बड़ी ताकत अपने साथ बड़ी जिम्मेदारियां भी लेकर आती हैं। प्रचंड जनादेश के कंधों पर सवार मुख्यमंत्री के सामने प्रदेश को खस्ता आर्थिक हालात से उबारकर आर्थिक और भौगोलिक हाशिये पर खिसके आम आदमी तक मूलभूत सुविधाओं की राहत पहुंचाने की अहम चुनौतियां खड़ी हैं।
जयसिंह रवत
विधानसभा चुनाव में प्रचण्ड बहुमत मिलने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में भाजपा ने उत्तराखंड में सरकार तो बना ली, मगर उनके लिए जनता के इतने भारी भरकम विश्वास पर खरा उतरना भी एक चुनौती बन गया है। एक तो पहाड़ की पहाड़ जैसी समस्याएं और ऊपर से चुनावी वायदे इतने कि उन्हें पूरा करते-करते किसी मुख्यमंत्री की उम्र ही गुजर जाये। चुनावी वायदों और प्रदेश के विकास की जरूरतें पूरी करने के लिए धन की आवश्यकता होती है और सरकारी तिजोरी खाली पड़ी हुई है।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को जितनी आसानी से प्रदेश के शासन की कमान हाथ लगी, उतनी आसान उनकी राहें नजर नहीं आ रही हैं। चूंकि पार्टी को प्रचंड बहुमत हासिल होने के साथ ही मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र के सिर पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का हाथ भी है, इसलिए वह पार्टी और सरकार की घरेलू समस्याओं से तो निपट ही लेंगे, मगर प्रदेश की समस्याओं और विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें भारी मशक्कत करनी पड़ेगी।
खाली खजाना बड़ी चुनौती
सबसे बड़ी चुनौती उनके सामने खजाने के लगभग खाली होने की होगी। राज्य पर कर्ज का बोझ 41 हजार करोड़ तक पहुंच गया है। पिछले बजट में उस कर्ज की केवल ब्याज अदायगी के लिए 3896 करोड़ की राशि रखी गयी थी। पिछले दिनों सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने के लिए रिजर्व बैंक से कर्ज उठाना पड़ा। रिजर्व बैंक से भी कर्ज लेने की एक सीमा होती है। कई बार राज्य सरकार को फौरी जरूरतें पूरी करने के लिए बाजार से कर्ज उठाना पड़ता है। प्रदेश के लगभग 40422 करोड़ के वर्तमान बजट में लगभग 18 हजार करोड़ की रकम वेतन और पेंशन पर ही चली गयी। अभी-अभी सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुई हैं। प्रदेश के 2,31,835 राजपत्रित और अराजपत्रित कर्मचारियों को बढ़े हुए वेतनमान देने से राज्य पर फिलहाल लगभग 3200 करोड़ का बोझ बढ़ गया है। इनके अलावा लगभग 60 हजार निगम कर्मचारी भी सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार वेतन मांग रहे हैं। इनमें से ज्यादातर निगम घाटे में चल रहे हैं। भाजपा ने संविदा पर काम कर रहे लगभग 18 हजार अस्थाई कर्मचारियों को नियमित करने का वायदा कर रखा है। पिछली सरकार जाते-जाते इतनी योजनाएं शुरू की गई कि उन्हें जारी रखना भी एक चुनौती है। कल्याणकारी योजनाओं के तहत गैर सरकारी पेंशनधारियों की संख्या ही 7 लाख तक पहुंच गयी। उन्हें पेंशन दो तो मुसीबत और न दो तो भी मुसीबत। देखा जाए तो हरीश रावत ने नई सरकार के लिए नई कल्याणकारी योजनाओं के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़़ी है। इस हिसाब से आने वाला बजट 50 हजार करोड़ पार कर सकता है, जबकि राज्य का अपना राजस्व 10-12 हजार करोड़ से अधिक नहीं है। केंद्रीय करों में हिस्सेदारी को मिला कर वर्ष 2016-17 के बजट में लगभग 18 हजार करोड़ की कर राजस्व प्राप्तियों का अनुमान था।
गैरसैंण पर गैरजिम्मेदारी
