विवादों में घिरी और एक सलाहकार व उसके खास चाहतों के द्वारा लाई गई आबकारी नीति में निकने गोलमाल के बाद अब सबसे बड़ा घोटाला सामने आने वाला है। यह घोटाला इस प्रकार अंजाम दिया जा रहा है कि इसमें कैबिनेट के फैसले को भी ताक पर रख दिया गया है। पूर्व में कैबिनेट से जिलेवार तय हुए राजस्व तय किया गया था। उसके राजस्व में सीधे तौर पर छेड़छाड़ की गई। कई जिलों के जिलाधिकारियों ने फाइल मंजूरी भी दे दी है, जबकि कई जिले के जिलाधिकारियों ने फाइल मंजूर करने से इंकार कर दिया है। यह बड़े घोटाले के रूप में देखा जा रहा है।
नीति तय होने के बाद इसमें छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता। यदि कोई फेरबदल होना है तो कैबिनेट स्तर से होना है। सवाल यह है कि क्या आबकारी मुख्यालय में बैठे दो-तीन लोग जिला स्तर पर ऐसा करवा रहे हैं या फिर आलाकमान से कितना फ्रीहैंड दे दिया गया है कि नियमों को कैबिनेट के आदेश को और हर उस बात को मानने से इंकार किया जा रहा, जो कि नीति में है। जब नीति शुरुआत में ही औंधे मुंह गिरकर धड़ाम हो गई है तो क्या सिर्फ फेस सेविंग के लिए ही लोगों को दुकान आवंटन के लिए आमंत्रित किया गया?
जानकारों का मानना है कि भविष्य में इसको मंजूरी देने वाले लोगों से लेकर जिले के आबकारी अधिकारी बुरी तरह फंस सकते हैं, जबकि घोटाले की जांच होना अभी बाकी है। मुख्यालय से लेकर शासन के अफसरों को जानकारी होने के बावजूद मौन रहना और भी चौंकाने वाला है। कई जिलों के ठेकों के राजस्व से हुए छेड़छाड़ सोशल मीडिया वायरल हो रहे हैं। ऐसे में इस प्रक्रिया पर भी सवाल उठ रहे हैं।
आबकारी नीति साफ तौर पर कहती है कि पहले रिन्यू, इसके बाद लॉटरी और ठेके टूटने की स्थिति में ठेकों को दो हिस्सों में बराबर हिस्सों में बांटा जाना चाहिए था। यानी बड़ा ठेका छोटा हो सकता था, लेकिन ठेके बांटे जाने से पहले ही सीधे तौर पर राजस्व में छेड़छाड़ किया जाना नीति विरुद्ध है। कहीं कुछ चुंनिदा लोगों को बड़ा फायदा तो नहीं पहुंचाया जा रहा है, यह भी बड़ा सवाल है।
कोटाबाग को अचानक तीन करोड़ बढ़ाने का क्या औचित्य है? कहीं ऐसा तो नहीं कि दुकान को उठने से रोकने का यह प्रयास है, नीति के अनुसार कार्यवाही क्यों नहीं?