रिपोर्ट- राजकुमार सिंह परिहार
आन्दोलनों के इतिहास मे अमर बागेश्वर कि वो रक्तहीन क्रान्ति सभी को याद होगी जिसकी अभी पिछले साल ही वर्षी (शताब्दी वर्ष) मनायी गयी थी। कुली बेगार आन्दोलन स्वतन्त्रता पूर्व के मुख्य आन्दोलनों में से एक था, जिसमें ‘बेगार’ रूप में सभी गाँवों के निवासियों को बड़े हाकिमों, साहब, कमिश्नर, डिप्टी कमिश्नर आदि के आगमन पर उन्हें ‘बेगार’ रूप में अन्न, दूध, घास आदि उपलब्ध कराने के साथ सामान ढोने के लिए कुली रूप में गाँवों के लोगों का उपयोग किया जाता था।
उस समय आन्दोलन के प्रमुख लोगो ने सोचा उत्तरायणी के मेले में जब पहाड़ के कोने-कोने से जनता एकत्रित होगी तो उनके मध्य बेगार विरोधी प्रचार अधिक सफल होगा। तब 10 जनवरी 1921 को चिरंजीलाल साह, बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत सहित कुमाऊं परिषद के लगभग 50 कार्यकर्ता बागेश्वर पहुंचे। 12 जनवरी को दो बजे बागेश्वर में जलूस निकला। बताया जाता है कि जुलूस की परिणति विशाल सभा के रूप में हुई, जिसमें 10 हजार से अधिक लोग उपस्थित थे। 13 जनवरी को मकर संक्रांति के दिन दोपहर एक बजे के आसपास सरयू नदी के किनारे पर आमसभा आयोजित की गई। इसी समय कुछ मालगुजारी थोकदारों ने अपने गांव के कुली रजिस्टरों को सरयू में डुबो दिया। 14 जनवरी 1921 को बद्रीदत्त पांडे ने अत्यधिक उत्तेजनापूर्ण भाषण देते हुए समीप में स्थित बागनाथ मंदिर की ओर संकेत करते हुए जनता को शपथ लेने का आह्वान किया। सभी लोगों ने एक स्वर में कहा, आज से कुली उतार, कुली बेगार, बर्दायश नहीं देंगे। शंख ध्वनि और भारत माता की जय के नारों के बीच कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित कर दिया गया। तब अल्मोडा का तत्कालीन हाकिम डिप्टी कमिश्नर डायबल भीड़ में मौजूद था, उसने भीड़ पर गोली चलानी चाही, लेकिन पुलिस बल कम होने के कारण वह इसे मूर्त रूप नहीं दे पाया।
अंग्रेजों के शासन काल से चली आ रही इन हाकिमों कि प्रथा का अभी भी आजाद भारत मे कहीं-कहीं पर कभी-कभी बोलबाला गाये-बघाये देखने को मिल ही जाता है। ऐसा ही एक मामला देवभूमि कहलाने वाले प्रदेश उत्तराखंड के बागेश्वर जनपद कि ऐतिहासिक धरती पर देखने को मिला। अब मामला यहां कुछ उस समय के ठीक उलट है, तब हाकिम को बेगारी दी जाती थी, जो वर्तमान मे सम्भव नहीं है। परंतु हाकिम यहां चंद लोगों को बेगारी दे चलते बने।
एक आरटीआई के माध्यम से खुलासा हुआ कि वर्ष 2021-22 मे जिले के हाकिम आईएएस विनीत कुमार ने वरिष्ठ नागरिक जन कल्याण न्यास जनपद बागेश्वर द्वारा दिनांक 14 व 15 सितम्बर 2021 को कुली बेगार आन्दोलन की शताब्दी वर्ष के उपलक्ष मे प्रकाशित 1000 स्मारिका के भुगतान के लिए अनटाईद फंड से 1,33,350.00 रुपये का भुगतान किया गया है। जिसमे एक किताब का मूल्य लगभग 133.35 रु है।