प्रदेश की स्थाई राजधानी का मामला इतना पेचीदा है कि हरीश रावत सरकार ने गैरसैंण के निकट भराड़ीसैंण में विधानसभा भवन जैसा राजधानी का ढांचा तो खड़ा कर दिया, मगर उसे उसका स्थाई या ग्रीष्मकालीन राजधानी का जैसा नामकरण करने से वह कतरा गये। स्थिति की जटिलता को देखते हुए भाजपा ने अपने दृष्टिपत्र में राजधानी के मसले को जलेबी की तरह घुमा रखा था, लेकिन बाद में कर्णप्रयाग सीट के लिए अलग से चुनाव हुए तो सीट जीतने के लिए उसे ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का वायदा करना पड़ा।
हर साल यहां हजारों लोगों को मारने वाली केदारनाथ की जैसी कोई बड़ी आपदा न होने पर भी सौ से अधिक लोग बादल फटने, भूस्खलन और त्वरित बाढ़ जैसी घटनाओं में मारे जाते हैं और सैकड़ों अन्य घायल होने के साथ ही बेघर हो जाते हैं। पिछली बार तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने आपदा की दृष्टि से संवेदनशील लगभग 370 गावों को अन्यत्र बसाने के लिए प्रधानमंत्री से 10 हजार करोड़़ की मदद मांगी थी, जो कि नहीं मिली।
राज्य में जिन लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप स्वयं भाजपा लगाती रही, उन्हीं की सत्ता में ताजपोशी करनी पड़ी है। ऐसे में कैसे भ्रष्टाचार दूर होगा, यह भी विचारणीय प्रश्न है।
वायदों का बोझ
त्रिवेन्द्र रावत सरकार के सामने गत विधानसभा चुनावों में किये गये लम्बे-चौड़े वायदों से निपटना भी एक गंभीर चुनौती होगी। भाजपा के उस दृष्टिपत्र में कुल मिलाकर 148 वायदे किये गये थे। विपक्षी कांग्रेस सरकार को बार-बार उन वायदों की यादें दिला कर सताती रहेगी, क्योंकि इतने सारे वायदे पूरे करना किसी भी सरकार के बस की बात नहीं है। वित्तीय तंगी और ‘पैंडोराज बॉक्सÓ के खुलने के डर से पूर्व में घोषित किये गये चार जिलों का गठन तो अभी तक संभव नहीं हो पाया और उस पर भाजपा ने चार अन्य जिलों के गठन का वायदा कर दिया। भाजपा के दृष्टि पत्र में शिक्षा नीति की समीक्षा कर उसे वैश्विक परिदृष्य के हिसाब से ढालने के लिए मेधावी छात्रों के लिए मुफ्त में लैपटॉप व स्मार्ट फोन, निशुल्क शिक्षा, हजारों अस्थायी कर्मियों के समायोजन, रिक्त पदों पर तैनाती, छात्राओं के लिए आवासीय विद्यालय, चिकित्सा सेवाओं के विस्तार के लिए सचल चिकित्सा सेवा, टेली मेडिसिन, नए मेडिकल कॉलेजों की स्थापना, बीपीएल के लिए स्वास्थ्य कल्याण कार्ड, ट्रॉमा सेंटर स्थापित करने, सस्ती दवाओं के केंद्र और एयर एंबुलेंस शुरू करने के वायदे भी किये गये थे। हालांकि पहाड़ के लोगों को अभी जमीन पर चलने वाली एंबुलेंस भी नहीं मिल पाती है।
उस दृष्टिपत्र में पर्यटन और तीर्थाटन के तहत भाजपा ने वीर चंद्रसिंह गढ़वाली स्वरोजगार योजना का दायरा बढ़ाने, मेडिकल टूरिज्म, लोक कलाकारों के प्रोत्साहन, पर्यटन गाइड प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना, विपणन केंद्रों और कोल्ड स्टोरेज, ब्याजमुक्त फसली ऋण, उपभेक्ताओं को 24 घंटे बिजली, रियायती दर पर बिजली, नियमित हवाई सेवा, सड़कों का विकास आदि का वायदा किया गया था।
राज्य की माली हालत इतनी पतली हो चुकी है कि इतने अधिक वायदों का एक छोटा सा हिस्सा भी पूरा करना आसान नहीं है। अगर वायदा खिलाफी हो गई तो 2019 के लोकसभा चुनाव में जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। उससे पहले इस सरकार को त्रिस्तरीय पंचायत और नगर निकाय चुनावों का सामना भी करना है। वोट बटोरने के लिए भाजपा वायदों की झड़ी तो लगा गई, मगर अब उनको पूरा करना उसे भारी पड़ रहा है।