पांच साल तक विभिन्न समस्याओं को लेकर सरकारों को कोसने वाली जनता ऐन चुनाव के मौके पर उत्तराखंड की मूलभूत समस्याओं को चुनावी मुद्दा बनाने से चूक गई। इस बार का चुनाव भी मुद्दों के बजाय क्षेत्र, जाति और जुमलों वाली आरोप प्रत्यारोप की भेंट चढ़ गया। असल मुद्दों की याद दिलाती आवरण कथा
शंकर सिंह भाटिया
उत्तराखंड की चौथी विधानसभा के लिए चुनाव निपटने से पहले दो महीने तक हम जैसे बहुत सारे लोगों ने चुनाव प्रचार के उस दौर में उत्तराखंड के चुनावी मुद्दों पर अपनी कलम चलाई थी। कई लोगों ने सेमिनार कक्षों और सड़कों पर भी इन असल मुद्दों पर अपना गला साफ किया, लेकिन मुद्दों के मामले में चली सिर्फ भाजपा-कांग्रेस की। मोदी भाजपा के लिए सबसे बड़ा मुद्दा थे। इस मुद्दे को चलाने के लिए भाजपा जितनी ताकत लगा सकती थी, उसने लगाई। कांग्रेस ने हरीश रावत के इर्द-गिर्द अपना चुनावी ताना-बाना बुना।
भाजपा के चुनाव प्रचार अभियान का फोकस बदहाल उत्तराखंड की तस्वीर दिखाना था। इस बदहालत से उत्तराखंड को बाहर निकालने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डबल इंजन की जरूरत बताई। उन्होंने केंद्र के साथ उत्तराखंड में भी भाजपा की सरकार बनाने का आह्वान किया। प्रधानमंत्री ने छोटे से राज्य में पांच चुनावी रैलियां की। कुमाऊं में कुमाऊंनी और गढ़वाल में गढ़वाली से अपने भाषण की शुरुआत कर उन्होंने लोगों को खूब रिझाया। चुनाव में भाजपा का जबरदस्त प्रचार तंत्र काम कर रहा था। ‘बदहाल उत्तराखंडÓ भाजपा का सबसे बड़ा मुद्दा था। भाजपा ने नारा दिया ‘ भाजपा संग आओ बदलें उत्तराखंडÓ।
कांग्रेस ने हरीश रावत को पांच साल का कार्यकाल देने की दुहाई देते हुए कहा कि ‘उत्तराखंड रहे खुशहाल, रावत पूरे पांच सालÓ। कांग्रेस ने दल-बदल को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की थी। युवाओं को रोजगार, महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण, मलिन बस्तियों को मालिकाना हक, कांग्रेस के दूसरे चुनावी मुद्दे, एक संकल्प पत्र के रूप में चुनाव प्रचार के दौरान सामने आए।
बीच-बीच में सवाल उठे, तब पलायन पर बहुत कुछ बोला गया। भाजपा ने पलायन रोकने का दावा किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि वह पहाड़ की जवानी और पानी को पहाड़ के काम लाने के लिए हर जतन करेंगे।
मुख्यमंत्री हरीश रावत का तो यहां तक दावा था कि उन्होंने पलायन रोकने के लिए जो प्रयास प्रारंभ किए थे, वह 2019-20 तक रंग दिखाने लगेंगे, 2022 तक रिवर्स पलायन शुरू हो जाएगा, लेकिन दोनों पार्टियों के तर्क जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाते। भाजपा के दृष्टि पत्र में पलायन के लिए एक अलग से चैप्टर तक नहीं दिया गया है। कांग्रेस का संकल्प पत्र भी कोई ठोस बात नहीं कहता।
बसपा उत्तराखंड की तीसरी ताकत है। बसपा घोषणा पत्र ही नहीं लाती। बसपा सुप्रीमो मायावती की उत्तराखंड में हुई दो रैलियों में सिर्फ दलितों के मुद्दे पर ही मायावती ने अपना फोकस रखा। मायावती ने उत्तराखंड की जनता को एक और मुद्दा दिया, जो उत्तराखंड की जनता समझ नहीं पाई। ‘जो सरकारी जमीन है, वह हमारी हैÓ। मतलब यह कि सरकारी जमीनों पर मायावती के पोषित गुंडों का कब्जा बरकरार रहे। उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार के दौरान मायावती ने इसे लागू भी किया।
दरअसल उत्तराखंड में सिंचाई विभाग समेत तमाम विभागों की सरकारी जमीनों पर राज्य गठन के समय से उत्तर प्रदेश का कब्जा है। इन सरकारी जमीनों पर पिछले पंद्रह सालों में सपा तथा बसपा जिसकी सरकार यूपी में होती है, उसके गुंडे कब्जा कर लेते हैं। उत्तराखंड सरकार मूकदर्शक बनी रहती है। जब कोई इसका विरोध करता है तो मामलों को सिविल कोर्ट में डालकर उलझा दिया जाता है। पिछले दिनों नैनीताल हाईकोर्ट में इस बात की पुष्टि हुई थी। कोर्ट ने इन कब्जों को मुक्त करने के निर्देश सरकार को दिए हैं।
उत्तराखंड की चौथी ताकत उक्रांद है। उक्रांद के घोषणा पत्र में शराब बंदी, गैरसैंण राजधानी समेत उत्तराखंड से जुड़े तमाम मुद्दों पर स्पष्ट बातें कही हैं, लेकिन इन बातों को कहने का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक कि उक्रांद एक राजनीतिक ताकत नहीं बन जाता है। भाजपा कांग्रेस के मुकाबले राज्य के मुद्दों को उतनी ही ताकत से उठाने की शक्ति प्राप्त किए बिना इन मुद्दों का कोई मतलब नहीं रह जाता है।
