त्वचा हमारे शरीर का अत्यंत महत्वपूर्ण और संवेदनशील अंग है। गर्मी, सर्दी, धूप, हवा, रोगाणुओं आदि से शरीर की रक्षा करने में हमारी त्वचा प्रमुख भूमिका निभाती है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों के अनुसार शरीर की त्वचा में लगभग 3.5 करोड़ छिद्र होते हैं। आधुनिक मतानुसार यह संख्या लगभग 50 लाख है। ये छिद्र शरीर में उत्पन्न विभिन्न विजातीय द्रव्यों या विषैले पदार्थों को बाहर निकालने का मार्ग हैं। त्वचा की उचित देखरेख के अभाव में अनेक प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता हैं। अतः हमारे शरीर का आरोग्य और स्वास्थ्य हमारी त्वचा पर काफी निर्भर करता है।
प्राकृतिक आहार हमारे स्वास्थ्य का सही ध्यान रखने के साथ−साथ अस्वस्थ होने पर औषधि के रूप में भी कार्य करता है। त्वचा की सही देखरेख के लिए मालिश या अंग मर्दन भी शरीर के सौंदर्य व स्वास्थ्य के साथ−साथ अनेक रोगों से बचाव−उपचार के लिए आवश्यक है। निःसंदेह मालिश शरीर की नैसर्गिक आवश्यकताओं में से एक है। प्रकृति भी हमें प्रायः किसी न किसी अंग की मालिश या मर्दन के लिए प्रेरित करती रहती है। जैसे− जब कभी सिर में या शरीर के किसी अन्य भाग में चोट आदि के कारण दर्द होता है तो स्वतः हमारा हाथ उस स्थान पर पहुंचकर सहलाने या मलने लगता है। यह सचमुच प्राकृतिक प्राथमिक चिकित्सा (फर्स्ट एड) है। इस मर्दन से तात्कालिक रूप से थोड़ा आराम भी मिलता है। यह मालिश के प्रति आकर्षित कर लाभ उठाने और स्वस्थ रहने के लिए प्रकृति का संकेत ही है। स्त्री−पुरुष संबंधों में भी इस क्रिया का अपना एक विशेष महत्व है।
मालिश का प्रयोग हमारे यहां प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है। इसके चिकित्सकीय गुणों का ज्ञान भी दूर−दूर तक पहुंचा। रोम और यूनान की स्त्रियां शारीरिक सौंदर्य के लिए मालिश का सहारा लिया करती थीं। यह परम्परा अब भी कायम है। तुर्की, इटली, ईरान, अरब देशों आदि में मालिश के लिए ‘हम्माम’ की प्रथा प्रचलन में आज भी है। अंग−प्रत्यंग के मर्दन से स्वास्थ्य व सौंदर्य में वृद्धि की जाती है। अफ्रीका में वर−वधू की विवाह से एक माह पूर्व से प्रतिदिन मालिश की प्रथा थी। इस क्रिया से शारीरिक सौंदर्य व यौवन में वृद्धि होती है ऐसी मान्यता थी जो पूर्णतः सत्य है। हमारे यहां भी यह प्रथा काफी पुरानी है जो हल्दी लगाने के रूप में मानी जाती है। मेडागास्कर (अफ्रीका) में रोगियों के शरीर में रक्तवृद्धि के लिए मालिश की प्रथा रही है।
माना जाता है कि कैप्टन कुक ने पाश्चात्य देशों का मालिश से परिचय कराया था। संभवतः सन 1860 में डॉ. स्कॉट ने पेरिस में अपने मालिश संबंधी ओजस्वी भाषण से उपस्थित चिकित्सकों का ध्यान मालिश की ओर आकर्षित किया था। जर्मनी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक सीजी डोर के अनुसार हमारे शरीर की त्वचा एक आवरण या प्राकृतिक चादर के समान है जिसकी स्वच्छता और सुंदरता के लिए मालिश धोबी की भांति है जो बहुत महत्वपूर्ण है।
मालिश क्रिया के कई प्रकार हैं। दबाना, थपथपाना, सह सकने योग्य धूप में मालिश करना (विशेष परिस्थितियां छोड़कर), मालिश का आरंभ पैर से करना, मालिश या मर्दन नीचे से ऊपर की ओर (हृदय की ओर) करना, भोजन के तुरन्त बाद मालिश न करना, स्नान से 2 घंटे पहले मालिश करना, सरसों के शुद्ध तेल का प्रयोग करना, हथेलियों से सूखी मालिश करना, मुलायम तौलिए से मालिश करना, मालिश के बाद कम से कम 30 मिनट खुले बदन रहना, थोड़ा विश्राम करना आदि मालिश की क्रियाओं में शामिल हैं।
