गजेंद्र रावत
भाजपा विधान मंडल दल की बैठक के दौरान जब भाजपा विधायक अपने-अपने क्षेत्रों की मांगों को प्रमुखता से उठाने लगे तो त्रिवेंद्र सिंह रावत ने ऐलान किया कि शरीर का संपूर्ण रूप से स्वस्थ रहना आवश्यक है। उनके लिए उत्तराखंड की सभी 70 विधानसभाओं के आम जनमानस समान हैं। वे शीघ्र ही लोक निर्माण विभाग द्वारा 700 करोड़ रुपए की सड़कों के प्रस्ताव स्वीकृत कर रहे हैं और प्रत्येक विधानसभा में 10 करोड़ रुपए स्वीकृत किए जाएंगे।
वर्तमान के ट्वेंटी-२० और वनडे के जबर्दस्त क्रेज के बीच उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल की शुरुआत पांच दिवसीय टेस्ट मैच की भांति शुरू की तो वो आलोचनाओं के घेरे में आ गए। त्रिवेंद्र रावत से एक दिन बाद शपथ लेने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पहली बॉल से ही आक्रामक बैटिंग कर त्रिवेंद्र रावत को और दबाव में ला दिया। शुरुआत के १५ दिनों में उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश में योगी के अलावा कुछ भी और सुनने को नहीं मिला। अगले १५ दिनों में यह दबाव और तेजी से बढऩे लगा तो त्रिवेंद्र रावत ने अपने गृह जनपद पौड़ी में बाकायदा बयान जारी किया कि उत्तर प्रदेश में गाड़ी १२० की स्पीड से चलती है, जबकि उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में २० से अधिक की स्पीड खतरनाक हो सकती है। इसलिए यहां संभलकर गाड़ी चलानी पड़ती है। योगी के ताबड़तोड़ फैसलों की गूंज से उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद की रेस में रहे भाजपाइयों ने भी उत्तराखंड में माहौल बनाना शुरू कर दिया, लेकिन भारी दबाव के
बावजूद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने स्पीड नहीं बढ़ाई और वे अपनी स्पीड को बरकरार रखे रहे।
जीरो टोलरेंस मुख्यमंत्री बनने के एक सप्ताह के भीतर २५ मार्च २०१७ को त्रिवेंद्र सिंह रावत ने एनएच-७४ भूमि घोटाले की सीबीआई जांच की संस्तुति कर शुरुआत में भ्रष्टाचार पर जीरो टोलरेंस पर कायम रहने का वायदा दोहराया। इससे पहले कि जीरो टोलरेंस के मजबूत दावे के आगे बात बढ़ती, राष्ट्रीय राजमार्ग के अधिकारियों ने केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी से मिलकर एक पत्र उत्तराखंड सरकार के लिए लिखवा दिया। जिसमें जांचों के कारण भविष्य में उत्तराखंड में होने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों के विस्तार, साढ़े १२ हजार करोड़ के आल वेदर रोड पर भी इसका प्रभाव पडऩे की बात कही। नितिन गडकरी के पत्र से उत्तराखंड में विपक्ष के एक बड़ा हथियार मिल गया। विपक्ष और मीडिया ने भारतीय जनता पार्टी के भ्रष्टाचार पर जीरो टोलरेंस का जोरदार तरीके से पोस्टमार्टम करना शुरू कर दिया। लगातार बढ़ते दबाव के बावजूद परिचित अंदाज में ही उत्तराखंड सरकार ने इस मसले पर लगातार दो रिमाइंडर केंद्र सरकार को भेजे कि राष्ट्रीय राजमार्ग ७४ के इस बड़े घोटाले पर सीबीआई जांच होनी ही चाहिए। सड़क से लेकर सदन तक सरकार की घेराबंदी से सरकार की खूब किरकिरी होने लगी। विपक्ष द्वारा लगातार इस मसले पर सरकार पर ढुलमुल रवैये के भी आरोप लगने लगे।
इस बीच आयोजित बजट सत्र में तो सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक ने भी हर हाल में एनएच-७४ मामले की सीबीआई जांच की संस्तुति पर जोरदार तरीके से बल दिया। १४ जून सरकार के लिए थोड़ा सुकून लेकर आया। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने स्वयं सदन में ऐलान किया कि सीबीआई ने एनएच-७४ मामले पर जांच करने की संस्तुति दे दी है और अब तक जारी जांचों के बाद अब यह मामला पूरी तरह सीबीआई के सुपुर्द हो जाएगा। सीबीआई द्वारा जांच स्वीकार करने से निश्चित रूप से न सिर्फ त्रिवेंद्र सिंह रावत के जीरो टोलरेंस के दावे को बल मिला, बल्कि विपक्ष को मिले मजबूत हथियार को भी समय रहते सुलझा लिया गया। भ्रष्टाचार के मामले में उत्तराखंड के संदर्भ में सीबीआई की यह पहली जांच है।