इस बार एक बात और देखने में आई कि भाजपा ने अपने घोषणा पत्र को दृष्टि पत्र कहा तो कांग्रेस ने संकल्प पत्र कह दिया। जब कोई पार्टी सरकार में आती है तो घोषणा पत्र में कही गई बातों पर सवाल पूछे जाते हैं कि कितनी घोषणाएं पूरी हुई, कितनी अधूरी रह गई। अब दृष्टि पत्र और संकल्प पत्र के नाम से ये पार्टियां अपनी जिम्मेदारी से बचने का एक नया तरीका अपना रही हैं।
जहां तक चुनावी मुद्दों का सवाल है हमने देखा कि जो भाजपा-कांग्रेस तय करे, वही चुनावी मुद्दे बन जाते हैं। ऐसा वे धन बल, बाहु बल, प्रचार-प्रसार की अपनी असीमित शक्ति के बल पर करते हैं। वे अपनी सुविधाओं के अनुसार मुद्दे तय करते हैं। कभी नूरा-कुश्ती तो कभी धींगा-मुश्ती को चुनावी मुद्दे बना देते हैं। उत्तराखंड के मुद्दों को एक किनारे सरकाकर सतही मुद्दे उछालते हैं और पूरा चुनाव उसी पर लड़ लिया जाता है। इसलिए चुनाव जीतने के बाद पांच साल तक उत्तराखंड के मुद्दों के प्रति वे खुद को जिम्मेदार नहीं मानते।
इस तरह के हवाई मुद्दे चुनाव जीतकर आने वाली पार्टी को जिम्मेदारियों से मुक्त कर देते हैं। सिर्फ हवाई बातें कर सत्ता हथियाने का यह बहुत आसान हथकंडा है। उत्तराखंड में बारी-बारी सत्ता हथियाने के लिए अब तक भाजपा-कांग्रेस ने ऐसा ही माहौल तैयार किया है। राज्य में तीसरा विकल्प मौजूद न होने की वजह से भी यह स्थिति बनी है। ये चुनावी मुद्दे उत्तराखंड की असल समस्याओं को दरकिनार करते हैं। उत्तराखंड के साथ यह पिछले तीन चुनावों से होता आया है। अब चौथे विधानसभा चुनाव के मौके पर उत्तराखंड के असल मुद्दों को एक बार फिर दरकिनार किया गया है। इन दलों को सत्ता में लाने वाली जनता को असल मुद्दे कौन याद दिलाए? हमारा मानना है कि उत्तराखंड के असल मुद्दों पर गहराई से बात होनी चाहिए।
आंदोलनकारियेां की उपेक्षा
उत्तराखंड राज्य का गठन का श्रेय शहीद आंदोलनकारियों को दिया जाता है। शहीदों के प्रति उत्तराखंड की सरकारों का रवैया चौंकाने वाला है। जब किसी को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलती है तो वह शहीद स्थल पर जाकर शीश नवाता है और शहीदों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता है कि उनकी शहादत की वजह से उन्हें सत्ता संचालन का मौका मिला है।
राज्य सरकार के गृह मंत्रालय ने 33 लोगों की एक सूची बनाई है, जिसमें से 28 नामों के आगे शहीद और पांच के आगे लापता दर्ज है। 23 साल से कोई व्यक्ति लापता कैसे हो सकता है, जबकि कानूनन गुमशुदगी दर्ज होने के सात साल बाद उसे मृतक घोषित कर दिया जाता है। शहीदों के प्रति भाजपा-कांग्रेस की सरकारों में यह कैसा सम्मान है? यह चुनावी मुद्दा क्यों नहीं होना चाहिए?
कोर्ट के निर्देश पर मुजफ्फरनगर समेत उत्तराखंड आंदोलन में हुई ज्यादती की सीबीआई जांच हुई थी। जिसमें कम से कम छह महिलाओं के साथ पुलिस द्वारा सामूहिक बलात्कार की पुष्टि हुई थी। 33 लोगों की शहादत की बात सरकार खुद स्वीकार करती है। सीबीआई कोर्ट में एक के बाद एक संबंधित मुकदमे खारिज हो रहे हैं। इन अपराधों के लिए किसी एक को भी सजा नहीं हुई है। भाजपा-कांग्रेस की सरकार इन मुकदमों में पैरवी की बात करती है, उन्होंने इन सत्रह सालों में कैसी पैरवी की कि एक मामले में भी सजा नहीं हुई?
तत्कालीन मुजफ्फरनगर के डीएम अनंत कुमार सिंह को उत्तराखंड आंदोलन का एक बड़ा गुनाहगार माना जाता है। उन्हें बार-बार चुपके से बरी करने की भी कोशिश होती रही है। भाजपा के शीर्ष नेताओं में से एक राजनाथ सिंह बार-बार इस अनंत कुमार सिंह को बचाने के लिए क्यों आगे आ जाते हैं? इसके बावजूद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भाजपा को उत्तराखंड की जननी कहते हैं और उत्तराखंड राज्य भाजपा की देन बताते हैं?
1984 में सिखों के खिलाफ हुए दंगे आज भी कोर्ट में मजबूती से रखे जाते हैं। 1994 में उत्तराखंडियों के खिलाफ हुए अत्याचारों की यादों को भी ये सब क्यों दफना देना चाहते हैं? इन्हीं जुल्मों की मुंडेर पर ये सत्ता की कुर्सी सजाकर बैठे हैं, लेकिन राज्य के लिए अपना बलिदान करने वालों को दरकिनार कर दिया गया है। ये चुनावी मुद्दे नहीं हैं? यदि चुनाव लडऩे वाले राजनीतिक दल इन मुद्दों से बचना चाहते हैं तो जनता या फिर जन संगठन इन मुद्दों को आगे लाकर इन दलों से जवाब क्यों नहीं मांगते?