जहां शिक्षा के क्षेत्र मे बागेश्वर जनपद लगातार बेहतर प्रदर्शन के माध्यम से विशेष स्थान बनाए हुये है, उस क्षेत्र मे हाकिम, वरिष्ठ नागरिक जन और जनप्रतिनिधि आंखे मुदे हुये हैं। ऐसे मे कैसे सरकारी विद्यालयों के बेहतर परिणाम प्राप्त होंगे? जहां आए दिन कुछ सरकारी शिक्षक इन हाकिम साहब के इर्द-गिर्द ही नजर आते थे, उनका भी शायद इस ओर कभी ध्यान गया हो। पर उम्मीद करते हैं खबर के बाद कुछ ध्यान तो लाजिम है। अगर फिर भी नहीं तो फिर कुछ कहना मुनासिब नहीं।
जबकि इसी वित्तीय वर्ष मे जनपद मुख्यालय के वि. मो. जो. स्मा. रा. इ. का. बागेश्वर एवं रा. इ. का. मण्डलसेरा बागेश्वर मे पुस्तकालय स्थापना के लिए 19,691.00 रु मात्र दिया गया है, जबकि वर्तमान समय पर रा. इ. का. बागेश्वर मे 369 और रा. इ. का. मण्डलसेरा मे 285 छात्र अध्यनरत बताये गये हैं। इस हिसाब से एक विद्यालय को मात्र 9,830 रु और एक छात्र को महज 30.11 रु ही प्राप्त हो पाये हैं। जबकि वित्तीय वर्ष 2021-22 मे जिले के इन हाकिम साहब द्वारा 2,84,61,538.00 रु अनटाईद फंड से खर्च किया गया। अब आप ही बताइये ऐसे मे कैसे शिक्षा के क्षेत्र मे नया मुकाम हासिल किया जा सकता है? क्या इसी दिन के लिए हमारे उत्तराखंड के आंदोलनकारियों ने अपनी कुर्बानी दी होगी?
जबकि सोचने वाली बात यह कि वरिष्ठ नागरिक जन कल्याण न्यास जनपद बागेश्वर समय-समय पर सहयोगकर्ताओं के माध्यम से लोगों की सहायता कराते आये हैं। जैसा कि किताब मे बताया गया है कोविड काल मे प्रवासी मजदूरों व असहाय लोगों को 11 सहयोगकर्ताओ कि मदद से सहायता पहुंचाई गयी। साथ ही 44 अन्य व्यक्तियों द्वारा इस स्मारिका के प्रकासन मे अपना आर्थिक सहयोग प्रदान किया है। आदि अन्य सामाजिक कार्य वरिष्ठ नागरिक जन कल्याण न्यास द्वारा किए जा रहे हैं।
एक दौर वो भी था जब हमारे घरों मे बुजुर्ग के तौर पर हमारे दादा-दादी अपने पोते या पोती के लिए अपना हिस्सा भी न्योछावर करने को तैयार रहते थे। अक्सर आप सभी ने बड़े बुजुर्गो को कहते सुना होगा हमने तो अपनी जिन्दगी जी ली है बेटा अब बच्चों के दिन हैं, परंतु आज के समाज मे ऐसा कहां। इससे बड़ा दुर्भाग्य आज के युवाओं का और क्या हो सकता है?
अब आप ही सोचिए? कहते हैं, महात्मा गाँधी ने बागेश्वर उत्तरायणी मेले में आयोजित इस शांतिपूर्ण सत्याग्रह की अभूतपूर्व विजय सुनी। इस जनांदोलन से अभिभूत होकर वह 22 जून सन् 1929 को बागेश्वर पधारे और उन्होंने यहाँ स्वराज मंदिर भूमि का शिलान्यास किया। इस पर यह कहते हुये कोई अतिसन्योक्ति नहीं होगी कि आज हमने इस ऐतिहासिक जगह पर एक हाकिम का बेगार देना देखा। अब देखने वाली बात यह है कि 3 व 4 सितम्बर को प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जनपद प्रवास पर बागेश्वर मे कुछ उदघाटन करने को है, क्या उन तक इस विषय को पहुंचाया जाता है या हाकिम के अपने राजदार मुलाजिमों द्वारा इस पर पर्दा डाला जाता है?