कोई भी राजनीतिक दल गैरसैंण को राजधानी घोषित करके मैदानी वोट बैंक की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहता, किंतु पहाड़ी अंचलों के वोट भी अपनी झोली से गंवाने को तैयार नहीं। यही कारण है कि गैरसैंण सिर्फ सियासी ड्रामा तक सीमित है।
प्रदीप सती
”स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी, बाग के बबूल से,
और हम खड़े खड़े, बहार देखते रहे,
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे..”
गोपाल दास नीरज जी की यह रचना समय-समय पर तमाम घटनाओं के संदर्भ में प्रासंगिक नजर आती रही है। इस बार उनकी ये पंक्तियां गैरसैंण के दर्द पर पूरी तरह फिट बैठती हैं। दो दिन के सियासी तमाशे के लिए बीते 17-18 नवंबर को भराड़ीसैंण में जुटा मजमा वापस नकली राजधानी देहरादून के लिए निकल गया और गैरसैंण की जनता उनकी गाडिय़ों से उठने वाली धूल का गुबार देखती रह गई। जनता के हाथ इस बार भी कुछ नहीं आया। पिछले दो सत्रों की तरह सरकार इस बार भी उसके साथ छल करके निकल गई। किसी बड़ी खुशखबरी का इंतजार कर रही गैरसैंण की जनता पूरे दो दिन तक सरकार की तरफ टकटकी लगाए रही, लेकिन आखिर में उसके कानों को नेताओं और अफसरों की गाडिय़ों के कानफोड़ू हूटरों ने सुन्न कर दिया। सरकार ने गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने का सवाल एक बार फिर भविष्य की तरफ सरका दिया और चलती बनी। राज्य अवधारणा के प्रतीक इस नगर के साथ इससे बड़ा मजाक शायद ही कुछ और होगा।
साल 2014 में पहली बार गैरसैंण में तंबू के नीचे विधानसभा सत्र आयोजित हुआ था। उसके बाद अगले साल वहां पॉलीटेक्निक कालेज में सत्र का आयोजन किया गया। इस बार सरकार ने भराड़ीसैंण में निर्माणाधीन विधानसभा भवन में सत्र आयोजित किया। यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि थी। इस सत्र के लिए सरकार देहरादून से भारी भरकम अमला साथ लेकर आई थी। मंत्रियों और अफसरों को हैलीकॉप्टर में लादकर देहरादून से गैरसैंण पहुंचाया गया था। साथ ही देहरादून से पत्रकारों को भी सूचना विभाग द्वारा हायर की गई गाडिय़ों में गैरसैंण पहुंचाया गया था। सत्र शुरू होने से एक दिन पहले ही भराड़ीसैंण और उसके आसपास के इलाके को छावनी में तब्दील कर गया था। इस सबको देखकर प्रदेश की जनता सत्र में कुछ ‘बड़ाÓ होने की उम्मीद कर रही थी। उसे लग रहा था कि सरकार गैरसैंण को लेकर कोई बड़ा ‘सर्जिकलÓ फैसला ले सकती है। गैरसैंण पर विपक्षी दल भाजपा के कड़े तेवरों को देख कर भी यही लग रहा था कि सरकार उसे चुप कराने के लिए गैरसैंण के बारे में कुछ तो जरूर कहेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। गैरसैंण पर स्टैंड साफ करने की विपक्ष की मांग को न तो सरकार ने महत्व दिया और न ही विधानसभा अध्यक्ष ने। इससे नाराज विपक्ष ने पूरे सत्र का ही बहिष्कार कर दिया। प्रदेश के इतिहास में यह पहली बार हुआ, जब विपक्ष ने सरकार से नाराज होकर पूरे सत्र का ही बायकाट कर दिया। इसके बाद दूसरे दिन लगा कि घबराई सरकार अब कुछ डैमेज कंट्रोल तो करेगी ही, लेकिन सरकार ने सदन में अपने काम निपटाए और डैमेज कंट्रोल के नाम पर गैरसैंण को ‘सड़क मार्ग अवस्थापना विकास निगमÓ का झुनझुना थमाकर चलती बनी। सत्र की समाप्ति के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा कि यह निगम गैरसैंण को चारों तरफ से सड़कों के जाल से जोडऩे के लिए बनाया गया है। उन्होंने कहा कि गैरसैंण में बुनियादी सुविधाएं विकसित करने के क्रम में उठाया गया यह क्रांतिकारी कदम है। हरीश रावत ने कहा कि गैरसैंण को पूरी तरह सुविधाओं से लैस करने के बाद सभी की राय लेकर ही राजधानी का फैसला लिया जाएगा।