अनसुलझा है परिसंपत्तियों का पचड़ा
उत्तराखंड राज्य की सीमा के अंदर उसकी अचल संपत्तियों पर उत्तर प्रदेश क्यों काबिज है? संघीय भारत में उत्तराखंड एकमात्र राज्य है, जिसकी अपनी भौगोलिक सीमा के अंदर दूसरा राज्य काबिज है। तत्कालीन एनडीए (भाजपा) की केंद्र सरकार ने यह प्रावधान किए थे। उत्तराखंड की सीमा के अंदर तीन बैराज भीमगौड़ा बैराज हरिद्वार, लोहियाहैड बैराज, बनबसा, रामगंगा बैराज कालागढ़, सिंचाई विभाग की 13 हजार हेक्टेयर से अधिक भूमि, सिंचाई विभाग के 14 हजार से अधिक आवासीय, कार्यालयी भवन, 41 नहरें जिनके हेड और टेल उत्तराखंड में ही हैं, आवास विकास की सैकड़ों हेक्टेयर भूमि, टिहरी डैम जो संपूर्ण रूप से उत्तराखंड में स्थित है, का 75 प्रतिशत हिस्से का मालिकाना हक केंद्र सरकार का है, बाकी 25 प्रतिशत हिस्से पर उत्तराखंड हिस्सेदार होना चाहिए, लेकिन यह हिस्सा आज भी उत्तर प्रदेश के कब्जे में है, क्यों?
उत्तराखंड की परिसंपत्तियों के मामले में जब 2009 में नैनीताल हाईकोर्ट का निर्णय आया, जिसमें उत्तर प्रदेश तथा केंद्र सरकार को निर्देशित किया गया था कि वह उत्तराखंड की परिसंपत्तियां उसे तुरंत लौटाएं। इस निर्णय के खिलाफ तत्कालीन यूपी की मायावती सरकार सुप्रीमकोर्ट चली गई।
तब केंद्र की यूपीए सरकार उत्तर प्रदेश के पक्ष में पक्षकार बनकर सुप्रीम कोर्ट में क्यों खड़ी हुई? उत्तराखंड के पांचों सांसद कांग्रेस के थे, वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत तब केंद्रीय जल संसाधन मंत्री थे। क्या उत्तराखंड के कांग्रेस सांसदों ने अपनी केंद्र सरकार के समक्ष उत्तराखंड का पक्ष रखने की कोशिश की?
सुप्रीम कोर्ट में उत्तराखंड की परिसंपत्तियों का यह मामला उत्तराखंड का सिंचाई विभाग लड़ रहा था। उत्तराखंड की तत्कालीन भाजपा सरकार अपनी परिसंपत्तियों के इस अहम मामले में पक्षकार तक बनने को तैयार नहीं हुई, जबकि केंद्र सरकार यूपी के पक्ष में पक्षकार बनकर सुप्रीम कोर्ट में खड़ी थी। सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान जजों ने पूछा भी कि उत्तराखंड सरकार पक्षकार क्यों नहीं है? अंतत: सितंबर 2013 में निर्णय आया, जो उत्तराखंड के खिलाफ गया।
नारायणदत्त तिवारी के कार्यकाल में दो त्रिपक्षीय समझौते हुए। पहले समझौते के तहत निजी क्षेत्र की विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना के 12 प्रतिशत फ्री पावर को छोड़ बाकी 88 प्रतिशत बिजली खरीदने के अपने अधिकार को उत्तराखंड सरकार ने उत्तर प्रदेश ऊर्जा निगम को समर्पित कर दिया। बाद में ठीक ऐसा ही समझौता श्रीनगर परियोजना को लेकर नारायण दत्त तिवारी कर गए। यदि इन दोनों परियोजनाओं की बिजली उत्तराखंड को मिलती, जो कि उसका हक था, तो प्रति वर्ष अरबों रुपये की बिजली उत्तराखंड को नहीं खरीदनी पड़ती। इतना ही नहीं नारायण दत्त तिवारी ने हिमाचल के नाफ्ता झाकरी में उत्तराखंड के हक को लेने से इंकार कर दिया और यमुना टौंस वैली की पांच परियोजनाओं में शर्त के विपरीत हिमाचल प्रदेश को बिजली आपूर्ति की जाती रही।
केंद्र सरकार ने टिहरी परियोजना का 25 प्रतिशत हिस्सा यूपी के हवाले कर दिया। उत्तराखंड की भाजपा तथा कांग्रेस किसी भी सरकार ने इस 25 प्रतिशत हिस्से पर क्लेम नहीं किया। 2009 में पहली बार इस हिस्से पर क्लेम किया गया। केंद्र सरकार ने इसे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर बताकर उत्तराखंड से कहा कि वह अपना हिस्सा पाने के लिए कोर्ट की शरण में जाए।
उत्तराखंड में उत्तर प्रदेश को क्यों कब्जा देती है दिल्ली में बैठी भाजपा-कांग्रेस की सरकारें? उत्तर प्रदेश को भारत की राजनीति का सिरमौर माना जाता है। दिल्ली की गद्दी पर उत्तर प्रदेश से होकर ही जाने का रास्ता बनता है। यह मिथक भारतीय राजनीति में छाया हुआ है। उत्तराखंड का हक मारकर यूपी को देने की होड़ भाजपा-कांग्रेस में हमेशा मची रहती है। उत्तराखंड के भाजपा-कांग्रेस के नेता अपने केंद्रीय नेतृत्व के सामने इस कदर बौने हैं कि वे उत्तराखंड का हक का सवाल उठाने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाते हैं। उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम 2000 में भाजपा नेतृत्व ने उत्तराखंड का हक मारने वाले जो प्रावधान किए थे, भाजपा के उत्तराखंड के नेता अपने केंद्रीय नेतृत्व के सामने उत्तराखंड के साथ हो रहे इस अन्याय के खिलाफ नहीं बोल पाए। यही स्थिति कांग्रेस की भी है। भागीरथी इको सेंसिटिव जोन का आधार कांग्रेस की सरकार में रखा गया था। उत्तराखंड के विकास विरोधी सभी प्रावधान कांग्रेस की सरकार ने बनाए थे, जिसे भाजपा की सरकार अब उसी रूप में लागू कर रही है। तब उत्तराखंड के वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत केंद्र सरकार में जल संसाधन मंत्री थे। लेकिन उत्तराखंड के खिलाफ किए जा रहे प्रावधानों के खिलाफ उन्होंने तब कोई आवाज नहीं उठाई। अब केंद्र में भाजपा की सरकार है और चुनाव निकट हैं, इसलिए कांग्रेस इसे राजनीतिक हथियार बना रही है। उत्तराखंड के विकास की चिंता इन दोनों दलों में कतई नहीं है। उत्तराखंड के लोग इसे चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनाते?
