जगमोहन रौतेला/हल्द्वानी
उत्तराखंड के कद्दावर नेता इंदिरा हृदयेश और यशपाल आर्य किसी न किसी मुद्दे के बहाने एक दूसरे पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष निशाना साधते रहते हैं। इसके पीछे दरअसल वर्चस्व की इस लड़ाई की तहकीकात करती एक रिपोर्ट
कभी एक ही पार्टी कांग्रेस में रहे उत्तराखंड के दो बड़े नेता परिवहन मंत्री यशपाल आर्य और नेता प्रतिपक्ष डा. इंदिरा हृदयेश की पुरानी राजनैतिक अदावत अब अलग-अलग पार्टियां होने के बाद भी एक बार फिर से सतह पर दिखाई दे रही है। इस बार हल्द्वानी के निर्माणाधीन आईएसबीटी और एनएच -74 के भूमि मुआवजा घोटाले के बहाने दोनों नेता एक-दूसरे पर अप्रत्यक्ष तौर पर घोटाला करने का आरोप लगाकर घेरने की कोशिश कर रहे हैं। हल्द्वानी में गत 9 मई 2017 को तब सनसनी फैल गई, जब वन विभाग की भूमि पर गौलापार में निर्माणाधीन अंतर्राज्यीय बस अड्डे में खुदाई के दौरान नरकंकाल मिलने का खुलासा हुआ।
नर कंकालों के मिलने और उसकी जांच के नाम पर आईएसबीटी का निर्माण कार्य रुकने से दो पुराने राजनैतिक प्रतिद्वंदी परिवहन मंत्री यशपाल आर्य और नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश आपस में भिड़ गए। कंकाल मिलने के बाद परिवहन मंत्री आर्य ने 11 मई को घटनास्थल का दौरा करने के साथ ही अगले आदेश तक निर्माण कार्य पर प्रतिबंध लगाने और जांच के आदेश दिए। जिस पर नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश ने 16 मई को सवाल उठाते हुए कहा कि ऐसा हल्द्वानी का विकास रोकने की साजिश के तहत किया गया है। मंत्री को इस तरह काम बंद करवाने का अधिकार नहीं है। उन्हें यदि काम बंद ही करवाना है तो पहले इसे मंत्रिमंडल से पास कराएं, तब जाकर काम बंद करें। उन्होंने कहा कि काम बंद करने से पहले मुझे भी विश्वास में नहीं लिया गया।
नेता प्रतिपक्ष पर पलटवार करते हुए परिवहन मंत्री आर्य ने कहा कि वह मामले को बेवजह तूल दे रही हैं। सरकार की मंशा विकास कार्यों को रोकने की नहीं है। कुछ कमियां मिली हैं। इसी वजह से फाइल तलब कर देखी जा रही है। अगर योजना में किसी तरह की अनियमितता हुई है तो उसकी जांच की जाएगी और दोषी के खिलाफ कार्यवाही भी होगी।
उल्लेखनीय है कि इस परियोजना को बनाने और नागार्जुन कंपनी को निर्माण कार्य सौंपे जाने पर अनियमितता की बात उठती रही है। इसके निर्माण की डीपीआर भी 60 करोड़ रुपए से बढ़कर 76 करोड़ पहुंच गई और आईएसबीटी का ढांचा भी छोटा हो गया। जहां पहले 60 करोड़ में चार मंजिला आईएसबीटी बनना था, वहीं बाद में दूसरी कंपनी को निर्माण कार्य मिलने के साथ ही उसकी लागत भी बढ़कर 76 करोड़ हो गई औैर आईएसबीटी की मंजिल भी घटकर तीन ही रह गई हैं। लागत बढऩे पर वित्त सचिव ने इस पर आपत्ति लगा दी थी और निविदा समिति ने भी उसे अपनी मंजूरी नहीं दी। जिसके बाद कांग्रेस सरकार के समय सीधे मंत्रिमंडल की मंजूरी के आधार पर नागार्जुन कंपनी को निर्माण कार्य सौंप दिया गया और उसे लगभग ७ करोड़ रुपए भी दे दिए गए। अब डीपीआर की संस्तुति के लिए फाइल मुख्य सचिव के यहां थी, जहां से उसे परिवहन मंत्री आर्य ने अपने पास तलब कर लिया है।
इसके बाद आईएसबीटी को लेकर यशपाल और इंदिरा में जुबानी जंग भी तेज हो गयी है और नेता प्रतिपक्ष अब यशपाल पर हमला करने का कोई अवसर खोना नहीं चाहती हैं। वैसे आईएसबीटी के निर्माण को परिवहन मंत्री की मंजूरी एक बार फिर से मिल गई है और निर्माण शुरू भी हो गया है। भले ही उसकी चाल में तेजी नहीं आ पा रही है।