कुल मिलाकर उन्होंने एक बार फिर से गैरसैंण के सवाल को पीछे धकेल दिया। जिस नगर को राज्य आंदोलन के दौर में ही राज्य की राजधानी मान लिया गया था, उसे सरकार राज्य गठन के सोलह साल बाद भी राजधानी घोषित नहीं कर सकी। राजधानी तो छोडि़ए गैरसैंण की जनता और जनप्रतिनिधियों की भारी मांग के बावजूद सरकार इसे जिला बनाने तक को राजी नहीं हुई। बताया जा रहा है कि गैरसैंण को जिला बनाने को लेकर मुख्यमंत्री हरीश रावत पूरा मन बना चुके थे और सत्र के आखिरी दिन उन्हें इसकी घोषणा करनी थी, लेकिन कांग्रेस के अन्य विधायकों ने उनके कदम रोक दिए। इन विधायकों ने दलील दी कि केवल गैरसैंण को ही जिला घोषित करने से उनकी विधानसभा के लोग नाराज हो जाएंगें। विधायकों ने मुख्यमंत्री को दो टूक कह दिया कि या तो अन्य जिलों की भी घोषणा करें या गैरसैंण को भी ऐसे ही रहने दिया जाए। इसके बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत ने यथास्थिति बनाए रखना ही उचित समझा।
सवाल यह है कि आखिर यह यथास्थिति कब तक बनी रहेगी? पिछले सोलह सालों से गैरसैंण इस यथास्थिति से बाहर निकलने के लिए छटपटा रहा है, लेकिन किसी भी सरकार ने उसकी छटपटाहट दूर नहीं की। इन सोलह सालों में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सत्ता में रही। यहां तक कि गैरसैंण की सबसे बड़ी हिमायती बनने वाला क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल भी इस दौरान सरकार में हिस्सेदार रहा, लेकिन गैरसैंण के मुद्दे पर उसने भी कोई ठोस पहल नहीं की।
बहरहाल इस बार के सत्र से उम्मीदें बहुत ज्यादा थीं। इसकी सबसे अहम वजह एक तो यह थी कि सत्र भराड़ीसैंण के निर्माणाधीन विधानसभा भवन परिसर में आयोजित हो रहा था और दूसरी वजह था चुनावी साल। चूंकि चुनावी साल में सरकार जनता को खुश करने के लिए असंभव से असंभव कामों की भी घोषणा कर देती है। ऐसे में गैरसैंण तो राज्य आंदोलन की अवधारणा का प्रतीक था। राज्य आंदोलन के दौर में जब लोग सड़कों में उतर कर नारा लगाते थे कि, ‘उत्तराखंड की राजधानी?Ó तो पीछे से भीड़ एक स्वर में कहती थी, ‘गैरसैंण-गैरसैंणÓ इस लिहाज से भी देखें तो मुख्यमंत्री हरीश रावत सियासी लाभ लेने के लिए ही गैरसैंण को लेकर कोई बड़ा ऐलान कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
जाहिर है कि या तो उनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है या फिर वे यह मान चुके हैं कि गैरसैंण को राजधानी घोषित करने से सियासी लाभ नहीं, बल्कि नुकसान हो सकता है।
दरअसल मुख्यमंत्री हरीश रावत और उनकी सरकार अब यह मान चुकी है कि गैरसैंण को राजधानी घोषित करने से उन्हें फायदा कम और नुकसान ज्यादा होगा। बेशक गैरसैंण का स्थाई राजधानी बनना पूरे प्रदेश के हित में है, लेकिन राजनीतिक समीकरणों के लिहाज से देखें तो जो भी सरकार गैरसैंण को स्थाई राजधानी घोषित करने का फैसला करेगी, उसे अगले चुनाव में इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसका कारण यह है कि प्रदेश की ज्यादा विधानसभा सीटें मैदानी हिस्से में हैं। परिसीमन के बाद अब प्रदेश के पहाड़ी हिस्सों में सिर्फ 34 सीटें रह गई हैं। बाकी 36 सीटें मैदानी इलाकों में हैं। इसके अलावा टिहरी, उत्तरकाशी और जौनसार बावर के नजरिए से भी देखें तो वहां से गैरसैंण की दूरी देहरादून के मुकाबले ज्यादा है। ऐसे में कौन मुख्यमंत्री होगा, जो खुद के व्यक्तिगत नफा-नुकसान की परवाह किए बिना मैदान से दूर पहाड़ में राजधानी बनाने का साहस दिखा पाएगा? कम से कम हरीश रावत में तो यह दम नहीं नजर आता। ढाई साल से ज्यादा समय के उनके कार्यकाल को देखकर इतना तो साफ हो चुका है कि वे गैरसैंण को सियासत का केंद्र तो बनाए रखना चाहते हैं, लेकिन उसे कभी भी स्थाई राजधानी बनाने के पक्ष में नहीं हैं। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि एक तरफ वे गैरसैंण को अपनी ‘मांÓ बताते हैं और दूसरी तरफ उनके कार्यकाल में ही सरकार देहरादून के रायपुर इलाके में नया विधानसभा भवन और सचिवालय बनाने के लिए टेंडर निकाल चुकी है। यदि मुख्यमंत्री हरीश रावत और उनकी सरकार वाकई गैरसैंण के पक्ष में होती तो फिर क्या वे रायपुर में विधानसभा भवन बनाने की पहल को आगे बढ़ाते?