मूल निवास पर मौन
उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र समेत तमाम राज्यों में मूल निवास प्रमाण पत्र की व्यवस्था लागू है। जब उत्तराखंड अविभाजित उत्तर प्रदेश का हिस्सा था, यहां भी मूल निवास प्रमाण पत्र की व्यवस्था लागू थी। उत्तराखंड पर थोपे गए हरियाणा मूल के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी ने मूल निवास प्रमाण पत्र की व्यवस्था समाप्त करने की शुरूआत की। भाजपा-कांग्रेस ने मिलकर मूल निवास प्रमाण पत्र की व्यवस्था समाप्त कर मूल निवासियों को बहुत बड़ी चोट पहुंचाई है। यह सिर्फ मैदानी क्षेत्र के नेताओं के दबाव में लिया गया निर्णय है।
पलायन पर छुड़ाया पल्ला
जब उत्तराखंड राज्य के लिए आंदोलन चल रहा था, कहा जाता था कि उत्तराखंड राज्य बनेगा तो पलायन अपने आप रुक जाएगा। लेकिन उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पलायन रुकना तो दूर की बात, पलायन की गति कई गुना बढ़ गई है। पलायन को लेकर कई तरह के आंकड़े रखे जा रहे हैं। इनमें से कई भ्रामक हैं। लेकिन जनगणना के आंकड़ों पर गौर करें तो 2001-2011 के बीच उत्तराखंड के सैकड़ों गांव गैरआबाद हुए हैं। पौड़ी तथा अल्मोड़ा जिलों में आबादी बढऩे के बजाय कम हुई है। पहाड़ों से पलायन की एक नहीं कई वजह हैं। स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा का अभाव समेत तमाम मूलभूत सुविधाओं से पहाड़ को वंचित रखना पलायन की मूल वजह माना जाता है। परंपरागत कृषि के स्थान पर बागवानी को पहाड़ में एक आंदोलन न बना पाना इसकी एक अन्य वजह माना जाता है। इन सोलह साल में भाजपा-कांग्रेस ने उत्तराखंड में राज किया, लेकिन पलायन रोकने और पहाड़ के विकास को गति देने के लिए किसी सरकार ने एक भी कदम नहीं उठाया, समग्र विकास की बात करना तो दूर की बात है। भाजपा के कार्यकाल में एक मुख्यमंत्री ने तो पलायन को उत्तराखंड के प्राइड से जोड़ दिया, पलायन को उत्तराखंड का प्राइड घोषित कर दिया। कांग्रेस के मुख्यमंत्री पहाड़ में रिवर्स पलायन का दावा करते हैं, लेकिन इसका कोई आधार उनके पास नहीं है। दोनों सरकारें राज्य की प्रति व्यक्ति आय समेत विकास के बड़े-बड़े दावे करते हैं। जब उनकी अपनी सरकार होती है तो प्रदेश विकास के प्रतिमान छूता है, दूसरी पार्टी की सरकार में उनका दावा होता है कि प्रदेश गर्त में चला गया है। तराई के विकास के आंकड़ों से पहाड़ को आच्छादित किया जाता है। पहाड़ के उजाड़ की सच्चाई की तरफ आंखें मूंदी जाती है। इन सोलह सालों में किसी भी सरकार ने पलायन रोकने के लिए कोई एक समग्र योजना लाने की कोशिश तक नहीं की।
घोटालों पर गुमराह
उत्तराखंड का दुर्भाग्य है कि यहां भाजपा-कांग्रेस की सरकारें पलट-पलट कर सत्ता में आती है। विपक्ष जब सत्ता में आता है तो वह पिछली सरकार पर घोटालों के बड़े-बड़े आरोप लगाता है। 2007 में जब भाजपा सत्ता में आई तो कांग्रेस की नारायण दत्त तिवारी की सरकार पर 56 घोटालों के आरोप लगाए गए। बाद में इन घोटालों की संख्या बढ़ाकर 76 हो गई। पटवारी भर्ती घोटाला, दरोगा भर्ती घोटाले की भाजपा सरकार पांच साल तक जांच कराती रही, एक भी घोटालेबाज को पकड़ा नहीं गया। बिल्कुल ऐसा ही 2012 में बनी कांग्रेस सरकार में हुआ। उसने भाजपा के घोटालों की जांच के लिए न्यायिक आयोग बनाए। सिटुर्जिया जमीन घोटाला, कुंभ घोटाला समेत तमाम घोटालों की जांच कांग्रेस सरकार ने कराई। कांग्रेस सरकार का कार्यकाल खत्म होने वाला है, लेकिन एक भी मामले में कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए ये आयोग किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे हैं। अब भाजपा हरीश रावत सरकार पर आपदा राहत घोटाला, आबकारी घोटाला, खनन घोटाला, पॉली हाउस सब्सिडी घोटाला समेत तमाम घोटालों के आरोप लगा रही है।
