कुछ राज्यों में संसदीय सचिवों के पदों को लाभ की श्रेणी में माना गया है तो कुछ राज्यों में ये पद लाभ की श्रेणी के दायरे से बाहर रखे गए हैं। यह संविधान के प्राविधानों का सरासर राजनीतिक दुरुपयोग है।
जयसिंह रावत
राष्ट्रपति भवन द्वारा दिल्ली सरकार में संसदीय सचिव पद को लाभ की श्रेणी से बाहर निकालने संबंधी विधेयक को नामंजूर किये जाने से संविधान की मूल भावना के विपरीत उसके विभिन्न प्रावधानों का राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए दुरुपयोग किये जाने और राजनीतिक दोमुंहे और दोगलेपन का भी पर्दाफाश हो गया है। संविधान के प्रावधानों का स्वार्थ सिद्धि के लिए दुरुपयोग का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि जो संसदीय सचिव दिल्ली, गोवा और पश्चिम बंगाल में लाभ की श्रेणी में माने गये हैं, वे उत्तराखंड जैसे कई राज्यों में वैधानिक रूप से अलाभकारी घोषित किये गये हैं। जो भाजपा दिल्ली और उत्तराखंड में इन पदों पर नियुक्ति को संविधान की मूल भावना का उल्लंघन मान रही है, उसे यह उल्लंघन भाजपा शासित प्रदेशों में नजर नहीं आ रहा है। भाजपा यह भी भूल गयी है कि उत्तराखंड में सबसे पहले 7 संसदीय सचिवों की नियुक्ति के साथ ही यह संवैधानिक पाप उसी के कार्यकाल में शुरू हुआ था। भाजपा के उसी पाप का रसपान अब उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार कर रही है। संसदीय सचिव का जो पद संविधान के अनुच्छेद 191 के तहत दिल्ली, गोवा और पश्चिम बंगाल में लाभ का पद माना जा सकता है, वही पद उसी अनुच्छेद के तहत देश के अन्य राज्यों में अलाभकारी कैसे हो सकता है? वास्तव में सवाल केवल लाभ के पद के दायरे में आने का नहीं है।
संविधान के अनुसार विधायिका के सदस्य मंत्री पद के अलावा सरकार के किसी भी लाभ के पद को स्वीकार नहीं कर सकते। यह बंदिश संसद के दोनों सदनों के सदस्यों के लिए अनुच्छेद 102 में तथा विधान सभा के सदस्यों के लिये अनुच्छेद 191 में रखी गयी हैं। इसके पीछे संविधान निर्माताओं की भावना यह थी कि केन्द्र या राज्य की सरकारें विधायिका (सदन) के प्रति जवाबदेह होती हैं। इसी जवाबदेही के तहत विधायिका के सदस्य सदन में सरकार का जवाब तलब करते हैं तथा उसके कार्यों की समीक्षा कर उसका भविष्य तय करते हैं। इसलिए उन्हें सरकार से ऐसा लाभ का पद स्वीकारने की मनाही है, जिससे सरकार के प्रति सदस्य की राय या उसके निर्णय प्रभावित हों। वैसे भी सदस्यों को वेतन-भत्ते, यातायात और आवास जैसी काफी सुविधाएं मिल जाती हैं, इसलिए यह अपने आप में ही भारी लाभ का पद होता है।
संविधान के इन्हीं दो अनुच्छेदों में यह प्रावधान भी रखा गया है कि विधायिका बहुमत से लाभ के दायरे में माने जाने वाले कुछ पदों को इस परिभाषा के दायरे से बाहर निकाल सकती है। इस प्रावधान का प्रयोग सत्ता में आने वाले राजनीतिक दल अपनी सहूलियतों के हिसाब से समय-समय पर करते रहे हैं।
सन् 2004 में जया बच्चन के मामले में उत्तर प्रदेश फिल्म विकास परिषद का अध्यक्ष पद और 2006 में सोनिया गांधी के मामले में राष्ट्रीय विकास परिषद का अध्यक्ष पद लाभ के पद के दायरे से बाहर निकाला जा चुका है। उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस की सरकारें कई खेपों में अब तक विधानसभा से कुल 93 पदों को लाभ के पद के दायरे से बाहर निकलवा चुकी हैं। प्रश्न यह है कि दिल्ली के संसदीय सचिव अगर मंत्री के ही समान हैं और मंत्री के समान होने के नाते उनकी नियुक्ति से संविधान के 91वें संशोधन के प्रावधानों का उल्लंघन होता है तो देश के अन्य राज्यों में जहां संसदीय सचिवों समेत अनेक संविधानेत्तर पदों का सृजन किया गया है, वहां संविधान का उल्लंघन क्यों नहीं हो रहा है? हालांकि दिल्ली के संसदीय सचिव अतिरिक्त वेतन भत्ते नहीं पा रहे हैं। मगर उन्हें कार, ड्राइवर जैसी सुविधाएं तो मिल ही रही हैं। कुछ नहीं तो मंत्री जैसा रुतबा तो मिल ही रहा है। क्या रुतबा पाना लाभान्वित होना नहीं है? वैसे भी संविधान में लाभ के पद वाली बंदिश के पीछे भावना यह थी कि सदस्य सरकार से उपकृत होकर सरकार के पक्ष में प्रभावित न हो जाए, लेकिन बाकी राज्यों में तो संसदीय सचिव धड़ल्ले से उन तमाम सुविधाओं को भोग रहे हैं जो कि मंत्री भोगते हैं। उत्तराखंड जैसे राज्यों में उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया है। सवाल उठता है कि अगर विधानसभा या संसद रात को दिन और दिन को रात घोषित करने के लिये कानून बना दे तो क्या दिन और रात की यही नई परिभाषा मान ली जाये?