जिस प्रदेश की अभी तक राजधानी तय न हो, वहां दो-दो विधानसभा भवन बनाने की आखिर जरूरत क्या है? क्या मुख्यमंत्री हरीश रावत से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि यदि गैरसैंण उनकी मां है तो फिर रायपुर क्या है? कुल मिलाकर असल बात यही है कि ऐसा करके मुख्यमंत्री प्रदेश की जनता की आंखों में धूल झोंक रहे हैं।
अब जरा विपक्षी दल भाजपा की बात कर लेते हैं। गैरसैंण को लेकर भाजपा को भी दूध का धुला नहीं माना जा सकता है. बल्कि देखा जाए तो भाजपा तो गैरसैंण की सबसे बड़ी गुनाहगार है। 9 नवंबर 2000 को जब राज्य बना तो तब केंद्र के साथ ही राज्य में भी भाजपा की सरकार थी। तब भाजपा गैरसैंण को राजधानी घोषित कर सकती थी, लेकिन उसने ऐसा करने के बजाय देहरादून को अस्थाई राजधानी बना दिया, जबकि तब केंद्र सरकार ने उत्तराखंड के साथ दो और नए राज्य झारखंड और छत्तीसगढ़ का भी गठन किया, जिनकी राजधानी पहले ही दिन घोषित कर दी गई।
बहरहाल केंद्र के टरकाऊ रवैये के बाद अंतरिम राज्य सरकार चाहती तो गैरसैंण को स्थाई राजधानी घोषित कर सकती थी। उसके पास पूरे अधिकार भी थे, लेकिन उसने ऐसा करने की बजाय राजधानी का चयन करने के लिए एक आयोग गठित कर दिया। देश के इतिहास में यह संभवत पहली घटना होगी, जब किसी राज्य की राजधानी का चयन करने के लिए आयोग बनाया गया होगा।
बहरहाल इस आयोग ने जब साल 2008-09 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी, तब भी प्रदेश में भाजपा की ही सरकार थी। आयोग ने गैरसैंण को राजधाऩी बनाए जाने को लेकर तमाम खामियां गिनाई, लेकिन जब बात जनभावना की आई तो उसने भी यही माना कि ‘जनता के बहुमत की राय गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्ष में है।Ó लोकतंत्र में जनमत को सर्वोपरि माना जाता है। इस लिहाज से देखें तो तत्कालीन भाजपा सरकार को तुरंत ही गैरसैंण को स्थाई राजधानी घोषित कर देना चाहिए था, लेकिन उसने ऐसा करने के बजाय उल्टा आयोग की रिपोर्ट को ही दबा दिया। बाद में सूचना आयोग के दखल की बदौलत यह रिपोर्ट सार्वजनिक हो पाई। वर्तमान में राज्य में काग्रेस की सरकार है और भाजपा विपक्ष में है। विपक्ष में रहते हुए भाजपा अब कांग्रेस से मांग कर रही है कि वह राजधानी को लेकर अपना स्टैंड साफ करे। मगर क्या कांग्रेस से पूछने से पहले भाजपा को अपना स्टैंड साफ नहीं करना चाहिए? क्या उसे इस सवाल का जवाब नहीं देना चाहिए कि चुनावी साल में ही उसे गैरसैंण की याद क्यों आ रही है? क्या भाजपा को यह नहीं बताना चाहिए कि पिछले चार सालों में गैरसैंण के मुद्दे पर उसने क्या किया?
