साहब..‘फर्स्ट गियर’ में लंबी नहीं चलती ‘सरकार’
योगेश भट्ट
अजीब इत्तेफाक है, इधर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह साल भर पूरा होने से पहले खुद को साबित करने के लिए पंद्रह साल तक सत्ता में बनाए रखने की अपील करते हैं । उधर राजनैतिक जीवन में एक आदर्श मिशाल कायम करने वाले माणिक सरकार का दो दशक बाद त्रिपुरा में सत्तावसान होता है। राजनैतिक विचारधाराओं से इतर बात करें तो माणिक सरकार राजनैतिक जीवन में सुचिता की एक मिशाल हैं, और सच यह है कि दो दशक बाद जनता ने उन्हें भी नकार दिया । इससे यह तो साफ है कि आवाम सतत विकास और तरक्की के नये रास्ते चाहता है। यूं तो सत्ता से माणिक सरकार की विदाई पर समाज में एक बड़े वर्ग का मानना यह भी है कि माणिक सरकार की हार राजनीति से गरीबी और ईमानदारी की विदाई है। लेकिन यह सरासर गलत है, ऐसा कहना गरीबी और ईमानदारी का ही नहीं बल्कि माणिक सरकार का भी उपहास है । हम शायद यह भूल रहे हैं कि ईमानदारी और सादगी तो राजनैतिक व सार्वजनिक जीवन का एक गुण है, जिसे हर राजनेता में अनिवार्य तौर पर होना ही चाहिए। यह अलग बात है कि आज के राजनेताओं में यह कम ही नजर आता है, फिर भी सिर्फ वामदलों में ही नहीं बल्कि अधिकांश राजनैतिक दलों में माणिक सरकार जैसे राजनेता मौजूद हैं। जो आज भी इस अनिवार्य गुण के साथ राजनैतिक सार्वजनिक जीवन जी रहे हैं। अहम यह है कि सरकार के मुखिया के तौर पर सवाल सिर्फ ईमानदारी का ही नहीं बल्कि उससे भी बढ़कर गवर्नेंस, राज्य की तरक्की, जनता की अपेक्षाओं और जरूरतों पर खरा उतरने का भी है। माणिक सरकार का यह जिक्र उत्तराखंड के संदर्भ में सिर्फ इसलिये क्योंकि माणिक सरकार का सत्तावसान सियासत और सरकारों के लिये आज कई मायनों में बड़ा सबक है । यह जिक्र इसलिये भी क्योंकि माणिक सरकार का सत्तावसान उस वक्त हुआ है, जब उत्तराखंड में एक मजबूत जनादेश वाली त्रिवेंद्र सरकार अपना एक साल का कार्यकाल पूरा करने जा रही है । राजनैतिक सुचिता, सादगी और ईमानादरी के लिहाज से हालांकि माणिक सरकार और त्रिवेंद्र रावत का कोई मुकाबला नहीं, जहां माणिक अपना खर्च खुद उठाते थे वहां साल भर से कम समय में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह के लाखों रुपया तो आवाभगत में सिर्फ चाय पानी पर उड़ाये जाते हैं । सरकारी विमान और हैलीकाप्टर होने के बावजूद एक करोड़ रुपया मुख्यमंत्री की सेवा में निजी विमान कंपनियों को भुगतान किया जाता है। लेकिन इसके बावजूद त्रिवेंद्र के बारे में भी धारणा है कि वह सादगी पसंद भलेमानुष, शालीन और ईमानदार हैं । निसंदेह उन पर मुख्यमंत्री रहते हुए साल भर में निजी तौर पर न कोई दाग है न कोई लांछन । यह भी सही है कि उत्तराखंड अब पहले की तरह दिल्ली और देहरादून के होटलों में बिकता नजर नहीं आता । दलालों की टोलियां भी सत्ता के गलियारों में अब खुलेआम घूमती नजर नहीं आती, दलालों की दुकानें भी कम हुई हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि त्रिवेंद्र सरकार से जनता संतुष्ट है और प्रदेश में सबकुछ ठीक चल रहा है। दरअसल सवाल सिर्फ त्रिवेंद्र सिंह की व्यक्तिगत ईमानदारी का नहीं बल्कि सरकार की साख और गवर्नेंस का है । राज्य को लेकर उनकी नजर, नजरिये और क्षमताओं का भी है । हाल ही में सहारनपुर को उत्तराखंड में मिलाने संबंधी एक बयान पर तो उनके खिलाफ आमजन में भी आक्रोश पनपने लगा है ।