संसदीय लोकतंत्र में विधायिका के पास विधान बनाने के असीमित अधिकार होते हैं, लेकिन ये अधिकार विधि निर्माताओं को अपने हित के लिए नहीं बल्कि देश और समाज के हित के लिये दिये गये हैं, लेकिन दिल्ली समेत विभिन्न राज्यों में जिस तरह विधानसभाओं के सदस्यों के वेतन भत्ते और तमाम अन्य सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं तथा सत्ताधारियों के राजनीतिक हितों को साधने वाले कानून बन रहे हैं। उसे देखकर तो यही लग रहा है कि इस कलयुग में वृक्ष अपने फल स्वयं खाने लग गये तथा नदियां अपना जल स्वयं ही पीने लग गयी हैं। वह इसलिये हो रहा है, क्योंकि जो मांगने वाले हैं, वही देने वाले भी हैं। वरना केजरीवाल या किसी भी अन्य दल के मुख्यमंत्री की क्या मजाल थी कि मंत्रियों के जैसे ठाठ-बाट और रुतबे वाले संसदीय सचिव पद को विधानसभाओं से गैरलाभकारी पद घोषित करा दें। उत्तराखंड में तिवारी से लेकर भुवनचन्द्र खंडूड़ी, रमेश पोखरियाल निशंक और फिर विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री रहते हुए संसदीय सचिव सहित 93 ऐसे पद विधानसभा से अलाभकारी घोषित करा दिए, जिनके वेतन भत्तों, आवास, कार्यालय, स्टाफ और कारों पर सरकार को हर साल 30 से लेकर 40 करोड़ रुपये खर्च होते हैं।
भारत सरकार के कानून मंत्रालय को दिल्ली सरकार में संसदीय सचिवों की नियुक्ति इसलिए संविधानेत्तर नजर आई, क्योंकि वे नियुक्तियां मोदी सरकार को दिन-रात गरियाने वाले केजरीवाल ने की थीं। अगर दिल्ली में ‘आपÓ के बजाय भाजपा की सरकार होती तो क्या तब भी विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को संविधान की भावना के विपरीत माना जाता। अन्य राज्यों की तरह अगर दिल्ली भी पूर्ण राज्य होता तो यह विधेयक राष्ट्रपति के बजाय राज्यपाल के पास चला जाता और वहां से आसानी से पास भी हो जाता। बाकी राज्य भी राजनीतिक रेवडिय़ां बांटने के लिए यही कर रहे हैं।
कुछ राज्यों में इस तरह की सविधानेत्तर नियुक्तियों पर अंकुश लग गया है। कलकत्ता हाइकोर्ट ने विशाल भट्टाचार्य बनाम पश्चिम बंगाल सरकार (2005) वाले फैसले में साफ कहा है कि विधायकों की संसदीय सचिव के रूप में नियुक्ति करना संविधान में मंत्रिमंडल के सदस्यों की अधिकतम सीमा के निर्धारण के प्रावधान को बाइपास करना या उससे बच कर निकलने का उपक्रम ही है। गोवा में भी संसदीय सचिव पद को मंत्री के समान मानकर सरकार के फैसले को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है। उत्तराखंड में भाजपा इस मामले का नैनीताल हाइकोर्ट में अवश्य ले गई, मगर ऐन मौके पर उसने कदम पीछे खींच लिए, क्योंकि वह ऐसे कृत्य में शामिल रही है और आगे भी सत्ता में आने पर उसे यही सब कुछ करना है। उत्तराखंड में 2010 में भाजपा की ही सरकार ने 7 संसदीय सचिवों को नियुक्त कर तथा उन्हें मंत्री का दर्जा देकर यह परंपरा डाली थी, लेकिन जब हरीश रावत ने कांग्रेस के विधायकों को पटाने के लिए उन्हें रेवडिय़ों की तरह संसदीय सचिव पद बांट लिए तो भाजपा को उसमें संवैधानिक पाप नजर आने लगा और उसके वरिष्ठ नेता तथा पूर्व कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत ने इन नियुक्तियों को नैनीताल हाइकोर्ट में चुनौती दे डाली। इस कानूनी चुनौती को मंजिल तक नहीं पहुंचाया जाना था, क्योंकि अगली बार सत्ता में आने पर विधायकों को खुश रखने और सत्ता की बंदरबांट के लिए यही संवैधानिक पाप भाजपा को भी करना है, इसलिए प्रकाश पन्त ने इस याचिका को हाइकोर्ट में अपनी मौत मरने के लिए लावारिश छोड़ दिया। संविधान इस पद की नियुक्ति के लिये मनाही तो नहीं करता है, मगर संविधान का 91वां संशोधन मंत्रिमंडल सदस्यों की अधिकतम