यशपाल ने आईएसबीटी के बहाने इंदिरा पर हमला बोला तो इंदिरा भी क्यों चुप रहती। उन्होंने निर्माणाधीन एनएच-74 में हुए लगभग 400 करोड़ के भूमि मुआवजा घोटाले की जांच किए जाने की मांग के बहाने यशपाल पर हमला तेज किया। इस भूमि घोटाले की आंच सीधे तौर पर यशपाल आर्य तक पहुंच रही है, हालांकि घोटाले का खेल भाजपा की पूर्ववर्ती सरकार के समय ही शुरू हो गया था, लेकिन उसे अंजाम तक कांग्रेस की पिछली सरकार के समय पहुंचाया गया। तब यशपाल आर्य प्रदेश सरकार में राजस्व व सिंचाई मंत्री थे। इसी वजह से इस मामले में उंगली अप्रत्यक्ष तौर पर घोटाले के खुलासे के बाद से ही यशपाल आर्य की ओर मुख्यतौर पर उठती रही है, क्योंकि पूरे घोटाले में राजस्व विभाग की भूमिका पूरी तरह से संदिग्ध है। यशपाल के साथ ही ऊधमसिंहनगर जिले के तत्कालीन अधिकांश भाजपा विधायकों के हाथ भी भूमि मुआवजा की दलाली में सने हुए बताए जा रहे हैं।
बताया जाता है कि भाजपा अपने ही लोगों को बचाने के चक्कर में इस घोटाले की निष्पक्ष जांच से किसी न किसी बहाने से बचना चाहती है। पिछले दिनों इस मामले पर जब केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने प्रदेश सरकार के सीबीआई जांच के फैसले पर सवाल उठाते हुए प्रदेश सरकार को चिट्ठी लिखकर नाराजगी जाहिर की तो इसे भाजपा की बड़ी मछलियों को बचाने की कार्यवाही के रूप में देखा गया। नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश ने इसके बाद इसको तेजी से लपकते हुए भाजपा की केन्द्र व प्रदेश सरकार पर इसी तरह के आरोप लगाए और घोटाले की सीबीआई जांच की मांग की। उन्होंने मामले को विधानसभा के बजट सत्र में भी उठाया और सरकार को सदन में घेरने की कोशिश की।
एनएच-74 के भूमि मुआवजा घोटाले की जांच सीबीआई से करवाए जाने की मांग के पीछे इंदिरा हृदयेश की मंशा एक तीर से तीन शिकार करने की है। पहला वह यशपाल को इस बहाने भाजपा के अंदर कमजोर करना चाहती हैं। दूसरा हमला पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के ऊपर भी है, क्योंकि उनके मुख्यमंत्री रहते ही घोटाले को अंजाम तक पहुंचाया गया। अब हरीश रावत मुख्यमंत्री थे तो घोटाले की नैतिक जिम्मेदारी तो उनकी भी बनती ही है। मुख्यमंत्री होने के साथ ही लोक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी) भी तब हरीश रावत के पास ही था। प्रदेश में प्रशासनिक अधिकारियों व नेताओं की मिलीभगत से इतने बड़े घोटाले को खुलेरूप से अंजाम दिया जा रहा हो और उसकी भनक मुख्यमंत्री आवास तक न पहुंची हो, यह सत्ता के गलियारों में कोई मानने को तैयार नहीं है। भले ही हरीश रावत उससे अनजान रहे हों, लेकिन उनके किसी नजदीकी की मिलीभगत जरूर इस मामले में रही होगी। इंदिरा का तीसरा निशाना भाजपा पर है, क्योंकि कभी कांग्रेस के बड़े नेता रहे यशपाल आज भाजपा में ही नहीं हैं, बल्कि सरकार में मंत्री भी हैं। तत्कालीन भाजपा विधायकों के भी अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में बहती गंगा में हाथ धोने की चर्चा सत्ता के गलियारों में है।