क्या यह भाजपा-कांग्रेस की जनता को भ्रम में रखने की कोशिश नहीं है? या फिर दोनों दलों के बीच कोई आपसी समझौता है? घोटाले करो, उसकी जांच बैठाओ और सबको बरी कर दो। घोटालों पर इससे बढिय़ा साठगांठ शायद देश में कही हो।
जमीनों पर अवैध कब्जे
अभी हाल में नैनीताल हाई कोर्ट का एक निर्णय आया है कि उत्तराखंड की सीमा के अंदर सिंचाई तथा तमाम विभागों की जिन जमीनों पर उत्तर प्रदेश के कब्जे हैं, उन जमीनों पर खासकर उत्तर प्रदेश से आकर बाहुबलियों ने कब्जे कर रखे हैं। जमीनों पर कब्जा करने वाले सपा तथा बसपा से जुड़े लोग ज्यादा हैं। उत्तर प्रदेश में जिसकी सरकार होती है, वह उत्तराखंड में उत्तर प्रदेश के कब्जे वाली जमीनों पर अवैध कब्जा करते हैं। मामले को उलझाने के लिए ऐसे कब्जों के वादों को सिविल कोर्ट में उलझाते हैं। हाई कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार तथा पुलिस प्रशासन से ऐसे कब्जों को चिन्हित कर, उनसे कब्जे हटाने के निर्देश दिए हैं। इन कब्जों पर उत्तराखंड की सत्ता में रहने वाले भाजपा तथा कांग्रेस के नेताओं की भूमिका संदेह के घेरे है।
परिसीमन नहीं प्राथमिकता
उत्तराखंड दो विपरीत भौगोलिक स्थिति वाला राज्य है। इस राज्य का 80 प्रतिशत भूभाग पर्वतीय और 20 प्रतिशत तराई तथा मैदानी है। राज्य गठन के बाद 2002 में हुए परिसीमन में 80 प्रतिशत भूभाग वाले पर्वतीय क्षेत्र में 70 विधानसभा सीटों में से 38 सीटें थी, जबकि 20 प्रतिशत मैदानी क्षेत्र में 32 विधानसभा सीटें थी। 2006 में पूरे देश में विधानसभा तथा लोक सभा सीटों का परिसीमन हुआ। उत्तराखंड के साथ बने झारखंड तथा छत्तीसगढ़ समेत देश के पांच राज्यों ने अपने राज्य में फिर से परिसीमन न करने का आग्रह परिसीमन आयोग से किया। उन राज्यों में फिर से कोई परिसीमन नहीं हुआ। उत्तराखंड में भी चार साल पहले ही परिसीमन हुआ था, नए परिसीमन की आवश्यकता नहीं थी। उत्तराखंड में पहाड़ विरोधी नारायण दत्त तिवारी की कांग्रेस की सरकार थी। भाजपा-कांग्रेस के बीच साठगांठ हुई और ऐसा कोई प्रस्ताव न भेजने का निर्णय लिया गया। परिसीमन आयोग की भूमिका भी यहां पक्षपातपूर्ण रही। परिसीमन आयोग ने सौदेबाजी जैसा व्यवहार किया। कहा कि परिसीमन में पहाड़ से नौ सीटें कम होकर मैदान में इतनी ही सीटें बढ़ती हैं, लेकिन पहाड़ को दस प्रतिशत वैरियेशन का लाभ दिया जा रहा है जिससे छह सीटें पहाड़ से कम कर इतनी ही सीटें मैदान में बढ़ाई जा रही हैं। अब इस नए परिसीमन में पहाड़ में 32 और मैदान में 38 सीटें हो गई।
अगला परिसीमन 2026 में होना तय है। जिस तरह उत्तराखंड के तराई में लगातार आबादी बढ़ रही है और पहाड़ से पलायन होकर पहाड़ खाली हो रहे हैं, माना जा रहा है कि परिसीमन आयोग के इन मानकों के अनुसार 80 प्रतिशत पहाड़ में 15 विधानसभा सीटें भी नहीं रह जाएंगी। भारतीय संविधान में परिसीमन के लिए सिर्फ आबादी को मानक नहीं माना गया है। यथास्थिति शब्द का प्रयोग परिसीमन के लिए किया गया है। आयोग इसी आधार पर दस प्रतिशत वेरियेशन की बात करता है। तब पहाड़ के वजूद को बचाए रखने के लिए वेरियेशन 30 प्रतिशत या 50 प्रतिशत क्यों नहीं हो सकता है? 2026 का परिसीमन पहाड़ के वजूद पर देश में बैठे पहाड़ विरोधी दलों भाजपा-कांग्रेस द्वारा गाड़ी गई अंतिम कील होगी। इस स्थिति में यदि पहाड़ को अलग से राज्य बनाने की मांग उठेगी तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
गैर हुआ गैरसैंण