सीमा तय करता है। इसलिए अगर इन पदों को मंत्री का जैसा ही पद मान लिया जाता है तो इनकी नियुक्ति से मंत्रिमंडल का आकार वर्जित सीमा तक पहुंच जाता है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में सचिवालय अनुदेश 1982 के अनुच्छेद 7 की धारा 52 से लेकर 61 तक में संसदीय सचिवों को मंत्रियों का ही दर्जा दिया गया है और विधायिका के कुल सदस्यों के 15 प्रतिशत से अधिक मंत्रिमंडल के सदस्यों की संख्या नहीं हो सकती है। छोटे राज्यों के लिए मुख्यमंत्री समेत मंत्रिमंडल के सदस्यों की अधिकतम सीमा 12 है।
संविधान के 69वें संशोधन के तहत जोड़े गये अनुच्छेद 239 कक और 239 कख के तहत दिल्ली विधानसभा की सदस्य संख्या के अनुरूप वहां के मंत्रिमंडल की संख्या 6 से अधिक नहीं हो सकती है और केजरीवाल ने 6 मंत्रियों के अतिरिक्त मंत्री जैसे ओहदे वाले 21 संसदीय सचिव नियुक्त कर दिये थे।
यह सही है कि विधानसभाओं को अनुच्छेद 191 तथा संसद को अनुच्छेद 102 के तहत इस बंदिश के साथ ही कुछ पदों को लाभ की श्रेणी से बाहर निकालने हेतु विधेयक पारित करने का अधिकार अवश्य है, लेकिन इस प्रावधान का दुरुपयोग किये जाने से संविधान के 91वें संशोधन की मूल भावना का अतिक्रमण अवश्य हो रहा है।
स्मरणीय है कि जब 1998 में कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और बसपा के सभी बागियों को अपने साथ मिलाने के लिये उन सबको मंत्री बनाना पड़ा तो उनके मंत्रिमंडल की संख्या 92 तक पहुंच गयी थी, जो कि तब तक का सबसे बड़ा मंत्रिमंडल था। गठबंधन सरकारों का युग पैर पसारने लगा तो राज्यों में सरकारें बचाने और बनाने के लिए मंत्रिमंडलों का आकार बेसुमार बढऩे लगा। इस स्थिति पर नियंत्रण के लिए बाजपेयी सरकार ने चुनाव सुधारों की श्रृंखला में मंत्रिमंडल का आकार तय करने के लिए संविधान में 91वां संशोधन 2003 में संसद से पारित कराया और राष्ट्रपति द्वारा इसकी अधिूसचना 7 जनवरी 2004 को जारी की गयी। जिसमें लोकसभा और विधानसभाओं में कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत तक ही मंत्रिमंडल की सदस्य संख्या सीमित कर दी गयी। छोटे राज्यों के लिये यह सीमा 12 तय की गयी। चूंकि दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं है, इसलिये उसके मंत्रियों की संख्या मात्र 6 तक ही सीमित की गयी। मगर राज्य सरकारों ने संवैधानिक प्रावधानों को बाइपास कर हजारों की संख्या में संविधानेत्तर पदधारी बनाने शुरू कर दिये। इनमें विभिन्न राज्यों में बने संसदीय या सभा सचिव भी शामिल हैं। अगर इस तरह के विवादों का समाधान निकालना है तो संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 के छेद बंद कर संविधान के 91वें संशोधन में भी सुधार करना होगा।
उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस की सरकारें कई खेपों में अब तक विधानसभा से कुल 93 पदों को लाभ के पद के दायरे से बाहर निकलवा चुकी हैं। प्रश्न यह है कि दिल्ली के संसदीय सचिव अगर मंत्री के ही समान हैं और मंत्री के समान होने के नाते उनकी नियुक्ति से संविधान के 91वें संशोधन के प्रावधानों का उल्लंघन होता है तो देश के अन्य राज्यों में जहां संसदीय सचिवों समेत अनेक संविधानेत्तर पदों का सृजन किया गया है, वहां संविधान का उल्लंघन क्यों नहीं हो रहा है?
उत्तराखंड में तिवारी से लेकर भुवनचन्द्र खंडूड़ी, रमेश पोखरियाल निशंक और फिर विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री रहते हुए संसदीय सचिव सहित 93 ऐसे पद विधानसभा से अलाभकारी घोषित करा दिए, जिनके वेतन भत्तों, आवास, कार्यालय, स्टाफ और कारों पर सरकार को हर साल 30 से लेकर 40 करोड़ रुपये खर्च होते हैं।