पिछली विभिन्न १२ जांचों को सीबीआई अलग-अलग कारणों से अस्वीकार कर चुकी थी। ऐसे मेें ऐन वक्त पर यदि सीबीआई मामले को नहीं लेती तो उत्तराखंड सरकार के लिए और अधिक किरकिरी होने की नौबत आनी तय थी। ६ एसडीएम के विरुद्ध निलंबन की कार्यवाही के बावजूद जब तक सीबीआई ने मामला स्वीकार नहीं किया था, तब तक सरकार इस मसले पर बैकफुट पर थी। भ्रष्टाचार के इस मसले पर सीबीआई की संस्तुति से सरकार को सीधे खड़े होने की शक्ति मिली है।डबल इंजन की सरकार का असर तब देखने को मिला, जब तीन बार के देहरादून के स्मार्ट सिटी के प्रस्ताव को त्रिवेंद्र रावत की सरकार स्मार्ट सिटी में तब्दील करने में कामयाब हुई। कल तक व्यापारियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा सरकार ने तमाम भाजपा नेताओं के विरोधों के बावजूद जिस प्रकार देहरादून में अतिक्रमण के खिलाफ डोजर चलाया है, उसमें सरकार की काम करने की प्रतिबद्धता भी झलकती है।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा अब तक की सबसे विवादित निर्माण एजेंसी उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम को कोई भी नया कार्य न दिए जाने के निर्णय और 5 करोड़ रुपए तक के निर्माण कार्यों को उत्तराखंड के मूल निवासियों के लिए तय करने से पहली बार कुछ उम्मीद जगी है। पिछली सरकार द्वारा तय किए गए ६० वर्ष से अधिक के बुजुर्गों के लिए रोडवेज के लिए नि:शुल्क बस सेवा को ५० प्रतिशत करना भी वित्तीय अनुशासन की श्रेणी में गिना जा रहा है। हल्द्वानी मेडिकल कालेज में मेडिकल की ५० नई सीटें और ई-फाइलिंग के साथ पहली बार एक ऐसा सीएम डेस्क, जिस पर सचिवालय की हर फाइल होगी, में कार्य संस्कृति की झलक भी देखने को मिल रही है।
अफसरशाही का विश्लेषणउत्तराखंड की सरकारों के बारे में इस बात पर मतैक्य है कि उत्तराखंड की सरकारों को आज तक नौकरशाही ने हांका है। कायदे से सरकारों को नौकरशाही को हांकने की उम्मीद की जाती है, किंतु राज्य गठन से लेकर अभी तक कोई भी ऐसा मुख्यमंत्री नहीं हुआ जो सत्ता में इन बेलगाम घोड़ों को हांकता नजर आया हो। अब तो उत्तराखंड में यह भी कहा जाने लगा है कि उत्तराखंड की सत्ताएं सरकारें नहीं, बल्कि शासन चलाते हैं। ऐसे तमाम उदाहरण विगत सरकारों के दौरान देखने को मिले हैं, जब मुख्यमंत्रियों पर मुख्यमंत्रियों के सचिव भारी पड़ते दिखाई दिए और यह भी संदेश गया कि आईएएस ही सरकारें चला रहे हैं। अब पूर्व हो चुके मुख्यमंत्री हरीश रावत तो कई बार यह कहते हुए सुने गए कि उनकी घोषणाओं की फाइलें सचिवालय में जलेबी की भांति घूम रही हैं और हरीश रावत के एक उस वक्तव्य की हाल ही में वर्तमान सरकार ने तब पुष्टि की, जब ज्ञात हुआ कि उनके द्वारा की गई घोषणाओं को वास्तव में आईएएस अफसरों ने कूड़े के ढेर में डाले रखा।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा आईएएस अफसर ओमप्रकाश को अपना प्रमुख सचिव बनाने के बाद उत्तराखंड में सोशल मीडिया में एक और सारंगी कहकर जबर्दस्त आलोचना होने लगी। कुछ लोगों ने प्रमुख सचिव ओमप्रकाश की तुलना उत्तराखंड के सबसे चर्चित आईएएस रहे और बाद में मुख्य सचिव से लेकर मुख्यमंत्री के मुख्य प्रधान सचिव रहे राकेश शर्मा से करनी शुरू कर दी। लोगों ने तब कड़क मुख्यमंत्री के रूप में विख्यात भुवनचंद्र खंडूड़ी के खासमखास रहे आईएएस अधिकारी प्रभात कुमार सारंगी के उस कालखण्ड से वर्तमान प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री की तुलना करनी शुरू कर दी, जब एक ओर खंडूड़ी पाक साफ रहकर प्रदेश को नई ऊंचाइयों पर ले जाने की बात करते थे तो वहीं दूसरी ओर प्रभात कुमार सारंगी मुख्यमंत्री निवास पर बैठकर अपने अंदाज में सरकार चलाते थे।