उत्तराखंड आंदोलन के दौरान गैरसैंण को निर्विवादित तौर पर उत्तराखंड की राजधानी माना गया था। उत्तराखंड राज्य तथा राजधानी पर कौशिक कमेटी की रिपोर्ट 1994 में आई थी। इस कमेटी ने राजधानी पर एक जनमत संग्रह भी किया था। जिसमें 86 प्रतिशत लोगों ने गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्ष में अपना मत रखा था। उसके बाद हुए हर सर्वेक्षण में गैरसैंण को ही राजधानी बनाने के पक्ष में सबसे अधिक लोग थे। यहां तक कि भाजपा-कांग्रेस प्रायोजित दीक्षित आयोग के जनमत संग्रह में भी गैरसैंण के पक्ष में सबसे अधिक लोग थे। जबकि दीक्षित आयोग ने गैरसैंण के पक्ष को कमजोर करने के लिए कई तरह के कुतर्क रचे थे। निर्विवादित गैरसैंण को दरकिनार करने का श्रेय भाजपा को जाता है। जिसने इतने सारे जनमत संग्रहों, उत्तराखंड आंदोलन की आवाज को दरकिनार कर एक कोने में स्थित देहरादून को उत्तराखंड की राजधानी बना दिया। गैरसैंण राजधानी पर भाजपा की नीयत का पता इसी से चल जाता है कि बड़ी तैयारी से उत्तराखंड का विजन डाक्यूमेंट बनाने का दावा करने वाली भाजपा के इस डाक्यूमेंट से गैरसैंण गायब है। दबाव में आखिर में तीन लाइन राजधानी पर जोड़े गए हैं। कांग्रेस की राज्य सरकार इस पूर्वाग्रह, दुराग्रह को भुनाने के लिए गैरसैंण में विधानभवन भी बना देती है, विधानसभा सत्र तथा कैबिनेट की बैठक भी गैरसैंण में कर लेती है। लेकिन गैरसैंण को राजधानी, यहां तक कि ग्रीष्मकालीन राजधानी तक घोषित करने से बचती है। गैरसैंण 16 साल के हो चुके उत्तराखंड राज्य में उजड़ते जा रहे पहाड़ का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन पहाड़ के विकास की चिंता भाजपा-कांग्रेस को होती तो गैरसैंण पर वे कोई स्पष्ट निर्णय करते, उसे राजनीति का खिलौना बनाकर इस तरह नहीं खेलते।
गढ़वाली-कुमाउंनी नहीं पंजाबी-उर्दू
क्या उत्तराखंड की मौलिक भाषा पंजाबी और उर्दू है? राज्य सरकार के कारनामों और विपक्ष की चुप्पी से यही लगता है। राज्य सरकार ने चुनाव से पहले 200 मदरसों को मान्यता दी है। साथ ही 600 उर्दू टीचरों की भर्ती की है। दूसरी तरफ 150 पंजाबी टीचरों की भर्ती भी की गई है।
संभवत: कुमाउंनी, गढ़वाली उत्तराखंड की मौलिक बोली भाषा है। संयुक्त राष्ट्र की शैक्षणिक संस्थान यूनेस्को ने कुमाउंनी-गढ़वाली को संकटग्रस्त बोली भाषाओं की श्रेणी में रखा है, क्योंकि यूनेस्को के अनुसार इन बोली भाषाओं को बोलने वालों की संख्या पलायन के साथ लगातार कम हो रही है। लेकिन उत्तराखंड की सरकार ने संकटग्रस्त इन मौलिक भाषाओं के लिए कुछ नहीं किया। दूसरी तरफ राज्य में पंजाबी और उर्दू अकादमी गठित कर दी गई है। इन भाषाओं के शिक्षकों का नियुक्ति की गई है। इस मामले में विपक्ष की चुप्पी भी सवाल उठाती है।
रोजगार की रुदाली
एसोचैम ने हाल में जारी एक बयान में कहा है कि उत्तराखंड में खाद्य प्रसंस्करण, पर्यटन, जड़ी-बूटी, लघु तथा मध्यम उद्योग के जरिये पांच साल में कम से पांच लाख रोजगार देने की क्षमता है। उत्तराखंड में रोजगार और विकास की क्षमता लगातार मजबूत हो रही है। इस क्षेत्रों दीर्घकालिक नीति बनाकर मजबूती से युवाओं को रोजगार से जोड़े के बजाय, चुनाव के वक्त युवाओं को रोजगार देने के लिए फास्ट फूड पैकेज की तरह बेरोजगारी भत्ता देने की घोषणा करना कितना उचित है?
इसके अतिरिक्त बिजली, पानी, सड़क तो हर क्षेत्र के चुनावी मुद्दे हैं। उत्तराखंड के आर्थिक संसाधनों को बढ़ाने के लिए 65 प्रतिशत जंगल पोषित करने वाले इस राज्य को ग्रीन बोनस का सवाल क्यों नहीं चुनावी मुद्दा होना चाहिए, क्योंकि केंद्र में चाहे कांग्रेस की सरकार हो या फिर भाजपा की दोनों इस मामले में उत्तराखंड को टरकाती रही हैं। उत्तराखंड का एक बहुत बड़ सवाल यह है कि वन संरक्षण में बढ़ चढ़कर भूमिका निभाने वाले उत्तराखंड के लिए अन्य हिमालयी क्षेत्रों के मुकाबले ईको सेंसिटिव जोन के मामले में कड़े नियम बनाए गए हैं। यह काम कांग्रेस की केंद्र सरकार कर गई थी, भाजपा सरकार उसे लागू कर रही है। यही दोनों दल उत्तराखंड में सत्ता की दावेदार हैं। क्यों नहीं इस मुद्दे को चुनावी मुद्दा बनाया जाना चाहिए?