अचानक से दोनों नेताओं के एक-दूसरे के खिलाफ हमलावर होने को राजनीति के जानकार कोई नई बात नहीं मानते हैं, बल्कि दोनों नेताओं के बीच राजनैतिक बैर दो दशक से भी पुराना है। कभी कांग्रेस में दोनों नेता पूर्व मुख्यमंत्री और दिग्गज नेता नारायण दत्त तिवारी के खास लोगों में थे और तिवारी गुट के माने जाते थे। उत्तराखंड बनने से पूर्व इंदिरा जहां 1972 से लगातार शिक्षक निर्वाचन सीट से विधान परिषद् के लिए निर्वाचित होती रही, वहीं यशपाल आर्य खटीमा (सुरक्षित) सीट से दो बार विधायक रहे। दोनों मूल रूप से हल्द्वानी के निवासी थे। यहीं से दोनों के बीच तिवारी की ज्यादा निकटता पाने की कोशिशें हुई और इसी कोशिश ने इन्हें आपस का राजनैतिक प्रतिद्वंदी बना दिया। एनडी से इंदिरा की निकटता तो बहुत थी, लेकिन तिवारी ने कभी भी उत्तर प्रदेश में इंदिरा को उभरने का मौका नहीं दिया। वह भी तब जब वे तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और कई बार केंद्र में मंत्री भी।
तिवारी तब कांग्रेस के बेहद प्रभावशाली नेताओं में थे। वे अगर चाहते तो इंदिरा हृदयेश उत्तर प्रदेश के समय ही प्रदेश सरकार में मंत्री होती। तिवारी जब भी उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बने इंदिरा ने मंत्री बनने के लिए पूरा जोर लगाया, लेकिन तिवारी ने हमेशा इंदिरा की उपेक्षा की। तिवारी द्वारा इसी तरह से उपेक्षा किए जाने के कारण ही जब 1995 में एनडी ने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से तीव्र मतभेदों के चलते कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह के साथ मिलकर तिवारी कांग्रेस बनाई तो इंदिरा हृदयेश ने उससे दूरी बना कर रखी, जबकि वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद् की सदस्य थी। इंदिरा की तिवारी से बनाई गई यह दूरी तब उत्तराखंड में बेहद राजनैतिक चर्चा का विषय रही। तिवारी इंदिरा के इस व्यवहार को नहीं भूले, हालांकि उन्होंने कभी भी इस मामले में सार्वजनिक टिप्पणी नहीं की। उसके बाद एनडी 1996 के लोकसभा चुनाव में तिवारी कांग्रेस के सांसद नैनीताल सीट से बने। 1998 में तिवारी ने कांग्रेस में वापसी कर ली। कांग्रेस में वापसी के बाद इंदिरा एक बार फिर से तिवारी के निकट के लोगों में शामिल हो गई।
इस बीच नवंबर 2000 में उत्तराखंड अलग राज्य बन गया। इंदिरा राज्य के अंतरिम विधानसभा की सदस्य थी। राज्य में जब 2002 में पहली बार विधानसभा के चुनाव हुए तो इंदिरा हृदयेश को हल्द्वानी विधानसभा सीट से इसी कारण तिवारी को मजबूरी में टिकट दिलवाना पड़ा। हरीश रावत तब कॉग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे। यशपाल आर्य मुक्तेश्वर (सुरक्षित) सीट से कांग्रेस प्रत्याशी थे। कांग्रेस में तिवारी गुट का होने के कारण विधानसभा चुनाव में हरीश रावत के समर्थकों ने इंदिरा के खिलाफ काम किया। यशपाल भले ही तिवारी समर्थक थे, लेकिन वह भी इंदिरा को जीतता हुआ नहीं देखना चाहते थे। उनके समर्थक भी रावत समर्थकों के साथ जा मिले, लेकिन तेजतर्रार मानी जाने वाली इंदिरा हृदयेश ने भाजपा के बंशीधर भगत को हराकर हल्द्वानी विधानसभा सीट जीत ली। चुनाव में कांग्रेस साधारण बहुमत से सत्ता प्राप्त करने में सफल रही। राजनैतिक तिकड़म में माहिर माने जाने वाले एनडी तिवारी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत की प्रबल दावेदारी को धकेलते हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे।