मालिश इस प्रकार की जाए कि उससे रक्त का प्रवाह हृदय की ओर ही हो जिससे अशुद्ध रक्त की हृदय के द्वारा शुद्धि का कार्य जारी रहे। मालिश धूप में किया जाना अधिक गुणकारी होता है पर धूप असहनीय न हो। धूप यदि थोड़ी तेज हो तो सिर ढक लेना चाहिए। जब धूप स्नान के लिए चिकित्सक द्वारा मना किया हो तो धूप में मालिश नहीं करनी चाहिए। मालिश स्नान और भोजन से डेढ़−दो घंटे पहले करनी चाहिए। मालिश के बाद गीले कपड़े या तौलिए से शरीर को पोंछा जा सकता है या स्नान कर लेना चाहिए। इससे नसों की सक्रियता व शक्ति बढ़ती है। मालिश केवल शरीर को साधारण ढंग से मलना मसलना नहीं है वरन् इस क्रिया में उपयुक्त क्रियाओं से गतियां उत्पन्न करनी चाहिएं।
हाथों को गोल−गोल घुमाकर पीठ, हाथ, पैर आदि की मालिश में दीर्घ मर्दन किया जाता है। स्नायुओं व जोड़ों पर पास−पास हाथ घुमाकर हस्व मर्दन किया जाता है। पेट पर मंडलाकार मर्दन, लेपन की भांति मस्तक और घुटनों पर वलयाकार, हाथ घुमाकर पिंडलियों पर ताडन मर्दन, मुक्का या खड़ी व सीधी हथेलियों के आघात से पृष्ठ भाग या नितम्बों जैसे मांसल भाग पर, जोड़ों के भीतरी भाग यानि संधि के अंदर के अवयवों को घुमाने से मर्दन किया जाता है। धीरे−धीरे ठोकना, सहलाना, दबाना, कूटना, रगड़ना, चिकोटी काटना, थपथपाना, गूंथना, बेलना, लुढ़वाना, कम्पन देना, चुटकी भरना, जोड़ मसलाना, मांसपेशियों को सूतना आदि मालिश के विविध रूपों की क्रियाएं हैं। यह माना जाता है कि मालिश से त्वचा का लाल या रक्त वर्ण हो जाना उस अंग के रक्त प्रवाह का सुचारू होने का प्रमाण है।
पैर से मालिश आरम्भ करन के लिए पहले उंगालियों की हल्की मालिश करते हुए आगे बढ़ना चाहिए। पूरे शरीर की विशेष मालिश में लगभग 45 मिनट का समय लगाया जा सकता है। प्रत्येक मर्दन के बाद आवश्यकतानुसार कोई कपड़ा ओढ़कर 15−20 मिनट का विश्राम अतिरिक्त लाभ देता है। प्रतिदिन के मर्दन से त्वचा कोमल, लचीली, कान्तिमय, सुंदर व स्वस्थ हो जाती है और भूख भी अच्छी लगती है। ग्रंथियों का उचित पोषण होता है। शरीर हलका हो जाता है।
शुष्क मालिश शरीर का साधारण मर्दन होता है। इसे शुष्क घर्षण स्नान कहा जाता है। त्वचा को स्वस्थ, सुंदर बनाए रखने के लिए यह क्रिया बहुत अच्छी है। इससे पूरे शरीर का सहज व्यायाम हो जाता है। त्वचा के लिए इससे बढ़िया कोई अन्य क्रिया नहीं होती। इससे रक्त शुद्ध और तीव्र प्रवाही होता है साथ ही विजातीय तत्वों से मुक्त होता है। कसरत के बाद प्रायः पहलवान सूखी मालिश करते हैं और उससे पूर्ण लाभ उठाते हैं। यह मालिश बिना किसी की सहायता के स्वयं की जा सकती है। तेल−उबटन की तर मालिश की अपेक्षा शुष्क मालिश बेहतर होती है। इससे त्वचा के रोम कूप खुल जाते हैं और पसीने द्वारा विषैले पदार्थ शरीर से बाहर निकल जाते हैं। रक्त प्रवाह त्वचा की ओर होने से त्वचा स्वाभाविक रूप से पुष्ट एवं स्वस्थ हो जाती है। शुष्क घर्षण के बाद स्वच्छ जल से स्नान करना गुणकारी होता है।
डॉक्टर हैरी बैंजामिन शुष्क घर्षण में सूखे और खुरदरे तौलिए या ब्रश के उपयोग की सलाह देते हैं। प्रातः की नर्म धूप में शुष्क घर्षण स्नान श्रेष्ठ होता है। इससे शरीर के पुष्ट होने के साथ−साथ विटामिन डी की भी प्राप्ति होती है।
तर मालिश या सरसों के तेल की मालिश का अपना विशेष महत्व है। शुद्ध सरसों का लगभग 50 मिलीलीटर तेल उपयोग करते हुए शरीर का तेल सुखाकर मालिश करना अत्यंत गुणकारी होता है। पहले पैरों में तेल मालिश करने के बाद सिर में मालिश करनी चाहिए फिर नाभि, हाथ पैर के नखों, दोनों कानों, नासिका और नेत्रों के पपोटों पर मालिश के समय अवश्य सरसों का तेल लगाना चाहिए। इससे आयु वृद्धि, अनिन्द्रा का नाश व अन्य विभिन्न रोगों से बचाव होता है। यौवन बना रहता है। सरसों के तेल के स्थान पर तिल, नारियल या जैतून का तेल भी उपयोग में लाया जा सकता है। तेल मालिश भी धूप में कराना अच्छा होता है।
