवन, सरकार और शासन के मध्य फुटबाल बन चुके एमके मिश्रा ने खुद ही केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर जाने के लिए आवेदन कर दिया है तथा शासन में भी अपनी एनओसी के लिए अनुरोध किया है।
तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कुलसचिव की नियुक्ति को निरस्त करते हुए आयुर्वेदिक विवि में कुलसचिव के लिए नया पैनल तैयार करने के निर्देश दिए थे।
राजभवन से दबाव बढऩे के बावजूद सरकार ने कुलसचिव को न केवल पद पर बहाल रखा, बल्कि 13 जून 2016 को उन्हें आयुर्वेद विश्वविद्यालय के कुलसचिव पद पर स्थायी रूप से नियुक्त भी कर दिया।
यूटीयू में भर्ती घोटाला
यूटीयू ने जनवरी २००८ में शासनादेशों का मखौल उड़ाते हुए कई अयोग्य लोगों की भर्तियां की गई। असिस्टेंट अकाउंटेंट और स्टोर कीपर आदि पदों पर हुई इन भर्तियों में व्यापक धांधलियां की गई। दो अभ्यर्थियों के पद आपस में बदल दिए गए। जिस अभ्यर्थी ने स्टोरकीपर के लिए आवेदन किया था, उसे कनिष्ठ सहायक बना दिया तथा जिसने कनिष्ठ सहायक के लिए आवेदन किया था, उसे स्टोर कीपर बना दिया गया। यहां तक कि स्टेनोग्राफर भर्ती किए गए व्यक्ति को शॉर्टहैंड तक नहीं आती थी। यदि इस भर्ती परीक्षा की ठीक से जांच हो जाए तो मिश्रा का बच पाना मुश्किल है।
एमके मिश्रा पर आरोप
१. तकनीकि विश्वविद्यालय में तैनाती के दौरान कराई गई अन्य विभागों की परीक्षाओं में प्रश्नपत्र लीक होने और अन्य गड़बडिय़ों के आरोप।
२. सरस्वती प्रेस के मालिक आदेश गुप्ता ने मिश्रा पर आरोप लगाया कि उन्होंने विवि के लिए उत्तर पुस्तिकाएं मुद्रित कराकर सप्लाई की, किंतु भुगतान उन्हें करने के बजाय किसी दूसरी कंपनी को कर दिया गया।
3. तकनीकि विवि में हुई नियुक्तियों में भारी गड़बड़ी।
4. भुगतान और अन्य कार्यों को लेकर वित्तीय अनियमितताएं।
5. एक ही शैक्षिक सत्र में दो डिग्रियां हासिल करने का आरोप।
6. कुलसचिव पद पर तैनाती के दौरान इसके लिए आवश्यक योग्यता न रखना।
7. आयुर्वेद विवि में नियुक्तियों में गड़बडिय़ां।
”राज्यपाल महोदय के स्तर से कई पत्र लिखे जाने के बावजूद डा. मृत्युंजय मिश्रा के विरुद्ध कार्यवाही नहीं की गई एवं डा. मिश्रा का उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार के पद पर किया गया समायोजन भी नियम संगत नहीं है। इसके संबंध में मैंने प्रमुख सचिव आयुष को निर्देशित किया है कि प्रकरण का परीक्षण करा लें। यदि यह नियम संगत नहीं है तो तत्काल युक्तिसंगत कार्यवाही कर अवगत कराएं।
– सुरेंद्र सिंह नेगी
मंत्री, आयुष, आयुष शिक्षा, उत्तराखंड सरकार
तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कुलसचिव की नियुक्ति को निरस्त करते हुए आयुर्वेदिक विवि में कुलसचिव के लिए नया पैनल तैयार करने के निर्देश दिए थे।
राजभवन से दबाव बढऩे के बावजूद सरकार ने कुलसचिव को न केवल पद पर बहाल रखा, बल्कि 13 जून 2016 को उन्हें आयुर्वेद विश्वविद्यालय के कुलसचिव पद पर स्थायी रूप से नियुक्त भी कर दिया।
ओमप्रकाश को विश्वास में लेने के लिए मिश्रा ने आयुर्वेद विश्वविद्यालय में पहले उपनल के जरिए कर्मचारी को भर्ती किया और फिर ओमप्रकाश के दिल्ली स्थित आवास पर घरेलू काम करने के लिए भेज दिए।
एमके मिश्रा पर भले ही विवाद ने तूल पकड़ लिया हो, किंतु प्रदेश के अन्य विश्वविद्यालयों में जमे अयोग्य कुलपतियों और कुलसचिवों पर किसी की भी नजर नहीं है। इन विश्वविद्यालयों की बदहाली न तो राजभवन के लिए चिंता का विषय है और न ही इसकी चिंता किसी सरकार या शासन को है।