तिवारी जब अपने मंत्रिमण्डल का आकार तय कर रहे थे तो उसमें इंदिरा हृदयेश का स्थान नहीं था। तिवारी की मंशा इंदिरा को विधानसभा अध्यक्ष बनाने की थी, लेकिन इंदिरा ने स्पष्ट इंकार कर दिया और मंत्री बनने के लिए अपनी पुख्ता दावेदारी पेश की। जिसके बाद हारकर तिवारी को इंदिरा को मंत्री बनाना पड़ा और संसदीय कार्य व पीडब्लूडी जैसे महत्वपूर्ण विभाग भी देने पड़े। उस चुनाव में कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के चुनाव जीतने और गुटीय संतुलन साधने के लिए तिवारी चाहकर भी यशपाल आर्य को मंत्री नहीं बना पाए। इससे इंदिरा हृदयेश को कुछ संतोष भी हुआ, लेकिन उनका यह संतोष तब असंतोष में बदल गया, जब तिवारी ने आर्य को बिना किसी ज्यादा प्रशासनिक व वैधानिक अनुभव के विधानसभा अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठाने का निर्णय लिया। हालांकि तब हरीश रावत गुट और इंदिरा हृदयेश की ओर से इसका जबरदस्त विरोध पार्टी के अंदर किया गया, पर तिवारी ने किसी भी तरह के दबाव को मानने से इंकार कर दिया।
यशपाल आर्य का राजनैतिक जीवन यहीं से तेजी के साथ बदला। वे बिना किसी जोड़-तोड़ के एक संवैधानिक पद पर पहुंच गए। कम अनुभव के बाद भी आर्य को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने के सवाल पर तब एनडी तिवारी ने कहा था कि जब जिम्मेदारी मिलेगी, तभी अनुभव भी होगा और यशपाल अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभायेंगे। ऐसा ही उन्होंने किया भी। संसदीय कार्य मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष के रूप में दोनों नेताओं के बीच पूरे पांच साल तक सार्वजनिक रूप से कभी कोई विवाद सामने नहीं आया और जब भी अंदरखाने इस तरह की परिस्थितियां पैदा हुई तो तिवारी की मध्यस्थता से उसे सुलझा लिया गया। विवाद न होने के बाद भी दोनों के बीच समय-समय पर प्रतिद्वंदिता भी होती रही।
तिवारी द्वारा मुख्यमंत्री पद मुंह के सामने से छीन लिए जाने से हरीश रावत बहुत आहत और गुस्से में थे। इसी वजह से पूरे पांच साल तक हरीश जब तब एनडी के खिलाफ प्रदेश अध्यक्ष होने के बाद भी पार्टी में मोर्चा खोल कर रखते थे। इस मोर्चेबंदी में जब भी तिवारी के मुख्यमंत्री पद से हटने की चर्चाएं होती तो मंत्रिमंडल में नंबर दो पर मानी जाने के कारण इंदिरा की मुख्यमंत्री के लिए स्वाभाविक दावेदारी उभर कर सामने आती। इस दावेदारी के विरोध में हरीश गुट का साथ विधानसभा अध्यक्ष के रूप में यशपाल आर्य देते रहे। यह वह दौर था, जब कांग्रेस में तिवारी गुट का होने के बाद भी आर्य की हरीश गुट से अच्छी छनती थी। विधानसभा के दूसरे चुनाव में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। इंदिरा हृदयेश भी हल्द्वानी से चुनाव हार गई। इंदिरा की हार का मुख्य कारण उनका अक्खड़ स्वभाव व कांग्रेस के विद्रोही उम्मीदवार मोहन पाठक रहे।
माना जाता है कि इंदिरा को हराने के लिए ही आर्य ने पाठक की पीठ पर हाथ रखा और चुनाव लडऩे में मदद की। इंदिरा यह राजनैतिक चाल नहीं समझ पाई और उन्होंने पाठक की दावेदारी को बहुत ही हल्के में लिया। पाठक को मनाने की उनकी ओर से कोई पहल नहीं की गई। उन्हें लगा कि उनकी टक्कर का कोई नेता हल्द्वानी विधानसभा सीट में नहीं है और वह आसानी से चुनाव जीत जाएंगी। इसी राजनैतिक अतिविश्वास के कारण वह भाजपा के बंशीधर भगत से चुनाव हार गई। जीत भले ही भाजपा की हुई हो, लेकिन वरिष्ठ पत्रकार गणेश पाठक इसे भाजपा की जीत कम, कांग्रेस के विद्रोही मोहन पाठक के कारण हुई हार ज्यादा मानते हैं। तब मोहन को 10,361 वोट मिले थे और इंदिरा हृदयेश को भाजपा के बंशीधर भगत से 4,235 वोटों से हार का सामना करना पड़ा था। मोहन पाठक को मिले अधिकतर वोट कांग्रेस समर्थक ही थे। एनडी ने भी एक दिन रोड शो करने के अलावा इंदिरा की जीत के लिए ज्यादा जोर नहीं लगाया।