प्रभात कुमार सारंगी भले ही तब मुख्य सचिव नहीं थे, किंतु वे मुख्य सचिव से लेकर किसी भी और सचिव से सबसे ऊपर होते थे। मुख्य सचिव भी प्रभात कुमार सारंगी की राय के बिना कोई काम नहीं करते थे। प्रभात कुमार सारंगी से दो कदम आगे बढ़ते हुए राकेश शर्मा का कार्यकाल उत्तराखंड के लोगों में चर्चा का विषय रहा। विजय बहुगुणा और हरीश रावत के कार्यकाल में सत्ता के केंद्र बिंदु रहे राकेश शर्मा के बिना तो सचिवालय का पत्ता भी नहीं हिलता था। कहने को तो मुख्य सचिव शत्रुघ्न सिंह थे, किंतु तमाम कार्यक्रमों और मंचों में हरीश रावत राकेश शर्मा को प्राथमिकता देते थे।
विजय बहुगुणा और हरीश रावत के मुख्यमंत्री रहते मुख्यमंत्रियों के कार्यों की जितनी चर्चा नहीं हुई, उससे कहीं अधिक चर्चा राकेश शर्मा ने पाई। सेवानिवृत्त होने के बाद राकेश शर्मा ने अपने उसी आत्मविश्वास के कारण निर्दलीय विधायक का चुनाव तक लडऩे की तैयारी कर दी थी। सत्ता के केंद्र बिंदु रहे प्रभात कुमार सारंगी और राकेश शर्मा से जब ओमप्रकाश की तुलना होने लगी तो यह सरकार के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था। सारंगी और राकेश शर्मा की भांति ओमप्रकाश के बीते हुए कल के तमाम भले-बुरे कार्यों को लेकर सरकार की खूब आलोचना होने लगी।
सबसे गंभीर मामला तो तब सामने आया, जब मीडिया से लेकर सोशल मीडिया में यह बात कही जाने लगी कि कृषि मंत्री रहते त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल में ढैंचा बीज की खरीद में हुई अनियमितता के दौरान त्रिवेंद्र रावत के साथ ओमप्रकाश ही मुख्य भूमिका में थे। इस बीच ढैंचा बीच घोटाले का मसला हाईकोर्ट पहुंच गया। अचानक से ढैंचा बीज घोटाला बहुत तेजी से उत्तराखंड सरकार के लिए परेशानी का सबब बनता दिखा। उत्तराखंड में लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह वक्तव्य भी ध्यान है, जिसमें उन्होंने मनमोहन सिंह को रेनकोट वाला प्रधानमंत्री कहा था। लोगों को आशंका है कि विवादित अफसरों को साथ में रखने से त्रिवेंद्र रावत को भी कहीं इसी प्रकार के शब्दों के बाण न झेलने पड़ें। सदन में सिक्काविरोधियों के लिए यह मसला न सिर्फ राजनैतिक रूप से लाभकारी था, बल्कि सरकार के लिए अब इस मसले से बच पाना आसान नहीं था। १५ जून २०१७ को उत्तराखंड सरकार ने बजट सत्र के आखिरी दिन जीरो टोलरेंस की अपनी नीति को आगे बढ़ाते हुए न सिर्फ बहुप्रतीक्षित लोकायुक्त बिल को सदन के पटल पर रखा, बल्कि एक कदम आगे बढ़ते हुए पिछली कांग्रेस सरकार द्वारा ढैंचा बीज घोटाले की जांच कर रहे त्रिपाठी जांच आयोग की रिपोर्ट को भी सदन के पटल पर रख दिया।
कांग्रेस को उम्मीद थी कि उसके द्वारा बनाए गए पहले भाटी जांच आयोग और फिर त्रिपाठी जांच आयोग से भारतीय जनता पार्टी के कुछ लोग जरूर नप जाएंगे। इसी उम्मीद में कांग्रेस ने सदन में जांच आयोगों की रिपोर्टों को सदन के पटल पर रखने की मांग की। अचानक से सरकार द्वारा ढैंचा बीज घोटाले के संबंध में त्रिपाठी जांच आयोग की रिपोर्ट सदन के पटल पर रखने से जहां एक ओर सरकार फ्रंटफुट पर दिखाई दी, वहीं विपक्ष के लिए यह न संभलने वाला अवसर पैदा हो गया। इस रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखने के बाद सरकारी प्रवक्ता और भाजपा सरकार के काबीना मंत्री मदन कौशिक ने ऐलान किया कि कांग्रेस सरकार द्वारा ढैंचा बीज घोटाले को लेकर जो जांच की गई थी, उस जांच जांच रिपोर्ट में त्रिवेंद्र सिंह रावत को त्रिपाठी जांच आयोग ने क्लीनचिट दी गई।
इस मसले में सबसे महत्वपूर्ण बात यह निकली कि ढेंचा बीज घोटाले के दौरान तब ओमप्रकाश नहीं, बल्कि आईएएस रणवीर सिंह कार्यरत थे। मिश्रा पर मुखरइस बीच त्रिवेंद्र रावत सरकार द्वारा उत्तराखंड में विभिन्न घपले-घोटालों के लिए मीडिया में छाए रहने वाले मृत्युंजय मिश्रा को सचिवालय के चौथे माले में तैनात करने का मामला गरमा गया। मृत्युंजय मिश्रा को सचिवालय में बैठाने पर सचिवालय संघ ने घोर आपत्ति की तो सरकार ने मृत्युंंजय मिश्रा को पैदल करते हुए दिल्ली भेज दिया।मृत्युंजय मिश्रा के संदर्भ में जब मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से पूछा गया तो उनका कहना था कि उन्होंने मृत्युंजय मिश्रा को एक पद नीचे तैनाती दी है और किसी भी व्यक्ति के पास मृत्युंजय मिश्रा के घपले-घोटालों के संबंध में कोई भी किसी भी प्रकार की जानकारी हो तो वो शपथ पत्र में लिखकर दे दें।
