भूपेंद्र कुमार//
जानिए कैसे जीरो टॉलरेंस का फटा ढोल
निजी संस्था को फ्री मे लुटाई जमीन
अफसरों की सभी आपत्तियों को कैबिनेट बुला कर किया किनारे
ग्रामसभा की अनापत्ति, जिलाधिकारी का प्रमाण पत्र, वित्त तथा राजस्व के अफसरों के विरोध को भी किया ओवररूल नजरअंदाज
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इसी सप्ताह तमाम नियम-कायदों और सचिवालय के अफसरों की तमाम आपत्तियों के बावजूद एक निजी संस्था को 0.1540 हेक्टेयर भूमि निशुल्क आवंटित कर दी।
कायदे-कानूनों के अनुसार इस संस्था को भूमि दी ही नहीं जा सकती थी। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने 1 सप्ताह पहले ही पूर्व सैनिकों की एक संस्था के नाम पर अमर सिंह गोसाईं को यह भूमि निशुल्क आवंटित की है।
यह व्यक्ति मुख्यमंत्री की उसी रायपुर विधानसभा का निवासी है जहाँ से उन्होने वर्ष 2012 का चुनाव लड़ा था किंतु हार गए थे इस व्यक्ति को भूमि भी रायपुर गांव देहरादून में दी गई है।
वर्ष 2011 में भी इस व्यक्ति ने असम राइफल के पूर्व सैनिकों की एक संस्था के नाम पर भूमि आवंटित कराए जाने के लिए कोशिश की थी। उस समय भी प्रदेश में भाजपा का ही शासन था। तब मुख्यमंत्री खंडूड़ी का दूसरा कार्यकाल था और वह भगत सिंह कोश्यारी के रिमोट कंट्रोल पर काम कर रहे थे। त्रिवेन्द्र तब कोश्यारी के खास थे और रायपुर से ही अगला चुनाव लड़ने जा रहे थे।तत्कालीन भाजपा सरकार ने इस व्यक्ति को तब आचार संहिता से चंद रोज पहले 14 दिसंबर 2011 को यह भूमि पट्टे पर आवंटित की थी। आचार संहिता नजदीक देख कर अफसरों ने बचने के लिए इसके साथ यह साफ-साफ शर्त रखी थी कि भूूूूमि निशुुुल्क नही दी जाएगी।साथ ही शासनादेश में एक और बात जोड़ दी थी कि
3 वर्ष के अंदर-अंदर यदि भूमि का उपयोग नहीं होता तो यह भूमि स्वतः ही निरस्त हो जाएगी।
इस व्यक्ति ने वर्ष 2011 से लेकर अब तक उस भूमि पर कुछ भी निर्माण नहीं किया। राजस्व अभिलेखों के अंतर्गत वह भूमि श्रेणी 5(3) ग के अंतर्गत साल के जंगल के रूप में दर्ज है। भाजपा की सरकार आने पर 4 जुलाई 2017 को अमर सिंह नाम के व्यक्ति ने खुद को आसाम राइफल पूर्व सैनिक कल्याण समिति का प्रदेश अध्यक्ष बताते हुए दोबारा से मुख्यमंत्री को वही जमीन निशुल्क आवंटित करने का अनुरोध किया।
मुख्यमंत्री को भले ही धीमी गति से सरकार चलाए जाने के लिए पूरे प्रदेश भर में कोसा जा रहा हो किंतु इस भूमि को आवंटित करने में इतनी तेजी दिखाई गई कि संभवतः मुख्यमंत्री के पूरे कार्यकाल में अभी तक किसी अन्य प्रकरण में ऐसी तेजी परिलक्षित नहीं हुई होगी।
राजस्व विभाग ने अपनी इस भूमि के आवंटन को लेकर कड़ा एतराज जताया था और मुख्यमंत्री को साफ-साफ लिख दिया था कि असम राइफल नाम से यह संगठन एक निजी संस्था है। और संस्था को निशुल्क जमीन दिए जाने से यह अन्य निजी संस्थाओं के लिए भी एक नजीर बन सकती है। साथ ही राज्य को राजस्व हानि भी उठानी पड़ेगी। इस प्रकार निजी संस्था को भूमि का नजराना माफ किया जाना उचित प्रतीत नहीं होता। राजस्व विभाग के अपर सचिव जेपी जोशी से लेकर राजस्व के संयुक्त सचिव, अनुसचिव तथा राजस्व सचिव के साथ ही वित्त सचिव ने भी संस्था को निशुल्क भूमि दिए जाने का घोर विरोध किया था।
मुख्यमंत्री ने जब कोई रास्ता नहीं देखा तो सीधे कैबिनेट से निर्णय करवाकर संस्था को निशुल्क भूमि आवंटित कर दी। इस प्रकार 25 अगस्त 2017 को इस संस्था को राजस्व विभाग के प्रभारी सचिव हरबंस सिंह चुघ के हस्ताक्षर से भूमि आवंटित कर दी गई ।
पर्वतजन के पास उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार यदि इस मामले की जांच हुई तो सचिवालय के आला अधिकारियों के साथ- साथ मुख्यमंत्री पर भी इस निर्णय की गाज गिर सकती है।
जमीन आवंटन पर सवाल कई
पहला सवाल यह है कि अगस्त 2017 में शासन की रिपोर्ट के अनुसार इस संस्था को भूमि दिए जाने के लिए पहले वर्ष 2011 के सर्किल रेट के आधार पर 5500000 रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से 8,87000 रुपए भूमि का मूल्यांकन निर्धारित किया गया था। जबकि हकीकत यह है कि वर्ष 2011 के बाद से कई बार उस इलाके के सर्किल रेट संशोधित हो चुके हैं तो फिर अगस्त 2017 को आवंटन करते समय 2011 के सर्किल रेट के आधार पर उक्त भूमि का मूल्य किसके इशारे पर निर्धारित किया जा रहा था ?