इसके अतिरिक्त बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य समेत कई स्थानीय मुद्दे हो सकते हैं, जिन्हें उठाने के बजाय दबाने में ही राजनीतिक दल प्राथमिकता देते हैं। उत्तराखंड की सबसे बड़ी समस्या तीसरे विकल्प के न होने की है। जो बसपा उत्तराखंड की तीसरी ताकत होने का दावा करती है, वह उत्तराखंड के असली मुद्दों के साथ कभी नहीं जुड़ सकती है। क्योंकि बसपा की प्राथमिकता उत्तराखंड नहीं है। जब तक कोई उत्तराखंडी विकल्प खड़ा नहीं होता उत्तराखंड भाजपा-कांग्रेस के चक्रव्यूह में इसी तरह फंसता रहेगा। चक्रव्यूह से बाहर निकलने का उसे कोई रास्ता नहीं सूझेगा।
लॉलीपॉप से लुभाया
आचार संहिता से ठीक पहले भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने १२ हजार करोड़ रुपए लागत वाले आल वेदर रोड का शिलान्यास किया। चुनाव से ठीक चार दिन पहले इस तरह का शिलान्यास चुनावी लाभ लेने के लिए ही किया गया।
यही नहीं जब चुनाव की तारीखों की घोषणा हो गई, उसके ठीक अगले दिन केंद्र सरकार ने उत्तराखंड को २०९ करोड़ रुपए की मदद भी उत्तराखंड में वर्ष २०१३ में आई दैवीय आपदा से हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए यह मदद दी गई। जाहिर है कि इस मदद के जरिए केंद्र सरकार राज्य के साथ भेदभाव किए जाने वाले आरोपों को धूमिल करना चाहती थी। राज्य सरकार ने भी उत्तराखंड के लोगों को चुनावी लॉलीपॉप थमाने में कोई कसर नहीं रखी। चुनाव से ठीक पहले दलितों को सरकारी टेंडरों में २५ फीसदी आरक्षण की सुविधा दे दी गई तो कैबिनेट के माध्यम से ठीक आचार संहिता से पहले प्रदेश के ७ हजार लोगों को नियमितीकरण के लिए हरी झंडी दे दी गई। आाचार संहिता से ठीक पहले दर्जनभर कैबिनेट के फैसलों के द्वारा लंबे समय से आक्रोशित होमगार्ड, आंगनबाड़ी और आयुर्वेदिक डॉक्टरों की मांगें भी मान ली। जरूरतमंदों के लिए कांग्रेस सरकार ने आचार संहिता से ठीक पहले हवाई सेवाएं भी शुरू कर दी और बाकायदा जरूरतमंदों को मुफ्त सेवाएं दी गई। सरकार ने बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ मुहिम को बढ़ाने के लिए अपने अंदाज में हर बेटी के लिए 5 हजार की एफडी उपहारस्वरूप देने की योजना भी शुरू कर दी। ठीक चुनाव से पहले कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए दर्जनों लालबत्तियां भी बांट दी गई, जबकि यह पहले से ही साफ था कि इन लालबत्तियों की उम्र मात्र एक महीने है।
यही नहीं आचार संहिता से ठीक पहले सरकार ने मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने के लिए जुम्मे की नमाज के लिए डेढ़ घंटे का विशेष अवकाश घोषित किया। चुनाव आचार संहिता से चंद दिन पहले ही सरकार ने १०४५ करोड़ रुपए की लागत वाली ८०० से अधिक कार्यों की घोषणा की, किंतु इन कार्यों के लिए केवल ८२ लाख रुपए ही जारी किए गए।
राज्य कर्मचारियों को लुभाने के लिए सरकार ने चुनाव से ठीक पहले सातवें वेतनमान का लाभ भी दे दिया तो सभी कर्मचारियों के लिए यू हैल्थ कार्ड भी अनिवार्य कर दिया। कई नगर पंचायतों को उच्चीकृत कर दिया तो दिव्यांगों के लिए तीन फीसदी क्षैतिज आरक्षण को बढ़ाकर चार फीसदी कर दिया। चुनाव से ठीक पहले सियासी लाभ लेने के लिए की गई इन घोषणाओं का सरकार को कितना नफा-नुकसान होगा, इस पर पूरे चुनाव के दौरान मतदाता मौन ही रहा। इसमें दोराय नहीं कि यदि ये सभी लोक कल्याणकारी योजनाएं सरकार के शुरुआती समय में ही धरातल पर उतर आती तो राज्य को इनका लाभ जरूर मिलता।
मुद्दों पर मौन
उत्तराखंड के महत्वपूर्ण मुद्दे राहुल गांधी की फटी जेब से जाने कहां गिर गए। आपाधापी में उन्हें ढूंढने और उठाने की शायद ही किसी को सुध रही हो। चुनावी रैलियों में जुटने वाली भारी भीड़ विकास के डबल इंजन से लेकर स्कूटर के तेल पीने तक की चकल्लस में डूबी रही। रहा-सहा विवेक उम्मीदवारों द्वारा बहाई जा रही दारू-मुर्गों की बाढ़ में बह गया। राजनेताओं की चुटीली बातों और जुमलेबाजियों में उत्तराखंड के मुद्दे गौण हो गए। भाषण देने वाले नेताओं से लेकर वोट मांगने वाले उम्मीदवारों तक की जुबां से न तो पलायन और जंगली जानवरों से उत्तराखंड को बचाने के लिए कोई आश्वासन निकला और न ही जनता ने अपने दरवाजे पर आए नेताओं से इस विषय पर कोई सवाल पूछना उचित समझा। नेताजी हाथ जोड़े खीसें निपोड़ते हुए नतमस्तक मुद्रा में वोटर के दर पर पधारते थे और ज्यों ही वोटर कुछ कहने को मुंह खोलने की सोचता, उससे पहले ही नेताजी दरवाजे से बाहर निकल जाते और उनके लगुए-भगुए वोटर की जेब में कुछ नोट और कुछ बोतल ठूंसकर आगे बढ़ लेते।
एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की गरमाहट में सड़क, शिक्षा, बिजली, पानी जैसे मुद्दों की बात करना भी बेमानी सा था। जनता को इन मुद्दों से भटकाने के लिए दोनों बड़ी पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ अफवाहें फैलाने में भी कोई कसर नहीं रखी। एक प्रत्याशी के लोग दूसरे के खिलाफ नोट बंटवाने की अफवाहें फैलाने लगते तो दूसरे प्रत्याशी के कार्यकर्ता भी कहने लगते कि पहले ने फलां लोगों के साथ मारपीट कर दी अथवा उनकी इतने बोतल शराब निर्वाचन टीम ने पकड़ ली है। एक दूसरे के खिलाफ माहौल खराब करने में किसी ने कोई कसर नहीं रखी। फिर जनता भी आसानी से इस टे्रप में फंस गई और मुद्दों की बजाय जातिवाद और क्षेत्रवाद में सिमटकर रह गई। सांप्रदायिकता को लेकर भी इस चुनाव में बड़ा धु्रवीकरण देखने में आया। ऐसे में विकास के मूल मुद्दों को भला कौन पूछता।
मतदाताओं द्वारा योग्य प्रत्याशियों को चुनने में की गई चूक का खामियाजा उन्हें अगले पांच साल तक भुगतना पड़ेगा।
दिल्ली से आए मोदी और अमित शाह से लेकर तमाम केंद्रीय मंत्रियों ने भी मुद्दों को उठाने की बजाय गढ़वाली-कुमाऊंनी में बोलकर खुद को राज्य बनाने वाली पार्टी बताकर जनभावनाओं को छूने की कोशिश की, किंतु किसी ने भी उत्तराखंड की वास्तविक समस्याओं पर उंगली नहीं रखी।
गैरसैंण राजधानी का सवाल भाजपा ने भी किनारे कर दिया तो नए जिलों को लेकर भी कोई सवाल नहीं उठा। उत्तराखंड की परिसंपत्तियों पर कब्जा जमाए उत्तर प्रदेश के सवाल पर भी न जनता ने कुछ पूछा, न नेताओं ने इसका कोई जिक्र किया। जाहिर है कि इन चुनाव में भी उत्तराखंड के मौलिक सवाल अछूते ही रहे।
अनुत्तरित सवाल
चुनावों के समय तमाम संगठनों ने भी जनजागरूकता और उम्मीदवारों पर दबाव बनाने के लिए मूलभूत सवाल उठाए थे, किंतु संभवत: जनता ने इन सवालों के प्रति कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। विकास को गांव आधारित करने के लिए गांव बचाओ यात्रा निकालने वाले पद्मश्री डा. अनिल जोशी कहते हैं कि जब तक विकास के केंद्र में गांव नहीं होगा, तब तक न तो जनसहभागिता विकसित होगी और न ही पलायन रुकेगा। अवैध खनन को लेकर स्वामी शिवानंद सरीखे संत भले ही पिछली भाजपा सरकार से लेकर इस कांग्रेस सरकार तक पूरे एक दशक में मुखर रहे, किंतु अपने प्रिय शिष्य के बलिदान के बाद भी अवैध खनन पर रोक लगाने को लेकर न तो विपक्षी पार्टियों ने कोई रोडमैप दिया और न ही जनता ने इसको लेकर आवाज उठाई।
पिछले दस सालों में १०६५ गांव खाली हो चुके हैं और साढ़े तीन लाख परिवार पलायन हो चुके हैं। हस्तक्षेप और पलायन एक चिंतन सरीखे विभिन्न अभियानों द्वारा आवाज उठाने के बाद भी जनता इस मुद्दे को भी चुपचाप समझौता करने को तैयार है, किंतु सवाल उठाने लायक जुर्रत करने को तैयार नहीं।
विजय बहुगुणा के समय में बेरोजगारी भत्ता शुरू किया गया था। हरीश रावत सरकार ने यह भत्ता बंद कर दिया, किंतु आचार संहिता के दौरान बेरोजगारी भत्ता कार्ड बांटकर सियासी लाभ लेने की कोशिश यह बताती है कि इससे बेरोजगारों को तो लुभाया जा सकता है, किंतु बेरोजगारों के प्रति कोई भी गंभीर नहीं है। दस हजार करोड़ के पूंजी निवेश के बाद भी उद्योगों में रोजगार के नाम पर मजदूरों से भी निम्न दर्जे का शोषण जारी है। न कोई उद्योग पहाड़ चढ़ा और न रोजगार दफ्तरों के द्वारा किसी को रोजगार मिला। बैकडोर से आउटसोर्सिंग के माध्यम से चहेतों को विभिन्न विभागों में जरूर खपाया गया, किंतु स्पष्ट नियमावली के अभाव में ये कर्मचारी शोषण के शिकार हैं। जनता ने इस सवाल को नहीं उठाया तो घोषणा पत्रों में भी रोजगार का सवाल गायब रहा।
पहाड़ के पलायन से पीडि़त पहाड़ के खलिहानों तक जंगल घिर आए हैं। आए दिन बाघ, बंदर, भालू, हाथी लोगों और उनकी फसलों को तबाह कर रहे हैं, किंतु हुक्मरानों को संभवत: यह सवाल आश्वासन लायक भी नहीं लगता।
शिक्षा के नाम पर ट्रांसफर-पोस्टिंग उद्योग की शक्ल अख्तियार कर चुका है, किंतु हुक्मरानों की खामोशी आज तक नहीं टूटी। स्कूलों पर लटके ताले और एकल शिक्षकों के भरोसे चल रहे सरकारी स्कूल अपने निम्न गुणवत्ता के कारण पलायन की बड़ी वजह बने रहे। लोगों ने चुपचाप अपने बच्चों को शहरों में पढ़ाने के लिए पलायन कर लिया, किंतु शिक्षा का सवाल न शिक्षकों से पूछा और न नेताओं से। जाहिर है कि इन चुनावों में भी ये सवाल उठाए ही नहीं गए तो इनके जवाब मिलने का सवाल भी नहीं उठता।
कैसे बचेंगे गांव?
पहाड़ से होते जा रहे पलायन की एक वजह नहीं है। गांवों में खेती किसानी समाप्त होती जा रही है, उत्पादकता कम हो रही है, फिर भी जो खेती की जा रही है, जंगली जानवर उसे चौपट कर रहे हैं। गांवों शिक्षा, स्वास्थ्य की हालत बदतर है। स्थानीय संसाधनों पर आधारित रोजगार को बढ़ाने की व्यवस्था नहीं की जा रही है। इसलिए गांवों को बचाने के लिए- गांव केंद्रित शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए। गांव तक स्वास्थ्य सेवाएं समुचित रूप से पहुंचे। स्थानीय संसाधनों पर आधारित रोजगार, ग्राम पंचायतों का सशक्तिकरण किया जाए। आपदा प्रबंधन का ढांचा मजबूत किया जाए। चूंकि गैरसैंण पूरे पहाड़ का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए सरकार गैरसैंण पर भ्रम बनाए रखने के बजाय स्थिति स्पष्ट करे। गांवों के विकास का रोडमैप तैयार कर प्रस्तावित बजट का 70 प्रतिशत धन गांवों में खर्च किया जाए।