सरकार किसी भी अनियमितता पर न सिर्फ जांच करेगी, बल्कि कठोर कार्यवाही भी करेगी। शपथ पत्र पर शिकायत मांगने के बाद मृत्युंजय मिश्रा के नाम पर मचा शोर भी ठंडा हो गया। हालांकि अभी उत्तराखंड के लोगों को यकीन है कि मृत्युंजय मिश्रा जैसा व्यक्ति चुप नहीं बैठेगा, बल्कि कुछ न कुछ गुल जरूर खिलाएगा। मृत्युंजय मिश्रा के बारे में अब यह चर्चा जोरों पर है कि भले ही मृत्युंजय मिश्रा अपर स्थानिक आयुक्त के रूप में दिल्ली भेज दिए गए हों, किंतु अभी भी मृत्युंजय मिश्रा मुख्य सचिव रामास्वामी और प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री ओमप्रकाश के साथ मिलकर बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री द्वारा भ्रष्टाचार पर जीरो टोलरेंस की बात कहने से उत्तराखंड के आम जनमानस की उनसे प्रचंड बहुमत और डबल इंजन सरकार होने के कारण भी आशाएं व उम्मीदें बहुत तेजी से बढऩे लगी हैं। आम जनमानस उनसे प्रधानमंत्री मोदी की भांति उम्मीदें करने लगा है। उनसे यह भी आशा की जाने लगी है कि वो यदि किसी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को आउटसोर्स से भी तैनात करते हैं तो वह व्यक्ति भी निहायत ईमानदार और कर्मठ होना चाहिए। अपेक्षा से उपजा असंतोषबजट सत्र के दौरान विपक्ष द्वारा डी. सेंथिल पांडियन को ईमानदार कहकर कुमाऊं कमिश्नर के पद से हटाने पर भी खूब बवाल किया गया।
विपक्ष यही नहीं रुका, बल्कि पांडियन के स्थान पर आईएएस अफसर चंद्रशेखर भट्ट को कुमाऊं मंडल का आयुक्त बनाने पर भी हंगामा हुआ। विपक्ष के विधायकों ने चंद्रशेखर भट्ट को उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर गोली चलाने वाला अधिकारी बताकर सनसनी फैलाने की कोशिश की कि आखिरकार जिस व्यक्ति के आदेश से खटीमा गोलीकांड हुआ, उस व्यक्ति को कमिश्नर कुमाऊं बनाने का क्या औचित्य। हालांकि तब सरकार की ओर से संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत ने यह कहकर कि चंद्रशेखर भट्ट को लंबे समय तक किस सरकार ने जिलाधिकारी बनाया, विपक्ष की बोलती बंद कर दी, किंतु इसके बावजूद भी उत्तराखंड का आम जनमानस त्रिवेंद्र रावत के चारों ओर किसी प्रकार की भ्रष्ट, विवादित अफसर को मानो देखना ही नहीं चाहता हो।
चंद्रशेखर भट्ट लंबे समय तक पौड़ी के जिलाधिकारी पद से लेकर विभिन्न बड़े पदों पर रह चुके हैं, किंतु यह जनअपेक्षा ही है कि आज चंद्रशेखर भट्ट के करीब २५ साल पुराने फैसलों की व्याख्या त्रिवेंद्र रावत सरकार के साथ होने लगी है। दल के दलदल में फंसती सरकारपिछले दिनों उत्तराखंड के एक प्रमुख सचिव के पास भारतीय जनता पार्टी के एक नेता पुत्र अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के साथ खिंचे फोटो दिखाते हुए कहते सुने गए कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कुछ ऐसी जिम्मेदारियां सौंपी है, जिनके बारे में प्रदेश सरकार को भी खबर नहीं। नेता पुत्र यहीं नहीं रुके, उन्होंने प्रमुख सचिव को हिदायत दी कि उनके और प्रमुख सचिव के बीच हो रहे वार्तालाप को न तो किसी से शेयर किया जाए और न ही यह बात लीक होनी चाहिए। नेता पुत्र के द्वारा सबूत के तौर पर दिखाए गए फोटोग्राफ से प्रमुख सचिव का माथ ठनका और फिर उन्होंने नेता पुत्र के कारनामों की विस्तृत व्याख्या करनी शुरू कर दी। यह सब होने के बाद नेता पुत्र ने पलटकर प्रमुख सचिव की ओर रुख नहीं किया।
