श्रद्धांजलि : खटीमा रामपुर तिराहा गोलीकांड( 1 सितंबर 1994)) आइए फिर याद करें उस दिन क्या हुआ था !आप क्या कुछ संकल्प लेंगे !!
उत्तराखंड निर्माण के लिए चल रहे आंदोलन के दौर का वह दिन भी आंदोलन के दिनों की तरह ही था।
खटीमा के रामलीला मैदान में उत्तराखंड आंदोलनकारी इकट्ठा होकर जुलूस निकाल रहे थे। रामलीला मैदान में जनसभा के बाद दोपहर के समय सितारगंज रोड पर जैसे ही जुलूस थाने से होते हुए तहसील की ओर पहुंचने लगा। इतने में पुलिस थाने की तरफ से पथराव होने लगा। यह एक उकसावे वाली कार्रवाई थी।
आंदोलनकारी पुलिस की इस हरकत को समझ गए। उन्होंने संयम बरतने की अपील की तो पुलिस ने पानी की बौछार करते हुए रबर की गोलियां चलानी शुरू कर दी। लोगों ने इसका विरोध किया तो पुलिस जैसे इसी का इंतजार कर रही थी और पुलिस ने सीधे गोलियां चलानी शुरू कर दी।
पुलिस ने यह कार्यवाही तत्कालीन कोतवाली प्रभारी डीके केन के आदेश पर की थी।
अपनी कार्यवाही को सही ठहराने के लिए पुलिस ने खुद ही तहसील में वकीलों के मेज कुर्सी आदि सामानों में तोड़फोड़ करके उन्हें आग के हवाले कर दिया, ताकि उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर कार्यवाही करने को जायज ठहराया जा सके।
जुलूस निकाल रहे लोगों में अफरा तफरी मच गई डेढ़ घंटे तक कई राउंड फायर किए गए। इस गोलीकांड में 8 आंदोलनकारी शहीद हो गए और सैकड़ों घायल हो गए। पुलिस की गोली से भगवान सिंह, सलीम अहमद, भुवन सिंह, रामपाल, गोपीचंद, परमजीत सिंह, धर्मानंद भट्ट और प्रताप सिंह शहीद हो गए।
गोली लगने पर जब कुछ लोगों की मौत हो गई तो पुलिस ने 4 लाशों को उठाकर एलआईयू कार्यालय के पीछे छुपा दिया और रात में चुपके से शारदा नदी में बहा दिया। पुलिस ने बाकी चार लाशों को दिखाकर यही साबित करने पर तुली रही थी।
चार आंदोलनकारी मारे गए साथ ही यह तर्क दिया कि पहले आंदोलनकारियों ने गोली चलाई थी, उसकी जवाबी कार्रवाई में गोली चलानी पड़ी।
पुलिस का कहना था कि आंदोलनकारी महिलाओं के पास दरांतियां थी और पूर्व सैनिकों के पास लाइसेंसी बंदूक थी। लेकिन पुलिस कर्मी कभी भी इन दोनों हथियारों से हमले के निशान तक ना बता सके।
हमारे आंदोलनकारियों की शहादत पर राज्य गठन के बाद 20 साल तक भाजपा और कांग्रेस बारी बारी से राज करते रहे।
हमारे नेता तो अरबपति हो गए लेकिन जनता की मूलभूत समस्याएं ज्यों की त्यों हैं। जिस बेरोजगारी, महंगाई, पलायन, भ्रष्टाचार और अराजकता के खिलाफ हमारे आंदोलनकारियों ने शहादत दी वे समस्याएं आज भी ज्यों की त्यों है।
यहां तक कि उत्तराखंड आंदोलन के मुकदमे उत्तर प्रदेश ट्रांसफर हो गए। उत्तराखंड आंदोलन के दोषी अफसर भाजपा के ही शीर्ष नेताओं के निजी सचिव बन गए। लेकिन भाजपा कांग्रेस की सरकारों ने 26 साल में कभी उत्तराखंड आंदोलन में शहीद हुए, जेल गए आंदोलनकारियों को इंसाफ दिलाना तक उचित नहीं समझा।
आइए आज इस अवसर पर हम सभी उत्तराखंड के अमर शहीदों के सपनों का उत्तराखंड बनाने के लिए कुछ ठोस संकल्प ले और उस दिशा में गंभीरता से काम करें !