दरअसल सच यही है कि इस मुद्दे पर भाजपा भी सिर्फ और सिर्फ सियासत ही कर रही है। गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने के लिए यदि भाजपा गंभीर होती तो इस बार सत्र का बायकाट करने के बाद वह इस मुद्दे को लेकर जनता के बीच जाती और उसे लामबंद कर बड़ा आंदोलन करती, लेकिन ऐसा करने के बजाय वह सत्ता पाने के लिए की जा रही परिवर्तन यात्रा में लीन है। हालांकि वह इस यात्रा के दौरान खुद को गैरसैंण का हितैषी प्रचारित करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही। उसके तमाम नेता जनसभाओं में यही कह रहे हैं कि उन्होंने इस बार के सत्र का बहिष्कार इसीलिए किया, क्योंकि सरकार गैरसैंण के नाम पर जनता के साथ छल कर रही थी, लेकिन भाजपा के इस बायकाट पर कई सवाल किए जा सकते हंै, जिनसे पार्टी असहज हो सकती है।
सबसे अहम सवाल तो यही है कि यदि भाजपा गैरसैंण की सबसे सच्ची हिमायती है तो फिर जिस वक्त उसने गैरसैंण सत्र का बायकाट करने का फैसला लिया, उस वक्त सदन में उसके मात्र सात-आठ विधायक ही क्यों थे? पार्टी के बाकी विधायक उस वक्त कहां थे और क्या कर रहे थे, क्या भाजपा यह बता सकती है? जाहिर है, नहीं। तो फिर उसके इस बायकाट को भी क्यों न सियासी स्टंट माना जाए?
भाजपा की मंशा इसलिए भी सवालों के घेरे में है, क्योंकि इस बार के सत्र में वह सरकार से गैरसैंण को लेकर स्टैंड साफ करने की मांग तो कर रही थी, लेकिन गैरसैंण को लेकर उसका खुद का कोई स्टैंड नहीं था। भाजपा का यही कहना था कि गैरसैंण को लेकर सरकार जो भी ऐलान करेगी, वह उसका समर्थन करेगी। यानी भाजपा ने अपनी तरफ से गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग नहीं की, बल्कि सरकार से रुख साफ करने की मांग की।
राजनीतिक समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि इन दोनों ही मांगों में बहुत बड़ा अंतर है।
दरअसल भाजपा भी जानती है कि गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने से सियासी नफा कम और नुकसान ज्यादा है। इसलिए उसने खुद का स्टैंड साफ करने के बजाय सरकार से रुख साफ करने को कहा। इसे भाजपा का दोहरा चरित्र न कहा जाए तो क्या कहा जाए?
बहरहाल, दो दिन के सियासी ड्रामे के बाद अब भराड़ीसैंण फिर से वीरान हो गया है।
अगली बार जब यहां सत्र होगा, तब एक बार फिर यह वीरानी टूटेगी और एक बार फिर से पूरा तंत्र नकली राजधानी देहरादून से कूच कर कुछ दिनों के लिए यहां पड़ाव डालेगा। तब भी गैरसैंण की जनता कुछ बड़ा होने की उम्मीद में सरकार की तरफ टकटकी लगा कर देखेगी, लेकिन तब भी सरकार उसके साथ छल करके निकल जाएगी, और उसके हिस्से धूल का गुबार देखना ही आएगा।
संगीनों के साए में सत्र आयोजित कर जनता को डरा गई सरकार
गैरसैंण में तीसरी बार सत्र का आजोजन करवाने के बाद सरकार और उसके मुखिया फूले नहीं समाए हुए हैं। खुद का महिमामंडन करते
हुए मुख्यमंत्री हरीश रावत शेखी बघार रहे हैं कि उनकी सरकार गैरसैंण को राजधानी बनाने की दिशा में अब इतनी आगे बढ़ चुकी है कि पीछे हटने का सवाल ही नहीं पैदा होता। मुख्यमंत्री हरीश रावत, उनके मंत्रीगण और विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल का भराड़ीसैंण सत्र की समाप्ति के बाद यही कहना था कि वे गैरसैंण में राजधानी बनाने के लिए अनुकूल माहौल तैयार कर रहे हैं, लेकिन दो दिन तक चले विधानसभा सत्र के दौरान भराड़ीसैंण और उसके चारों तरफ दूर-दूर तक जिस तरह का माहौल रहा वह तो कुछ और ही कहानी कहता है। इन दो दिनों के दौरान भराड़ीसैंण और उसके आसपास का इलाका सामान्य पहाड़ी क्षेत्र न होकर छावनी सा लग रहा था। उत्तराखंड पुलिस के जवानों ने भराड़ीसैंण को चारों तरफ से ऐसे घेरा हुआ था, मानों उन्हें वहां किसी आतंकी हमला होने की खुफिया सूचना मिली हो। भराड़ीसैंण से १० से लेकर १५ किलोमीटर पहले अलग-अलग जगहों पर बैरीकेड्स लगाए पुलिस के हथियारबंद जवान लोगों और वाहनों की तलाशी ले रहे थे। गाडिय़ों की इस तरह तलाशी हो रही थी, मानो उनमें गोला बारूद भरा हो। और तो और सत्र के स्वागत के लिए पारंपरिक तथा स्थानीय देवताओं के परिधानों में पहुंचे कलाकारों तक की पुलिस ने खूब तलाशी ली।
गढ़वाल और कुमाऊं दोनों तरफ से आने वाली सड़कों पर पुलिस का कड़ा पहरा था। आदिबद्री से लेकर गैरसैंण तक हवा में एक अजीब तरह की बेचैनी महसूस हो रही थी। यह बेचैनी स्थानीय लोगों के चेहरों पर साफ दिख रही थी। पुलिस के पहरे का ही असर था कि इस बार पिछले दो सत्रों की तुलना में विधानसभा सत्र देखने के लिए कम स्थानीय लोग पहुंचे, जबकि इस बार सत्र निर्माणाधीन विधानसभा परिसर में आयोजित हुआ। ऐसे में माना यही जा रहा था कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस क्षण के गवाह बनेंगे, लेकिन कंधों पर बंदूक टांगे और हाथों में डंडे लिए पुलिस के जवानों को देख भला कौन नहीं डरेगा? एक ऐसा आयोजन जो स्थानीय जनता के लिए उत्सव होना चाहिए था, पुलिस के पहरे ने उसे कफ्र्यू जैसे माहौल में तब्दील कर दिया। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि क्या इसे राजधानी बनाने की दिशा में बनाया जा रहा माहौल माना जा सकता है?
वरिष्ठ पत्रकार और राज्य आंदोलनकारी पुरषोत्तम असनोड़ा कहते हैं, ”जिस माहौल को देखकर जनता के मन में हर्ष के बजाय खौफ पैदा हो, वह राजधानी बनाने का माहौल कैसे हो सकता है? जनता उम्मीद कर रही थी कि भराड़ीसैंण में होने वाला सत्र सहज, सरल और उसकी पहुंच में होगा, लेकिन सरकार ने संगीनों के साए में सत्र आयोजित करके जिस तरह का पुलिसिया खौफ दिखाया, वह यही साबित करता है कि सरकार गैरसैंण को राज्य की स्थाई राजधानी बनाने के विचार को डर के दम पर खत्म कर देना चाहती है।
दो दिन के सत्र के लिए सुरक्षा के इतने कड़े इंतजामों को लेकर सरकार की नीयत पर सवाल उठना इसलिए भी लाजिमी है कि इतने कड़े इंतजाम देहरादून में आयोजित होने वाले सत्रों में भी देखने को नहीं मिलते। ऐसे में सरकार का यह कदम यही जताता है कि ऐसा करके वह गैरसैंण की जनता के मन में राजधानी को लेकर डर का वातावरण पैदा करना चाहती है।
दीक्षित आयोग की कहानी
राज्य गठन के बाद स्थायी राजधानी का का फैसला खुद करने के बजाय तत्कालीन सरकार के मुखिया नित्यानंद स्वामी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति वीरेंद्र दीक्षित की अध्यक्षता में एक सदस्सीय आयोग का गठन किया। सालभर तक कुछ नहीं करने के बाद जस्टिस दीक्षित ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद साल 2002 में कांग्रेस के सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने इस आयोग को पुनर्जीवित किया। आयोग को छह महीने के अंदर अपनी रिपोर्ट सौंपनी थी, लेकिन छह महीने का वक्त सालों में बीतता गया। इसके बाद साल 2007 में भुवन चन्द्र खंडूड़ी मुख्यमंत्री बने। उनके कार्यकाल में भी दीक्षित आयोग को विस्तार दिया गया। कुल मिलाकर 11 बार आयोग का कार्यकाल बढ़ाया गया। आयोग पर 64 लाख रुपये से ज्यादा खर्च हुए। इसके बाद साल 2008-09 में जब आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो सरकार इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने को तैयार नहीं हुई। सूचना आयोग के दखल के बाद यह रिपोर्ट सामने आई। आज यह रिपोर्ट सचिवालय के किसी दफ्तर में पड़ी धूल फांक रही है, और दीमकों के लिए चारा उपलब्ध करा रही है।