यह घटना स्पष्ट करती है कि भले ही विधानसभा सचिवालय में सामान्य लोगों के लिए घुस पाना आसान नहीं हो, किंतु भाजपा के एक बड़े वर्ग ने सचिवालय में जोरदार तरीके से घुसपैठ शुरू कर दी है। ऐसा नहीं कि भारतीय जनता पार्टी के छोटे-बड़े कार्यकर्ता से लेकर नए-नए भाजपाई बने लोग स्वार्थ सिद्धि में न लगे हों। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत से मिलने के लिए उनसे कोई काम करवाने के लिए बहुसंख्यक लोग मुख्यमंत्री के सचिव, निजी सचिव, ओएसडी, पीआरओ की बजाय भाजपा संगठन के माध्यम से मुख्यमंत्री तक पहुंच रहे हैं।
मुख्यमंत्री से मिलने के लिए बाया संगठन बनाया गया यह रास्ता भले ही भाजपा संगठन के लिए या भाजपा के कुछ लोगों के लिए या कुछ उद्योगपतियों के लिए मुफीद हो, किंतु कहीं न कहीं इससे सरकार के ऊपर एक दबाव बनाने की रणनीति दिखाई देने लगी है। विगत दिनों कुछ भाजपा नेताओं के दबाव में शिक्षा विभाग में किए गए अटैचमेंच और अब होने वाली नियुक्तियों में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश संगठन की दखल से स्पष्ट हो रहा है कि जीरो टोलरेंस वाली त्रिवेंद्र रावत सरकार को काम करने की वो स्वच्छंदता नहीं है, जो डबल इंजन और प्रचंड बहुत की सरकार से होनी चाहिए थी। भाजपा संगठन के विभिन्न पदाधिकारियों द्वारा मुख्यमंत्री और मंत्रियों के लिए लिखे जा चुके और लिखे जा रहे सैकड़ों सिफारिशी पत्र सरकार को स्वच्छंदता से काम करने की राह में रोड़ा नजर आने लगे हैं। यहां तक कि प्रदेश में विभिन्न मंत्रियों के मंत्रालयों
में भी अगर कोई मंत्री ईमानदारी से भी कुछ करना चाह रहा है तो इंजीनियरों की ट्रांसफर पोस्टिंग तक में राजनाथ, उमा भारती सरीखे नेताओं की सिफारिश माननी ही पड़ रही है।
हे!…मां!… बचाओ
रुड़की में पकड़ी गई सेक्स रैकेट चलाने की आरोपी हेमा रावल को ६ साल के लिए पार्टी से निष्कासित कर भले ही भाजपा ने अपना दामन जलने से बचा लिया हो, लेकिन हेमा को भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी का विशेष आमंत्रित सदस्य किसने और क्यों बनाया, यदि इसकी तहकीकात की गई तो सेक्स रैकेट से जुड़े भाजपा के कुछ सफेदपोश नेताओं के चेहरे से भी नकाब उतर सकता है। भाजपा के टीनू जैन और नीरज शाक्य के बाद उत्तराखंड से भाजपा की प्रदेश स्तरीय नेत्री के सेक्स रैकेट में संलिप्तता के बाद लोग सोशल मीडिया में इस मामले को लेकर भाजपा की काफी टांगखिंचाई कर रहे हैं। एक व्यक्ति ने तो कमेंट में यहां लिख दिया कि अब तक भाजपा तीन सी (चाल, चरित्र, चेहरा) के सिद्धांत पर चलती थी।
गौरतलब है कि जब हेमा को विशेष आमंत्रित सदस्य बनाया गया था। उस समय रुड़की में भाजपा के कई नेताओं ने इसका मुखर विरोध किया था, किंतु उनकी एक नहीं सुनी गई। यही नहीं वर्ष २००७ में भाजपा सरकार के दौरान भी हेमा रावल पर सेक्स रैकेट चलाने के आरोप लगे थे। क्या कारण है कि भाजपा ने उसी समय उसे निष्कासित नहीं किया। उस समय भी भाजपा के एक बड़े नेता ने अपने वर्चस्व का इस्तेमाल कर उसे बचा लिया था। इसमें पिछले साल दलबदल प्रकरण में चर्चित हुए एक बड़े केंद्रीय भाजपाई नेता की भी संदिग्धता बताई जा रही है। इसी महीने ३ जून को छेड़छाड़ के एक मामले में एक पीडि़ता की पैरवी करने पर भी हेमा रावल ने उस पर तेजाब फेंकने और जान से मारने की धमकी दी थी। सेक्स रैकेट ही नहीं, बल्कि हेमा रावल ब्लैकमेल करके धन ऐंठने के मामले में भी खासी बदनाम रही है।
खुद को एक पूर्व मुख्यमंत्री की भतीजी बताने वाली हेमा रावल पर यह भी आरोप है कि उसने रुड़की के पाडली गुर्जर गांव निवासी आलमगीर नाम के एक युवक से छेड़छाड़ के एक मामले में समझौते के लिए एक लाख रुपए भी वसूले। इस मामले में दोनों पक्षों ने एक दूसरे के खिलाफ गंगनहर कोतवाली में मुकदमा भी दर्ज कराया है। आलमगीर पाडली के पूर्व ग्राम प्रधान बहरोज आलम का भतीजा है और आरएसएस की ओर से भाजपा की धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने वाले मुस्लिम राष्
ट्रीय मंच का सदस्य भी है। मंत्रिमंडल को साधे रखने की चुनौतीउत्तराखंड की त्रिवेंद्र रावत सरकार के सौ दिनों के कार्यकाल में मंत्रियों के बीच सामंजस्य से लेकर मंत्रियों के कामकाज में भी काफी आलोचना हुई। विधानसभा सत्र के दौरान सूबे के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने मीडिया से रूबरू होते हुए बताया कि वे विदेश यात्रा पर जा रहे हैं, जहां वे चारधाम के लिए बेहतरीन रोपवे बनाने के संदर्भ में अध्ययन करेंगे। इस बात का सतपाल महाराज कोई जवाब नहीं दे पाए कि वे क्यों एक निजी कंपनी के साथ विदेश दौरे पर जा रहे हैं तथा यदि उन्होंने गौरीकुण्ड से लेकर केदारनाथ तक कोई बड़ा रोपवे, जैसा कि उन्होंने बताया कि तकरीबन ५०० लोग तक एक बार में रोपवे से जा सकेंगे, तो गौरीकुण्ड से केदारनाथ के बीच के उन हजारों लोगों को क्या होगा, जो घोड़े, खच्चर, डोली, डंडी-कंडी से लेकर छोटे-छोटे ढाबों, खोमचों और होटलों से होने वाली आय से वर्षभर अपना घर चलाते हैं, जबकि यात्रा तीन-चार माह ही चलती है।
यदि केदारनाथ के इस पड़ाव पर पर्यटन मंत्री के अनुसार रोपवे सेवा शुरू हो गई तो रोपवे कंपनी को तो रोजगार मिलेगा, उसे लाखों-करोड़ों की आय भी होगी, किंतु उन गरीब लोगों और स्वरोजगार करने वालों का क्या होगा, इसका पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज के पास कोई जवाब नहीं है। सतपाल महाराज की सरकार से तल्खियों, नाराजियों की खबरें भी समय-समय पर सामने आती रही हैं। शुरुआत में कुछ बयानों को लेकर चर्चा में आए हरक सिंह रावत हालांकि अब शांत हैं, किंतु सबका साथ-सबका विकास की बात कहने वाली सरकार को इन सभी मंत्रियों को न सिर्फ साधे रखना होगा, बल्कि इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि किसी मंत्री द्वारा कही गई किसी भी तरह की बात से उस प्रचंड बहुमत का अपमान न होने पाए।
शुरुआत में अपने बयानों और कामों को लेकर चर्चा में आए शिक्षा और खेल मंत्री अरविंद पांडे अब पूरी तरह स्वच्छंद नहीं हैं। अरविंद पांडे की दबंग छवि के बाद एक बार तो लगने लगा था कि वो शिक्षा विभाग को हर हाल में पटरी पर लाने में सफल रहेंगे, किंतु जिस प्रकार अब पांडे भाजपा संगठन और अन्य मंत्रियों के दबाव में है, उससे नहीं लगता कि वो शिक्षा विभाग को वास्तव में नया मुकाम देने में सफल होंगे। दबाव की राजनीति जो संगठन द्वारा शुरू हुई है, वह अब सरकार में शामिल मंत्रियों, सत्तापक्ष और विपक्ष के विधायकों के साथ लगातार परवान चढ़ती दिखने लगी है। अपनी दबंग छवि के लिए जाने जाने वाले चौथी बार विधायक बनकर पहली बार मंत्री बने अरविंद पांडे ने शुरुआत में अपनी खराब छवि को धोने के लिए कुछ अच्छे निर्णय की घोषणा की, किंतु अरविंद पांडे के परिजनों ने उत्तराखंड पुलिस को थाने में वर्दी उतारने की धमकी देने से लेकर शिक्षकों को देख लेने वाली जो बातें कही है, उससे अरविंद पांडे की छवि सुधरने की गुंजाइश कम ही दिखाई दे रही है। अरविंद पांडे चाहकर भी उत्तराखंड में ट्रांसफर उद्योग के रैकेट को न तो तोड़ पा रहे हैं, न ही देहरादून में घूम रहे उन शिक्षकों को वहां भेज पा रहे हैं, जहां से वे न सिर्फ वेतन लेते हैं, बल्कि उनकी तैनाती भी वहीं पहाड़ों पर है। खेल मंत्री के रूप में जरूर अरविंद पांडे कुछ नया करने की बात कर रहे हैं, किंतु जब तक कुछ भी परिणाम नहीं आता, तब तक इस पर भी कुछ कहना आसान नहीं होगा। हालांकि अरविंद पांडे ने शिक्षकों के लिए ड्रेस कोड, अगले सत्र से शिक्षकों के लिए विद्यालय से ८ किमी. की परिधि में निवास की अनिवार्यता और बेसिक शिक्षा में सुधार के लिए कड़े कदम उठाकर सुधार के संकेत भी दिए हैं, लेकिन ८ किमी. की परिधि और बायोमेट्रिक एक साथ लागू करने के औचित्
य पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।