दूसरा सवाल अपने आप में एक गंभीर सवाल है कि इस भूमि का आवंटन करते समय विभिन्न शासनादेशो के अनसार इस भूमि के सर्किल रेट से दोगुने की दर से निकाले गए भूमि के मूल्य के बराबर नजराना एकमुश्त जमा कराए जाने के अतिरिक्त नई दरों पर निकाली गई मालगुजारी के 20 गुने के बराबर वार्षिक किराया निर्धारित किया जाना चाहिए था ।अफसरों ने यह आवश्यक बताया था। किंतु मुख्यमंत्री के दबाव में भूमि निशुल्क क्यों दे दी गई?
तीसरा सवाल यह है कि वर्ष 2011 में भूमि आवंटन के शासनादेश में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि भूमि के उपयोग के लिए 3 वर्ष का समय निर्धारित था।तत्पश्चात आवंटन स्वतः निरस्त हो जाना था तो फिर किसके दबाव में भूमि का यह आवंटन निरस्त नहीं किया गया? जाहिर है कि इसके पीछे मुख्यमंत्री का ही दबाव था।
चौथा सवाल यह है कि जब उक्त भूमि अभिलेखों के अनुसार श्रेणी 5(3)ग के अंतर्गत साल के जंगल के रूप में अभिलेखों में दर्ज है तो फिर उक्त भूमि के आवंटन के लिए वन विभाग से परामर्श क्यों नहीं किया गया?
पांचवा सवाल यह है कि उक्त भूमि के आवंटन के लिए राजस्व विभाग के विभिन्न शासनादेशों के अनुसार ग्रामसभा की अनुमति तथा अनापत्ति के साथ-साथ लैंड मैनेजमेंट कमेटी की भी अनापत्ति ली जानी चाहिए थी लेकिन यह अनापत्ति क्यों नहीं ली गई। सवाल यह है कि ग्राम सभा की भूमि को पट्टे पर आवंटित करने के लिए ग्राम सभा का सहमति पत्र भी जरूरी होता है। लेकिन इस संस्था को भूमि देते हुए ग्राम सभा का ऐसा कोई सहमति पत्र नहीं लिया गया।
पूर्व मे ऐसे ही एक जमीन हरिद्वार के थथोला गांव में बिना ग्राम सभा की अनुमति के गोल्ड प्लस फैक्ट्री को भ्रष्ट नौकरशाह तथा तत्कालीन हरिद्वार के जिलाधिकारी आर के सुधांशु ने सौंप दी थी। इसकी जांच तत्कालीन लोकायुक्त एस एच ए रजा ने की थी और सुधांशु के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्यवाही करने की संस्तुति की थी।
उस समय तत्कालीन प्रमुख सचिव राजस्व एनएस नपलच्याल ने लोकायुक्त से माफी मांगते हुए भविष्य में ऐसा न करने की दुहाई दी थी ,साथ ही सभी जिलाधिकारियों को पत्र लिखकर भविष्य में ग्राम सभाओं की सहमति के बाद ही भूमि लीज पर दिए जाने की अनिवार्यता कर दी थी। किंतु इस केस में अधिकारियों ने फिर से वही गलती दोहरा दी है।
छटा सवाल यह है कि इस भूमि के आवंटन से पहले देहरादून के जिलाधिकारी का प्रमाण पत्र भी आवश्यक रूप से लगाना होता है। जब कई बार मांगने पर भी जिलाधिकारी ने अपना प्रमाण पत्र नहीं लगाया तो फिर बिना जिलाधिकारी के प्रमाण पत्र के इस भूमि का आवंटन वैसे भी अवैध था। ऐसे में भूमि का आवंटन सीधे मुख्यमंत्री द्वारा कैसे कर दिया गया?
