वीर माधो सिंह भंडारी उत्तराखंड टेक्निकल यूनिवर्सिटी कैंपस में वर्ष २०१२ में उत्तराखंड की बेटियों हेतु राज्य का एक मात्र सरकारी महिला इंजीनियरिंग कॉलेज प्रारम्भ से ही अधिकारियो और नेताओ की महत्वाकांक्षा की भेट चढ़ता रहा है।
जिसकी जानकारी समय समय पर विभिन्न समाचार पत्रों के माध्यम से संस्थान में पढ़ने वाली बेटियों के माता पिता को होती रही है, जिससे उनका विश्वास समय समय पर टूटता रहा।
वर्तमान में पुनः इतिहास दोहराने को तैयार है, विगत वर्षो में अपनी बेटियों को राज्य का एक मात्र महिला कॉलेज मान कर जिन माता पिता ने एडमिशन दिलवाया था वो विश्विद्यालय के कुलसचिव के ०५-०८-२०२३ के पत्र संख्या १६८६ के बाद से सदमे में है। छात्रों द्वारा भी संस्थान के सत्र २०२३-२४ के प्रथम दिवस हुई आप बीती से चकित है कि उन्होंने महिला कॉलेज में एडमिशन लिया था किन्तु पुरुष स्टूडेंट्स भी संस्थान में ऊपर से निचे तक भ्रमण कर रहे है। जिस पर संस्थान प्रशासन भी मौन है। हो भी क्यों ना, वो विश्विद्यालय के दबाव में है।
देखिए आदेश:
एक अलग पहाड़ी राज्य की लड़ाई लड़ने वाले आंदोलनकारियों के सपनो का उत्तराखंड ये कभी नहीं था,जिसमे उनकी बेटियों के लिए ही अब कोई स्थान नहीं बचा। दुर्भाग्य ये भी है कि जहा केंद्र सरकार के साथ साथ राज्य सरकार भी बेटी पढ़ाओ बेटी बचाव के नारे सिर्फ कागजो तक ही सीमित रखना चाहती हो, उस राज्य कि बेटियों के लिए और क्या अपेक्षा कि जा सकती है। शायद सभी मौन है सत्ता और ताकत के दबाओ में, ना ही क्षेत्रीय विधायक जी ने कभी संज्ञान लिया, ना ही तकनीकी शिक्षा मंत्री जी ने, ना ही तकनीकी सचिव महोदय ने, ना ही राज्य के युवा, ऊर्जावान मुख्यामंत्री जी ने। ले भी क्यों, कोई व्यक्तिगत स्वार्थ तो है नहीं, आज समाचार पत्रों में आएगा फिर इलेक्शन आते आते सब भूल जायेंगे।
सोचना होगा, क्या महिला प्रौद्योगिकी संस्थान का निर्माण विश्विद्यालय के कुलपति महोदय के सपने को पूरा करने को भेट चढ़ना होगा। विश्वविद्यालय परिसर में जब एक महिला इंजीनियरिंग कॉलेज था तो उसी परिसर में १०० मीटर के अंदर एक और इंजीनियरिंग कॉलेज को बिना तैयारी के प्रारम्भ करने का निर्णय क्या उचित था ?
उत्तराखंड में वर्ष २०११ के बाद से खुले इंजीनियरिंग कॉलेज पर नजर डाली जाये तो, सभी कॉलेज में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स के साथ साथ वह पढ़ाने वाले टीचर्स के भी बुरे हालत है। जिसकी न ही शासन को फिक्र है और ना ही प्रशासन को। विश्वविद्यालय कैंपस में बिना तैयारी के फिर से खोले गए इंजीनियरिंग कॉलेज यही दर्शाता है कि सिर्फ और सिर्फ किसी अधिकारी को सुविधा देने के लिए ये कदम है ना कि स्टूडेंट्स के लिए।
यदि स्टूडेंट्स के उज्वल भविष्य के लिए विश्विद्यालय प्रशासन की सोच होती तो शायद महिला प्रौद्योगिकी संस्थान की गरीब बेटियों के लिए विश्विद्यालय प्रशासन हॉस्टल का निर्माण करवाता, फैकल्टी ऑफ़ टेक्नोलॉजी बी. टेक प्रारंभ ना कर के उसमे चलने वाले ऍम.टेक कोर्स में नियमित टीचर्स की नियुक्ति करवाता किन्तु सत्य बिलकुल विपरीत है। शायद शासन या प्रशासन में कोई भी उत्तराखंड के लिए सोच रखता तो आज उत्तराखंड के इंजीनियरिंग कॉलेज की दशा कुछ और ही होती।
सवाल वही खड़ा है, इसके बाद भी उत्तराखंड की बेटियों का होगा क्या ?