स्वतंत्र प्रभार के उच्च शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत ने जरूर तेजी दिखाने की कोशिश की है। वे इसमें कितना सफल होते हंै और क्या वास्तव में उच्च शिक्षा, सहकारिता को पलायन रोकने का माध्यम बना सकते हैं, यह देखना शेष है। धन सिंह रावत द्वारा राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने से शुरू किया अभियान यदि शीघ्र ही सहकारिता के माध्यम से दूरस्थ पहाड़ में लोगों को स्वरोजगार से जोड़कर आगे बढ़ाता है, तभी उनके कामों को धरातल पर माना जाएगा।
मायावती की तर्ज पर तेज शुरुआत करने वाली स्वतंत्र प्रभार मंत्री रेखा आर्य इन सौ दिनों में किसी भी विषय को धरातल पर नहीं ला पाई। अपने पति पर दर्ज मुकदमों को वापस करवाने के लिए जिलाधिकारी पर दबाव बनाने से लेकर उनके शुरुआती फैसलों से सरकार की न सिर्फ फजीहत हुई, बल्कि महिला एवं बाल विकास विभाग के संदर्भ में जब सदन में उनसे सवाल किया गया कि क्या आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को न्यूनतम वेतन के रूप में तय श्रम विभाग द्वारा मानदेय या वेतनमान दिया जा रहा है तो उन्होंने स्वीकार किया कि न्यूनतम वेतनमान जो श्रम विभाग द्वारा तय है, दिया जा रहा है। इस सवाल पर वह तब घिर गई कि जब यह स्पष्ट हुआ कि आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को इतना वेतनमान उत्तराखंड में नहीं मिलता। साथ ही उन्होंने आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों के कार्य के घंटे भी सदन में गलत बताए कि उनसे मात्र चार घंटे काम लिया जाता है। ४ घंटे विद्यालयों में काम करने के बाद भी आंगनबाड़ी कार्यकत्रियां विभिन्न टीकाकरण कार्यक्रमों से लेकर सरकार द्वारा आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में प्रतिभाग करती रहती हैं। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने के बाद मंत्री बने लोगों के साथ भारतीय जनता पार्टी अभी सहज नहीं हो पा रही है। भाजपा के कार्यकर्ताओं को अपने छोटे-मोटे काम के लिए मंत्री दरबार में पहले अपना परिचय और आईडी प्रूफ देना पड़ रहा है। इन मंत्रियों के साथ कार्यकर्ताओं की असहजता इन सौ दिनों में कई बार देखने को मिली। अभी भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए मंत्रियों के इर्द-गिर्द कांग्रेस के कार्यकर्ता ही घूमते नजर आते हैं।
खाली बर्थ भरने की चुनौती
कहने को तो त्रिवेंद्र
रावत सरकार पर किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं है, किंतु जिस प्रकार तीन महीनों में मंत्रिमंडल के दो पद नहीं भरे जा सके, वह भी किसी चुनौती से कम नहीं है। पौड़ी लोकसभा सीट से चार विधायकों को मंत्रिमंडल में स्थान देने से भी सरकार में संतुलन बनाए रखने की चुनौती है। पांच बार के विधायक और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे बिशन सिंह चुफाल का कहना है कि वो किसी भी फाइल को लेकर कैसे उन कांग्रेस छोड़कर आए मंत्रियों के पास जा सकते हैं, जिन्होंने कुछ दिनों पहले ही भाजपा का दामन थामा।
चार बार के विधायक बंशीधर भगत और आठ बार के विधायक हरबंश कपूर भी यही राग बिसूर रहे हैं। मंत्रिमंडल के दो खाली पदों के बारे में अनौपचारिक रूप से कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन बताते हैं कि लगातार चार बार जीतने के बाद उनका भी दावा मंत्रिमंडल के लिए मजबूत है। वहीं टिहरी लोकसभा ही एकमात्र ऐसी लोकसभा है, जहां से अभी तक किसी भी विधायक को मंत्रिमंडल में स्थान नहीं दिया गया है। सदन में प्रखरता से सरकार का बचाव करने वाले और जनमुद्दे उठाने वाले मुन्ना सिंह चौहान के अलावा केदार सिंह रावत और गोपाल सिंह रावत भी इस रेस में शामिल हैं। देखना है कि खाली बर्थ को लेकर असंतोष को कब शांत किया जाता है। स्वास्थ्य सेवाओं की बदहालीउत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की पुष्टि स्वयं मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने दून अस्पताल जाकर की और वहां फैली अव्यवस्थाओं के बाद दो डॉक्टरों और एक नर्स को निलंबित किया। सूबे के सबसे बड़े अस्पताल की यह हालत है तो प्रदेश में प्रदेश में स्वास्थ्य महकमे को समझना अब कठिन नहीं है।