विनोद कोठियाल
पहाड़ों के भूगोल को यदि भली-भांति समझा जाए तो अधिकतर पानी गांवों के नीचे ही पाया जाता है। सभी जगह नहर बना कर इसे उपयोग में लाया जाना संभव नहीं है। इसी का एक उदाहरण है कोठार गांव। खेतों के खत्म होते ही पानी का स्रोत शुरू होता है, जिसे किसी यांत्रिक विधि के बिना गांव के उपयोग में लाया जाना संभव नहीं था, परंतु इस कार्य को संभव किया विश्व बैंक द्वारा संचालित जलागम परियोजना ने।
जलागम विभाग द्वारा सौर ऊर्जा से संचालित वाटर पम्प लगा कर ऐसा करने में सफल रहा। इस तरह का यह पहला प्रयोग है, जो सफल भी है। इस योजना से गांव के लोग काफी खुश नजर आ रहे हैं। गांव के लोगों का कहना था कि जब परियोजना शुरू हो रही थी तो उस समय हमारा सोचना था कि सभी पानी की योजनाओं के तरह यह भी कुछ समय बाद बेकार नजर आएगी, परंतु जब मई-जून के महीनो में आसपास के सभी इलाके बूंद-बूंद पानी को तरस रहे थे। उस समय कोठार गांव के लोग पीने के पानी के अलावा खेतों में सब्जी और फलों का उत्पादन कर रहे थे।
सस्ता-सुंदर टिकाऊ
नहर की तुलना में इस पर कम लागत और एक बार ही खर्चा होता है। किसी भी प्रकार की खराबी या गड़बड़ी होने पर पांच साल की पूरी जिम्मेदारी यह सिस्टम लगाने वाली कंपनी की है।
पहाड़ों सेपलायन होने का एक कारण पानी की कमी का होना भी है। खेतों को पानी न मिलने पर नकदी फसलें और अनाज उगाना संभव नहीं हो पा रहा था। सब कुछ बारिश पर निर्भर होने और वह भी समय पर न मिलने के कारण पलायन हो रहा है। इस परियोजना से उम्मीद की जा सकती है कि इसकी सफलता पर पहाड़ कृषि के क्षेत्र में क्रांति हो सकती है।
नहर से किफायती
योजना की कुल लागत लगभग ८ लाख रुपए है, जो कि इतनी दूरी तक गूल बनाने के खर्चे से काफी कम है। गूलों का रखरखाव न होने के कारण वह जल्दी ही टूट जाती हैं और स्रोतों से जितना पानी चलता है, उतना पानी खेतों तक नहीं पहुंच पाता, परंतु इस योजना से जितना पानी स्रोत से निकलता है, खेत को उतना ही पानी मिलता है। इसमें प्रयुक्त पाइपों में पानी कहीं भी रिसता नहीं है। अलग तरीके की रासायनिक संरचना के कारण इन पाइपों में चूना भी जमा नहीं होता है और टूटने पर एक विशेष कैमिकल से पाइप को जोड़ा जा सकता है।
परियोजना को बनाने वाली कंपनी जैन इंजीनियरिंग के उत्तराखंड हैड राजेश यादव का कहना है कि सौर ऊर्जा से संचालित यह योजना अन्य परियोजना जैसे गूल बनाना आदि से काफी सस्ती है और इसमें प्रयोग होने वाले पाइपों की लगभग ५० वर्षों तक की उम्र होती है, जबकि गूल बनाने में ५० वर्षों में इन्हें कई बार मरम्मत करना पड़ता है, जो कि लागत के हिसाब से काफी अधिक बैठता है।
नई क्रांति
इससे पहले इस परियोजना का राजस्थान और गुजरात में सफल प्रयोग किया जा चुका है। किसानों में इन प्रदेशों में इस प्रकार के पम्प सेट लगने से बिजली की बचत तो हुई ही, साथ ही पानी की कमी भी पूरी हुई। यदि सब योजना के अनुसार चला तो पहाड़ की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से सौर ऊर्जा से चलने वाली पम्प सेट योजना एक नई क्रांति ला सकती है।
जलागम के यूनिट हैड अनूप रौतेला का कहना है कि ग्राम्य परियोजना की बैठक में कोठार के ग्रामीणों द्वारा मांग की गई कि हमारे गांव के बजट को पानी पर ही खर्च किया जाए। हमने इस दिशा में काम किया और प्रयास सफल रहा। इस परियोजना में उप परियोजना निदेशक सीपी शर्मा का विशेष योगदान रहा।”