मनीष ब्यास ‘मैक’
यह स्टार्टअप यम्केश्वर ब्लॉक के कंडवाल गांव में चल रहा है। मुख्यमंत्री ने यह धन इनको मशीन खरीदने के लिए दिया है। नम्रता और गौरव द्वारा संचालित इस स्टार्टअप के विषय में मुख्यमंत्री ने कहा है कि इन्होंने हेंप आधारित स्टार्टअप शुरू करके ग्रामीण युवाओं को स्वरोजगार की नई दिशा दिखाई है।
भांग की खेती और उससे उत्पाद तैयार करने के कार्यों प्रोत्साहित करने के बारे में सरकार अब तक हिचकती रही है।
अभी कुछ दिन पहले ही राज्यपाल ने दो बार भांग की खेती से संबंधित अध्यादेश लौटा दिया था।
दरअसल इस अध्यादेश में भांग की औद्योगिक खेती करने के लिए कई एकड़ जमीन खरीदे जाने की अनुमति देने का प्रावधान था तथा भांग की खेती के लिए जमीन को 30 साल के लिए लीज पर दे सकने का भी प्रावधान था।
राज्यपाल की हिचकिचाहट के बाद सरकार ने इस प्रावधान से कदम पीछे खींच तो लिए हैं लेकिन भविष्य के लिए कोई संकेत भी नहीं दिया है।
दूसरा तथ्य यह है कि अभी तक राज्य में औद्योगिक भांग के उत्पादन के बारे में कोई नीति नहीं बनी है।
तीसरा तथ्य यह है कि भांग के बीजों से और अन्य पत्तियों के अर्क से विभिन्न प्रकार की दर्द निवारक तथा अन्य दवाइयां बनाई जाती है जो भांग के रेशे से कई सौ गुना महंगी है किंतु सरकार मात्र भांग के रेशे से संबंधित उत्पाद बनाने के लिए ही भांग की खेती को बढ़ावा दे रही है।
यहीं पर सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है कि आखिर क्या कारण है कि सरकार ने भांग के बीजों और पत्तियों के औषधीय उपयोग के लिए तो लाइसेंस नहीं दिया है किंतु मात्र सिर्फ रेशे से कपड़ा और अन्य उत्पाद बनाने के लिए ही क्यों स्वीकृति दी है !
क्या सरकार इतनी मासूम है कि उसे यह पता नहीं है कि एक बार भांग की खेती व्यापक पैमाने पर शुरू हो गई तो इसके बीजों और पत्तियों का अर्क निकालकर औषधीय उपयोग हेतु व्यापक पैमाने पर तस्करी शुरू हो जाएगी !
इस तस्करी पर सरकार रोक लगाने में कितनी कामयाब हो सकती है, यह उत्तरकाशी के अफीम की खेती, कच्ची शराब के उत्पादन से लेकर नशे के लिए भांग उगाई जाने पर कितनी रोक लगा सकी है !
यह एक अहम सवाल है कि जब सरकार ने भांग की खेती का लाइसेंस देना ही है तो फिर सिर्फ भांग के रेशे के लिए ही क्यों ! इसके फार्मा इंडस्ट्री के उपयोग हेतु क्यों नहीं !
गौरतलब है कि विदेशों में कैंसर के रोगियों को कीमोथेरेपी बंद करके भांग से बनी दवाइयों को पेन किलर और पोस्ट कीमोथेरेपी के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
‘उत्तराखंड हेंप एसोसिएशन’ एक स्वयंसेवी संस्था है जिसे नम्रता और गौरव मिलकर चला रहे हैं।
यह दोनों हेंप को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मिल चुके हैं और कंडवाल गांव में हेंप रेशे से उत्पाद बनाने के लिए कार्यशाला भी कर चुके हैं। इससे पहले मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से संस्था की कई दौर की बातचीत हो चुकी है।
संस्था का कहना है कि हेंप बेस्ड इकोनामिक डेवलपमेंट मॉडल पर गांव का विकास हो सकता है और पलायन रुक सकता है।
उत्तराखंड सरकार ने भांग की खेती को भले ही राज्य में लीगलाइज कर लिया हो लेकिन अभी यह साफ नहीं है कि इस संस्था ने सेंट्रल नारकोटिक्स ब्यूरो और एक्साइज डिपार्टमेंट से भांग की खेती करने की जरूरी परमिट या अनुमति ली है या नही।
सवाल यह भी है कि यह संस्था ग्रामीणों के साथ मिलकर भांग से मेडिसिनल साबुन आदि भी बना रही है, क्या संस्था ने इसके लिए जरूरी अनुमतियां ले ली हैं !
क्योंकि वर्ष 2014 में देश की पहली भांग कंपनी ने उड़ीसा गवर्नमेंट से तथा नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो से जरूरी परमिट ले रखे हैं।
हालांकि उत्तराखंड हेंप एसोसिएशन कुछ स्थानीय मेलों में भांग के नशे से बने उत्पादों का स्टॉल भी लगा चुकी है। बहरहाल यदि सरकार वाकई उत्तराखंड के खेतों में भांग जमाने के प्रति गंभीर है तो इसे हिचक के हिचकोले खाने बंद करके मात्र रेशे की परमिशन देने से आगे बढ़कर मेडिसिनल उपयोग की भी अनुमति दे ही देनी चाहिए, तभी भांग की खेती से सही लाभ संभव है।
जाहिर है कि यह सुनिश्चित किया जाना भी जरूरी होगा कि उत्तराखंड में भांग की खेती केवल संस्थाओं के प्रोजेक्ट लेने अथवा कुछ बड़े चहेते उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने तक ही सीमित न रहे