सवालों के घेरे में कुंजवाल
गैरसैंण को राज्य की स्थाई राजधानी बनाने के बड़े हिमायतियों में विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल का नाम भी लिया जाता है। हरीश रावत से पहले जब विजय बहुगुणा प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब शायद ही कोई अवसर होगा, जब कुंजवाल ने गैरसैंण को स्थायी राजधानी घोषित करने को लेकर सरकार पर दबाव न डाला हो। विजय बहुगुणा द्वारा गैरसैंण में पहले कैबिनेट बैठक बुलाना और फिर वहां विधानसभा भवन बनाने की घोषणा करने के पीछे एक हद तक कुंजवाल का दवाब भी बड़ा कारक रहा, लेकिन जैसे ही बहुगुणा की विदाई हुई और हरीश रावत मुख्यमंत्री बने, कुंजवाल के रुख मे 180 डिग्री का बदलाव आ गया। अब कुंजवाल गैरसैंण को राजधानी बनाने की बात तो करते हैं, लेकिन साथ ही यह भी दलील देते हैं कि पहले वहां अवस्थापना सुविधाएं जुटा ली जाएं। हरीश रावत की तारीफ करते हुए कुंजवाल गाहे-बगाहे यह कहते सुने देखे जा सकते हैं कि वर्तमान सरकार गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की दिशा में सही तरीके से काम कर रही है।
मौजूदा सत्र की समाप्ति के बाद कुंजवाल का कहना था कि अब गैरसैंण को कोई भी सरकार नकार नहीं सकती, लेकिन सवाल यह है कि जब वहां विधानसभा भवन बन चुका है और अन्य निर्माण कार्य भी किए जा रहे हैं तो फिर स्थाई राजधानी की घोषणा करने में क्या अड़चन है? इसके लिए तो राज्य सरकार को केंद्र की भी अनुमति लेने की जरूरत नहीं।
दरअसल असल बात यही है कि कुंजवाल भी मुख्यमंत्री हरीश रावत की ही भाषा बोल रहे हैं। वे भी नहीं चाहते कि गैरसैंण कभी राज्य की राजधानी बने। यदि वे वास्तव में गैरसैंण के हिमायती होते तो क्या देहरादून के रायपुर में बनने जा रहे विधानसभा भवन के निर्माण की अनुमति देते? कुंजवाल के पास इस मामले में वीटो था। यदि वे चाहते तो यह कहते हुए देहरादून में बनने वाले विधानसभा भवन के प्रस्ताव को खारिज कर सकते थे कि पहले राज्य की स्थाई राजधानी का निर्धारण होना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय उन्होंने रायपुर में विधानसभा और सचिवालय भवन निर्माण की सहर्ष स्वीकृति दे दी। गैरसैंण को लेकर यह कुंजवाल का दोहरा चरित्र नहीं तो फिर क्या है? क्या यह न माना जाये कि गैरसैंण के मुद्दे पर उनकी जुबान भी मुख्यमंत्री हरीश रावत की तरह दोहरी भाषा बोल रही है?
”हमारे अलावा किसी ने भी वर्ष २००० से २०१४ तक गैरसैंण को लेकर चूं तक नहीं की। हमने गैरसैंण में कुछ ठोस शुरुआत की तो अब वही लोग गैरसैंण-गैरसैंण करने लगे हैं। जब तक हम गैरसैंण में राजधानी के स्तर का आधारभूत ढांचा और सुविधाएं विकसित नहीं कर लेते, तब तक किसी भी दबाव में कोई बड़ा निर्णय लेने से हमारी प्रशासनिक इकाइयों को भी परेशानी उठानी पड़ेगी और आम जनता को भी दिक्कतें पेश आएंगी। हम राजनीतिक नफा-नुकसान की चिंता छोड़ करके जनभावनाओं के अनुरूप ही आगे बढ़ रहे हैं।”
– हरीश रावत, मुख्यमंत्री उत्तराखंड
(लेखक दैनिक उत्तराखंड में कार्यरत हैं।)