तेल मालिश के बाद शरीर पर शेष रहे तेल या चिकनाई को मोटे तौलिए या कपड़े से रगड़कर साफ कर लेना चाहिए। अन्यथा तेल मिश्रित विजातीय द्रव्यों से रोम कूपों के बंद हो जाने से विजातीय द्रव्य विसर्जन की क्रिया में रुकावट आती है। इससे लाभ के स्थान पर हानि की संभावना अधिक रहती है। बाद में स्नान किया जाना चाहिए। इससे चिर यौवन प्राप्त होता है। थकावट दूर होती है। वायु विकार दूर होते हैं। नेत्र ज्योति में वृद्धि, बल वृद्धि, त्वचा की कान्ति में वृद्धि, अंग पुष्टि आदि के अलावा अनिद्रा दूर होती है। शास्त्रों में रविवार, पूर्णिमा व अमावस्या को तेल के उपयोग की मनाही की गयी है।
मालिश के रूप में उबटन का प्रयोग भी किया जाता है। उबटन में चिकनाई होने से इसे संयुक्त घर्षण और तेल स्नान भी कहा जा सकता है। पीली सरसों का उबटन श्रेष्ठ होता है। लाल चंदन, दोनों हल्दी और गाय के दूध से भी अच्छा उबटन बनता है। हल्दी व जौ का आटा 1/4 भाग व थोड़ा जल लेकर उसमें संतरे के सूखे छिलकों का बारीक छना हुआ पाउडर मिलाकर भी गुणकारी उबटन बनाया जाता है। सामान्यतः सरसों का तेल, बेसन व हल्दी को मिलाकर बनाया गया उबटन भी गुणकारी होता है। हमारे पूर्वजों ने विवाह पद्धति में यही ‘हल्दी उबटन’ शामिल किया था। देश−विदेश में आज विभिन्न प्रकार के उबटन और मालिश प्रचलन में हैं। उबटन के बाद भी त्वचा को कपड़े या तौलिये से रगड़कर साफ करना चाहिए।
मालिश में दूध का प्रयोग भी गुणकारी माना जाता है। दूध से पूरे शरीर की मालिश खूब रगड़कर इस प्रकार की जाती है कि मैल की परतें जमीन पर गिरने लगती हैं। दूध के प्रयोग से त्वचा का रंग काफी निखर आता है और मुंहासे, सेहुआं, झार्इं आदि जैसे चर्म रोगों से भी मुक्ति मिलती है। दुग्ध स्नान के बाद जल स्नान व शरीर को भली भांति पोंछकर चिकनाई मुक्त करना भी आवश्यक है इसके लिए ताजे व कच्चे दूध का प्रयोग करना चाहिए। बालों वाले शारीरिक भागों के लिए बेसन का घोल श्रेष्ठ है।
मालिश छोटे बच्चों, निर्बलों, वृद्धों आदि के लिए कसरत का लाभ देती है। छोटे बच्चे सक्रिय रहकर कसरत की आवश्यकता की काफी पूर्ति कर लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी नवजात व छोटे बच्चों की दिन में 2−3 बार भली भांति मालिश की जाती है। प्रायरू मालिश के बाद बच्चे के शरीर को पोंछा नहीं जाता अतरू अपेक्षित लाभ नहीं होता। दिन में कम से कम 2 बार मालिश के बाद सूखे कपड़े से पोंछ कर कुछ समय बाद गर्मी में साधारण जल से व ठंड में गुनगने जल से स्नान कराना चाहिए। बहुत कमजोर बच्चों के लिए गर्मी में भी गुनगने जल का प्रयोग किया जा सकता है। पर आंखों व सिर को बचाना चाहिए। नियमित मालिश से बच्चे का शारीरिक निकास तीव्र होता है और वह निरोग−स्वस्थ होता है। एक साल के बच्चे के लिए दिन में एक बार हल्की मालिश भी पर्याप्त है।
ज्वर, अजीर्ण, दस्त, उल्टी, एनिमा लेने आदि स्थितयिों में मालिश नहीं करनी चाहिए। बड़ी बीमारी से तुरन्त उठने पर कमजोरी की स्थिति में भी मालिश से बचना चाहिए। कुछ समय बाद जब शरीर में बाल आ जाएं तभी मालिश करनी चाहिए। क्योंकि दण्ड बैठक, मुगदर−डम्बल से व्यायाम आदि की भांति यह भी एक व्यायाम है। मालिश के साथ−साथ सामान्य स्वास्थ्य नियमों की जानकारी लेकर उन्हें अमल में लाना चाहिए। सात्विक व उचित खान−पान का भी ध्यान रखना चाहिए।