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत का दावा है कि तमिलनाडु में आवश्यकता से अधिक डॉक्टर हैं तो वहीं उड़ीसा में डॉक्टरों को अभी तक पांचवें आयोग के अनुसार ही वेतन प्राप्त हो रहा है। ऐसे में इन दोनों राज्यों से उत्तराखंड में डॉक्टर तैनात करने की कोशिशें तेज हो गई हैं। वीरचंद सिंह गढ़वाली आयुर्विज्ञान संस्थान श्रीनगर गढ़वाल के लिए सेना से डॉक्टर तैनात करने की पहल को हालांकि बहुत सकारात्मक रूप से तब से देखा जाने लगा है, जब से थल सेना अध्यक्ष विपिन रावत और त्रिवेंद्र रावत की इस मांग पर सहमति व्यक्त की है, किंतु पूरे उत्तराखंड में करोड़ों-अरबों रुपए कीमत से बने अस्पतालों में जब तक डॉक्टर तैनात नहीं किए जाएंगे, तब तक उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाओं को पटरी पर लाने का अभियान धरातल पर नहीं आएगा।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार को इसलिए भी गंभीरता दिखाने की आवश्यकता है, क्योंकि करोड़ों रुपए की मशीनें आज भी धूल फांक रही है और ऐसा लगता है कि उत्तराखंड की सरकारों ने भवन बनाने और मशीनें खरीदने पर ही जोर दिया, न कि डॉक्टरों की तैनाती पर। सरकार ने डॉक्टरों की सेवा सीमा दो वर्ष बढ़ाने का फैसला लेकर कुछ हद तक इस व्यवस्था को पटरी पर लाने की पहल की है। सदन में मुख्यमंत्री ने स्वयं ऐलान किया कि कोई भी विधायक कहीं से भी किसी भी योग्य, अनुभवी डॉक्टर को ले आए, उसे हर हाल में उत्तराखंड में तैनाती दी जाएगी।
बहरहाल इन सौ दिनों में सरकारी धीमी गति में ही सही, लेकिन मजबूत कदमों के साथ आगे बढ़ रही है। खासकर जब शुरुआत में कांग्रेस पार्टी सरकार को छह महीने देने का ऐलान कर चुकी है तो इसकी संभावना कम ही दिखती है कि विपक्षी दल सरकार पर आक्रामक रुख अख्तियार करेगा।
सौ दिन के बेहतर फैसले
विवादित उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम को बैन कर 5 करोड़ रुपए तक के काम सिर्फ उत्तराखंड के मूल निवासियों को।
बहुचर्चित एनएच-७४ घोटाले पर सीबीआई जांच की संस्तुति कर जीरो टोलरेंस पर बढ़त।
काबीना मंत्रियों द्वारा बनाए गए दबाव में झुके नहीं।
लोकायुक्त और त्रिपाठी जांच आयोग की रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी।
ई-फाइलिंग, ई-बजट और सीएम डेस्क बनाकर कार्य संस्कृति में बदलाव।
घोषणा करने की बजाय काम करने पर जोर।
केंद्र सरकार से डबल इंजन के कारण आईआईटी स्तर के संस्थान और सौ नए जैनरिक दवा केंद्र स्वीकृत करवाना।
पहली बार औद्योगिक क्षेत्र में स्पेशल इकोनोमिक जोन का निर्माण व पर्वतीय क्षेत्र के किसानों के लिए मात्र २ प्रतिशत ब्याज दर पर एक लाख रुपए तक के ऋण का प्रावधान।
पर्वतीय क्षेत्रों के विद्यालयों के लिए क्लबिंग व्यवस्था व स्वास्थ्य क्षेत्र में बेहतरी के लिए श्रीनगर मेडिकल कालेज में सेना के डॉक्टरों की सेवाएं।
पलायन रोकने के लिए पहली बार मंत्रिमंडल स्तरीय समिति का गठन।
सभी ७० विधानसभाओं के लिए सबका साथ-सबका विकास के तहत कार्य करने का निर्णय।
फैसले जिनसे आलोचना हुई
ट्रिपल इंजन के कारण दिखाई गई तेजी से अपेक्षित परिणाम न आने के बाद आरटीआई लगाने की बात कहना।
शराब की दुकानों के आवंटन और पहाड़ और मैदान के लिए अलग-अलग नीति से घाटा।
पूर्ववर्ती सरकारों की भांति ओएसडी, पीआरओ, सलाहकार भर्ती।
रोल बैक वाले निर्णयों से किरकिरी।
विवादित अफसरों को महत्वपूर्ण तैनाती।ह्य विधायकों के बचकाने बयानों के बावजूद उन पर नियंत्रण नहीं।
विधायक निधि को बढ़ाकर खर्च करने की सीमा प्रत्येक वर्ष न करने से विधायक निधि के चुनावी निधि बनने की आशंका।
मुख्यमंत्री के जनता दरबार कार्यक्रमों में संगठन और कुछ खास लोगों का दबदबा।
विजय बहुगुणा कार्यकाल के दौरान हुए घोटालों पर सरकार का मौन।ह्य दल के दबाव में शिक्षा विभाग में अटैचमेंट पर दोहरी व्यवस्था।