इन छह यक्ष प्रश्नों के उत्तर यदि सरकार के पास नही है तो कानूनी रुप से इस भूमि को आवंटित करने के लिए मुख्य सचिव तथा राजस्व सचिव से लेकर मुख्यमंत्री तक सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं ।
एक और कमाल की बात देखिए कि भूमि को आवंटित करने के लिए सीएम का दबाव इतना अधिक था कि 9 तारीख की कैबिनेट बैठक में संस्था को निशुल्क भूमि आवंटन का विषय रखा जाना था। इसलिए सिटुरजिया भूमि घोटाले की तर्ज पर एक ही दिन 8 अगस्त 2017 को उपसचिव चंदन सिंह रावत, अपर सचिव जेपी जोशी,जीएस त्यागी , अनुभाग अधिकारी राजेंद्र प्रसाद जोशी से लेकर राजस्व विभाग के प्रभारी सचिव हरबंस सिंह चुघ जैसे तमाम अधिकारियों के हस्ताक्षर भी एक ही दिन में करा दिए गए। जीरो टॉलरेंस की सरकार में एक ही दिन में इतने अधिकारियों के हस्ताक्षर जैसा उदाहरण दुर्लभ ही होगा।
इस भूमि के आवंटन में जिलाधिकारी की राय और वित्त विभाग के परामर्श की सीधे-सीधे अनदेखी किसी बड़े घोटाले की तरफ चीख-चीखकर शोर करती है।
राजस्व सचिव हरबंस सिंह चुघ ने 2 अगस्त 2017 को इस बात पर सवाल खड़े किए थे कि जब संस्था को जमीन उपयोग करने के लिए 3 साल की वैलिडिटी एक्सपायर हो गई है तो फिर यह आवंटन निरस्त क्यों नहीं किया गया?
मुख्यमंत्री ने सचिव की आपत्तियों का कोई संज्ञान नहीं लिया। जब यह मामला 9अगस्त 2017की कैबिनेट में लाया जाना था तो कैबिनेट को भेजी गई अपनी कैबिनेट टिप्पणी में प्रभारी सचिव हरबंस सिंह चुघ तथा वित्त सचिव अमित नेगी ने साफ लिखा कि इस संस्था को जमीन निशुल्क बिल्कुल नहीं दी जानी चाहिए।उन्होंने यह भी लिखा कि यह राज्य के हितों के विपरीत होगा तथा अन्य लोगों के लिए भी एक गलत उदाहरण के रूप में स्थापित होगा। किंतु मुख्यमंत्री ने सभी अधिकारियों की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया।
सातवाँ सवाल यह है कि ऐसे में यदि जीरो टॉलरेंस की जुमलेबाजी करने वाले मुख्यमंत्री को अपनी ही मनमर्जी करनी है तो लाखों रुपए की तनख्वाह पर सचिवालय में अफसरों का जमावड़ा किसलिए लगा रखा है?
इससे बेहतर तो यही होगा की मुख्यमंत्री अपने चंद चहेते सलाहकारों के साथ अपनी मर्जी से मनमाने निर्णय लें।
ऐसे में सचिवालय की जरूरत ही क्या है ?
जाहिर है कि यदि भविष्य में मुख्यमंत्री द्वारा की गई इस मनमानी पर सवाल खड़े होते हैं तो मुख्यमंत्री पिछली सरकारों में किए गए घोटालों को अपने बचाव मे ढाल की तरह इस्तेमाल करना चाहेंगे। यदि उन्हें दूसरी सरकारों को ज्यादा बड़ा चोर बताते हुए अपना बचाव करना है तो फिर यह जीरो टॉलरेंस का तमगा लटकाने की भी जरूरत नहीं है! साफ कह देना चाहिए कि सत्ता का चरित्र एक जैसा होता है और हमाम में सभी नंगे हैं।जीरो टोलरेंस सिर्फ जुमला था।
प्रिय पाठकों! यदि आपने इतना सबकुछ पढ लिया है तो आप निश्चित ही गंभीर तथा संभ्रांत नागरिक हैं। धैर्यपूर्वक पढने के लिए आभार! कृपया इस रिपोर्ट के लिंक को अधिक से अधिक वट्स एप ग्रुप तथा फेसबुक मित्रो में शेयर कीजिये ताकि एक दबाव बने तथा त्रिवेन्द्र रावत जी की सरकार को “हरदा पार्ट-टू” बनने से रोका जा सके।