नीरज उत्तराखंडी
इन विरान और खण्डहर पड़े भवनों में कभी नौनिहालों की किलकारियां गूंजा करती थी। प्रातः गाँव की अलार्म घड़ी मुर्गे की बांग के साथ ग्रामीणों की दिनचर्या शुरू होती और रात नौबत बजने के बाद समाप्त हुआ करती थी। पनघट पर पनिहारनियों का जमघट, बन्टे और पानी के बर्तनों की टंकार से उत्पन्न होने वाली मधुर ध्वनि के बीच, गाँव – घर के राजी -खुशी की खबर का आदान-प्रदान। सायं को हुक्के की हुडक के साथ गाँव की चौपाल में खेती- किसानी और आस- विकास की बातें करते और पारंपरिक अनुभव बांटते बड़े बुजुर्ग।
घर के आंगन में गूंजती बच्चों की किलकारियां। गोशाला से गायों के रंभाने की आवाज़,धन-धान्य से परिपूर्ण कोठार,विपुल पशुधन सम्पदा,लहलहाती खेती मन में खुशी और उल्लास से भर देती थी, लेकिन स्वर्ग से सुन्दर इन गांवों को न जाने किसी नजर लगी समय ने ऐसी करवट ली कि अब अपनों ने ही इन आबाद गाँवों को बर्बाद, विरान और खण्डहरों में तब्दील होने के लिए छोड़ दिया है।जनप्रतिनिधियों के पलायन और सरकारी उपेक्षा तथा उदासीनता के चलते। जी हाँ कुछ ऐसी ही कहानी है विकास खण्ड नौगांव के चार गाँव की कहानी।
जिला उत्तरकाशी के नौगाव विकासखंड के कोटला ग्राम
पंचायत के 4 गाँव जखाली, धौसाली, घुंड और कोटला में कभी 200 से अधिक परिवार रहते थे, लेकिन सरकारी नीतियों और उपेक्षा के कारण मूलभूत सुविधाओं के अभाव के चलते लोग इन खूबसूरत गाँव, खेती -बागवानी और जगह छोडने को मजबूर हो गये हैं।
आज स्थिति यह है कि जहां कोटला में लगभग 80 प्रतिशत लोगों ने पलायन कर लिया है। वहीं जखाली,धौंसाली और घुंड गाँव से 98 प्रतिशत लोगों ने पलायन कर चुके हैं। इन गांव में रहते भी तो कैसे? यहाँ न शिक्षा और चिकित्सा के प्रबन्ध है और न हीआवागमन के लिए सड़क मार्ग, यहाँ तक पैदल मार्ग भी बदहाल है। हर साल बरसात में पैदल रास्ते भूस्खलन से जगह-जगह अवरूद्ध हो जाते है। क्षेत्र से जो भी प्रतिनिधि बनें सब सुविधाजनक स्थानों में पलायन कर चले गये।
यहां नकदी फसलों में चौलाई, मडुवा, राजमा आदि उगाया जाता है। यहां के आलू की मंडी मे भी विशेष मांग होती थी। हर परिवार आलू के सीजन में 30 से 80 कुन्टल आलू बैचा करते थे, लेकिन सरकार की अपेक्षा और उदासीनता के चलते यातायात की सुविधा के अभाव में तथा जंगली जानवरों के आतंक से लोग धीरे धीरे परेशान हो गये और नकदी फसलों के उत्पादन से किसानों का मोह भंग हो गया।
सामाजिक कार्यकर्ता दर्मियान सिंह पंवार कहते हैंं कि अगर यहाँ से पलायन करने के अगर कोई दोषी है तो वे हैं इस क्षेत्र के प्रतिनिधि, जिन्होंने सबसे पहले पलायन किया। अगर वे पलायन न करते तो शायद यह क्षेत्र आज भी आबाद होता। आज तक न जाने कितने प्रतिनिधि आये और चले गये। विधायक, सांसद आये और घोषणा करके चले गये पर क्षेत्र आज भी वीरान है।
बहरहाल अभी वक्त है इन गाँव को सजाने, संवारने और अपनी जड़ों से जुड़ने का। इन बहुमंजिले भवनों को आबाद करने का। सुबह का भूला यदि शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते।