भूपेंद्र कुमार
उत्तराखंड के मैदानी इलाके छठ की छटा में सराबोर हैं। अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य देने का यह त्यौहार भारत की सांस्कृतिक विविधता मे अनोखा रंग जोड़ता है। उत्तराखंड में पिछले कुछ समय से छठ की छटा में राजनीतिक रंग भी घुलने लगा है।
राज्य बनने के बाद छोटे-मोटे काम-धंधों की खोज में पूर्वांचल से आए लाखों लोग उत्तराखंड में आजीविका कमा रहे हैं। पिछले डेढ़ दशक में मैदानी इलाकों की सार्वजनिक बेनाप तथा नदी किनारे की दरिया बुर्द जमीनों पर पूर्वांचल से आई एक बड़ी आबादी वैध-अवैध तरीके से बस गई है। एकमुश्त वोट बैंक की चाह में उत्तराखंड के जनप्रतिनिधियों ने इन्हें बसाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका उन्हें फायदा भी हुआ। उत्तराखंड के निर्माण कार्यों से लेकर अन्य मेहनत मजदूरी के कामों पर बिहार से आई एक बड़ी आबादी का एकाधिकार है। खासकर निर्माण क्षेत्र एक तरह से इन्हीं पर निर्भर है। हमारी पिछली सरकारों ने वोट बैंक की चाह में बिहार से रोजगार की खोज में आई एक बड़ी आबादी को अपने पक्ष में ध्रुवीकृत करने की दृष्टि से त्योहारों में अवकाश देने का राजनीतिक पैंतरा इस्तेमाल किया। यह पैंतरा हर बार इतनी सफाई से और इस तरीके से चला गया कि बिहार से आए लोगों को यह लगे कि जैसे उन पर यह कोई एहसान किया गया हो। पहले भी पूर्वांचल के अधिकारी कर्मचारियो की अच्छी तादाद यहाँ रही है लेकिन कदाचित वह वर्ग वोट मे रुचि नही रखता इसलिए इस दिशा मे ठोस राजनीतिक पहल नही हुई।
छठ पूजा के अवसर पर खास करके महिलाएं अत्यधिक व्यस्त हो जाती हैं और अपने रूटीन कामकाज पर नहीं जा पाती। ऐसे में उन्हें एक दो दिन की छुट्टी मिल भी जाए तो किसी को कोई गुरेज नहीं हो सकता। यह सभी का अधिकार भी है। किंतु छठ के अवकाश को जरूरत के बजाय राजनीतिक प्रतिबद्धता के फलस्वरूप दिए जाने वाले अवकाश में बदल दिए जाने से उत्तराखंड के लोग अपने स्थानीय त्योहारों पर भी अवकाश की मांग करने लगे हैं।
पहले जरूरत के हिसाब से मैदानी जिलों में ही छठ के अवसर पर अवकाश लागू किया गया था। वर्तमान सरकार ने इस अवकाश को पूरे उत्तराखंड के सार्वजनिक अवकाश में घोषित कर दिया और वह भी जल्दबाजी में किया गया। यह अवकाश वैसे भी वर्ष 2017 के लिए उत्तराखंड शासन द्वारा निर्बंधित अवकाश के रूप में घोषित किया गया था। सोशल मीडिया में इस अवकाश पर तरह-तरह की चर्चाएं दिन भर ट्रेंड करती रही।
लोगों ने हरेला फूलदेई, उत्तरायणी, इगास जैसे त्योहारों पर भी सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की मांग शुरू कर दी।
कुछ लोगों ने यह भी भविष्यवाणी कर दी कि अब ओणम पर भी छुट्टी घोषित की जाएगी। तो किसी ने स्थानीय त्योहारों पर अवकाश न करके छठ के अवसर पर छुट्टी घोषित होने को अपनी उपेक्षा बताया।
सोशल मीडिया पर दिन भर उत्तराखंड के त्योहारों पर भी अवकाश घोषित किए जाने की मांग की जाती रही। बहरहाल सभी सरकारें राजकाज राजनीतिक लाभ की दृष्टि से करती रही है। अब त्योहारों पर भी राजनीतिक दृष्टि से अवकाश घोषित किया जाने लगा है ।
इसमें यह बेहतर होता कि अवकाश पहले से ही तयशुदा ढंग से घोषित किया जाता ।ताकि लोग छुट्टी के दिन अपने हिसाब से अपना कार्यक्रम तय करते। यह अवकाश इतनी जल्दी में घोषित किया गया कि अवकाश जारी करने वाले शासनादेश में भी अवकाश का दिन गलती से 20 दिसंबर प्रिंट हो गया। और मजा देखिए कि टाइप करने वाले से लेकर लगभग आधे दर्जन अधिकारियों की नजर से गुजरने वाले इस पत्र पर अपर सचिव ने भी बिना देखे हस्ताक्षर कर दिए। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे अफसर इन छुट्टियों के प्रति कितने गंभीर हैं!
छठ की छुट्टी की घोषणा महज 1 दिन पहले शाम को 4:30 बजे घोषित की गई। जबकि स्कूलों की छुट्टी 3:30 बजे तक हो जाती है। इसका असर हुआ कि बच्चे स्कूल आ गए।
कई स्कूलों ने छठ के दिन ही छमाही की परीक्षाएं रखी हुई थी। इस तरह से अचानक छुट्टी घोषित किए जाने से आम लोगों की फजीहत तो हुई ही, सरकार की निर्णय क्षमता पर भी सवाल खड़े होते हैं। गौरतलब है कि 2 माह पहले भी आनन-फानन में अवकाश घोषित किए जाने से लोग छुट्टी जैसा सुकून नहीं ले पाए थे। छठ की छुट्टी को राजनीतिक दृष्टि से देखा जा रहा है और उत्तराखंड के लोग इस छुट्टी के कारण खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। पंकज सिंह महर ने इस पर एक बड़ी टिप्पणी लिख डाली तो बाकी लोग स्पीकर पोस्ट लगाते रहे। जो पाठक श्री मेहर की पोस्ट न देख पाए हो उनके लिए पर्वतजन यह पोस्ट हूबहू उद्धरित कर रहा है। अन्य लोगों द्वारा की गई टिप्पणियां भी अब अवलोकनीय है।
उम्मीद की जा रही है कि अब सरकार भविष्य में घोषित किए जाने वाले अवकाशों का बाकायदा पूर्वनियोजित कैलेंडर जारी करेगी, ताकि अनिश्चितता गलतफहमी की स्थिति न बने और यह महज राजनीतिक होंडा बनकर न रह जाए।साथ ही बिना वजह की टिप्पणियों से सरकार को असहज ना होना पड़े।
पंकज महर की टिप्पणी देखिए
उत्तराखण्ड की संस्कृति की समृद्धता के विस्तार का कोई अन्त नहीं है, लोक पर्व मनाने में तो इस सभ्यता का कोई सानी नहीं है। चाहे बसन्त ऋतु का स्वागत करने के लिये फुलदेई हो या, वैशाख का स्वागत करने के लिये बिखौती, हर ऋतु का स्वागत करने के लिये तीन बार हरेला, पशुधन का भरपूर लाभ लेने के लिये घी त्यार, पुषुडिया से लेकर नन्दा को मायके लाने का उत्सव आंठू…….इस दौरान लोक आह्लादित रहता है, प्रफ्फुलित रहता है, हर संक्रान्ति को कोई न कोई त्यार जरुर मनाया जाता है। उत्तराखण्ड के अलग-अलग अंचलों में और भी कई त्यार वृहद तरीके से मनाये जाते हैं।
कर्क संक्रान्ति को होने वाला हरेला त्यार समाज और पर्यावरणीय त्यार है, जिसमें वृक्षारोपण किया जाता है, इसके साथ ही बसन्त ऋतु का स्वागत करने के लिये चैत्र मास की संक्रान्ति को बच्चों को प्रकृति के साथ जोडने का उत्सव मनाया जाता है, जिसमें बच्चे जंगल से फूल लाकर गांव की हर देहरी पर रखते हैं। ९ नवम्बर, २००० को हमारा राज्य अलग हुआ था, उ०प्र० में तो हमारे त्यार-बार की खूशबू लखनऊ पहुंच नहीं पाती थी, हमने सोचा, अब हमारा ताऊ मुख्यमंत्री बनेगा और मौसा जी संस्कृति मंत्री, तब हमारे लोक पर्व भी सामने आ पायेंगे। अफसोस होता है कि राज्य गठन के बाद हम अपना सांस्कृतिक कैलेण्डर तैयार नहीं कर पाये हैं, राज्य में १३ जिले हैं, यह दो त्यार ऐसे हैं, जो ३ जिलों में आंशिक और बाकी १० जिलों में पूर्ण रुप से मनाये जाते हैं।
उत्तराखण्ड के लोक पर्व की सुध नहीं ली जा रही, इसका दुःख होता है, लेकिन यह बात कचोटती है कि सुदूर राज्यों के लोक पर्व के लिये हम वृहद तैयारी करते हैं, नगर प्रमुख घर घर जाकर बधाई देते हैं, उन पर्वों के लिये विशेष पार्क तैयार होते हैं। हमें इससे कोई दिक्कत नहीं है, हमें किसी पर्व को मनाये जाने या अवकाश से कोई परेशानी नहीं, लेकिन इस सबके पीछे की राजनीतिक कुटिलता से हमें जरुर दिक्कत है। हमारे त्यार-बार की अनदेखी हमें कचोटती है, दुख देती है, फ्रस्टेशन लाती है। कम से कम किसी राज्य की यूनीक आईडेंडिटी तो होनी ही चाहिये वह भी लोक जब अत्यधिक समृद्ध हो।
रसूल हमजातोव की एक उक्ति याद आ रही है- “यदि तुम अपने अतीत पर पिस्तौल चलाओगे तो भविष्य तुम पर तोप के गोले बरसायेगा।”
गौर कीजिएगा सरकार! जमाने की नजर आपकी हर जुंबिश पर है।