निसंदेह सवाल जब गवर्नेंस का आता है तो वाकई त्रिवेंद्र कमजोर नजर आते हैं। रैबार जैसे आयोजन, तमाम मसलों पर ‘यू टर्न’ और पलायन आयोग गठन सरीखे फैसले कहीं न कहीं उनकी क्षमताओं पर सवाल उठाते हैं ।एक मजबूत सरकार ‘मजबूर’ भी होती है, इसका अहसास उस वक्त होता है जब राज्य की सीमा के अंदर ही मुख्यमंत्री के हेलीकाप्टर को जीटीसी हैलीपेड पर जबरदस्ती उतरने नहीं दिया जाता। सेना के एक अधिकारी के एक आदेश के आगे राज्य की पूरी सरकार बेचारगी की स्थिति में नजर आती है। सरकार की घोषणा के बावजूद सेना श्रीनगर मेडिकल कालेज लेने से मना कर देती है। राज्य के चर्चित एनएच घोटाले का सीबीआई को भेजने के बावजूद सीबीआई जांच नहीं होती और सरकार के पास कोई जवाब नहीं होता । यह सब सरकार की छवि को कमजोर करने वाली चंद नजीरें हैं । सच यह है कि त्रिवेंद्र अपने चंद भरोसेमंद अफसरों, व्यक्तिगत टीम और हाईकमान के दिशा निर्देशों पर ही निर्भर हैं । संगठित रूप में सरकार कहीं है ही नहीं और ऊपर से मुख्यमंत्री के ‘सलाहकार’ भी किसी काम के नहीं। हालात यह हैं कि सरकार के मंत्रियों में कोई ‘ठिठक’ रहा है कोई ‘लड़खड़ा’ रहा है। कोई ‘हठ योग’ पर है कोई ‘नाराज’ है। कोई ‘जमीन’ ही छोड़ चुका है तो कोई ‘हवाई घोड़े’ पर सवार है। जो बहुत नजदीक से सरकार को देख रहे हैं वह जानते हैं कि पूरी सरकार त्रिवेंद्र सिंह रावत से शुरू होकर धन सिंह रावत पर आकर खत्म हो जाती है । राज्य के फैसलों पर राज्य का अपना कोई नियंत्रण नहीं, सरकार उतना ही चलती है जितने के लिये दिल्ली से ‘ग्रीन सिग्नल’ मिलता है। कहने के लिये ‘डबल इंजन’ की ‘सरकार’ भले हो, लेकिन हकीकत में यह एक ‘रिमोट चालित’ कार से ज्यादा कुछ नहीं। उत्तराखंड के भविष्य की चिंता और पहाड़ के लिये दर्द तो सरकार में कहीं नजर नहीं आता।
एक सरसरी नजर सरकार के काम पर डालें तो सरकार की शुरुआत ही हतप्रभ करने वाली रही है । जिस प्रदेश की रगों में देशभक्ति रची बसी हो, वहां सरकार तिरंगे, वंदेमातरम और वीरता दीवारों के जरिये देशभक्ति का ‘ककहरा’ सिखाने की कोशिश करती रही । उजड़ते गांवों के प्रदेश में स्मार्ट गांव के बजाय सिर्फ स्मार्ट सिटी का राग अलापती रही । यह जानते हुए भी कि राज्य के 58 फीसदी गावों में सड़क नहीं पहुंची है, सरकार सुदूर गांवों को सड़कों से जोड़ने के बजाय आल वेदर रोड पर ही फोकस करती रही। प्यासे शहरों और गावों को पेयजल मुहैया कराने से अधिक सरकार की सक्रियता पंचेश्वर बांध के निर्माण का रास्ता साफ करने में रही। आपदा के लिहाज से बेहद संवेदनशील चार सौ गांवों को उनके हाल पर छोड़ सरकार को पूरे साल सिर्फ एक नयी केदारपुरी बसाने की ही चिंता सताती रही। सरकार को उतनी चिंता शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार की नहीं रही जितना कि शराब और खनन की रही। कई फैसले तो बेहद आश्चर्यजनक रहे, मसलन जो सरकार कर्मचारियों को वेतन बांटने के लिये कर्ज उठा रही हो, जिसके पास सातवें वेतन आयोग के भत्ते देने के लिये बजट न हो उस सरकार ने विधायक निधि में एक करोड़ सालाना की बढोतरी की । दूसरा यह कि अचानक नगर निकायों की सीमा का विस्तार कर दिया गया, जिसकी आड़ में सैकड़ों हेक्टेअर जमीन भू कानून के दायरे से बाहर हो गयी । विपक्ष भले ही अपने हितों के चलते इन पर खामोश हो लेकिन जनता के जेहन में कहीं न कहीं यह सवाल हैं, इसका अंदाजा संभवत: अभी सरकार को नहीं है । यह सरकार के ऐसे फैसले हैं जिनकी प्रदेश को किसी न किसी रूप में बड़ी कीमत चुकानी ही होगी । अब सवाल यह है कि क्या ऐसे फैसलों पर सरकार अगले 15 साल के सपने देख रही है ? ऐसा है तो सरकार गफलत में है, त्रिवेंद्र को माणिक सरकार पर हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री परमार के व्यक्तित्व और कृतित्व पर गौर करना चाहिए । उन्हें समझना होगा कि राज्यों में लंबी सरकार सिर्फ ‘रिमोट’ के भरोस नहीं चला करती, इसके लिये जरूरी है राज्य के लिए व्यापक दृष्टिकोण और प्रतिबद्धता ।उत्तराखंड में तो हाल यह है कि सरकार अभी ‘फर्स्ट गियर’ में चल रही है, और ‘फर्स्ट गियर’ में तो न ‘कार’ रफ्तार पकड़ती है और न सरकार ।