दूसरी ओर यशपाल आर्य दूसरी बार मुक्तेश्वर सीट से चुनाव जीतने में सफल रहे। आर्य का चुनाव जीतना और इंदिरा का चुनाव हार जाना ही दोनों के राजनैतिक जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ रहे। इंदिरा जहां कांग्रेस में कमजोर हुई, वहीं यशपाल मजबूत होकर उभरे। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में हरीश रावत के लगभग सात साल पूरे होने के बाद जब कांग्रेस नेतृत्व ने नए अध्यक्ष की तलाश शुरू की तो एनडी ने इंदिरा की बजाय यशपाल की पैरवी की और यशपाल से अच्छे राजनैतिक संबंध होने के कारण हरीश रावत ने भी कोई विरोध नहीं किया और अक्टूबर 2007 में यशपाल आर्य कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने। इंदिरा तब प्रदेश अध्यक्ष की मजबूत दावेदार थी, लेकिन एनडी और हरीश के विरोध के अलावा चुनावी हार उनकी राह का कांटा बन गए। यशपाल के प्रदेश अध्यक्ष बनने से इंदिरा को एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि कांग्रेस में तिवारी गुट की कमान संभालने की उनकी इच्छा धरी की धरी रह गई और वह कमान स्वाभाविक तौर पर यशपाल के पास चली गई, क्योंकि कांग्रेस में एनडी की राजनैतिक पारी अवसान की ओर तेजी के साथ बढ़ रही थी। इसके बाद तिवारी खेमे के कुमाऊं मण्डल के नेताओं के पास यशपाल की राजनैतिक छतरी के नीचे खड़े होने के अलावा और कोई चारा नहीं था। इंदिरा चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही थी।
तीसरा विधानसभा चुनाव 2012 में हुआ तो इंदिरा इस बार हल्द्वानी से चुनाव जीतने में सफल रही। यशपाल आर्य इस बार बाजपुर (सुरक्षित) विधानसभा सीट से चुनाव जीते। कांग्रेस जोड़-तोड़ कर सत्ता में तो पहुंच गई, लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर घमासान हो गया। हरीश रावत, सतपाल महाराज, विजय बहुगुणा, यशपाल आर्य व इंदिरा प्रमुख दावेदारों के रूप में सामने आए। कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी चौधरी वीरेन्द्र सिंह से अपने मधुर संबंधों की बदौलत विजय बहुगुणा मजबूत दावेदार बनकर उभरे तो एनडी तिवारी का आशीर्वाद भी विजय बहुगुणा को मिल गया। इसके बाद यशपाल और सतपाल भी विजय बहुगुणा के समर्थन में खड़े हो गए। सतपाल किसी भी स्थिति में हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनते नहीं देखना चाहते थे तो यही स्थिति यशपाल आर्य की थी। वह भी किसी स्थिति में इंदिरा के पक्ष में खड़े होने को तैयार नहीं थे। इसका सबसे बड़ा कारण एनडी को भी माना जाता है।
हरीश रावत और इंदिरा हृदयेश देखते रह गए और विजय बहुगुणा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन गए। वरिष्ठ पत्रकार गणेश पाठक कहते हैं कि इसके बाद कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में बड़ा तेज बदलाव आया। प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर यशपाल आर्य के विजय बहुगुणा के समर्थन में खड़े होने और इंदिरा का विरोधी होने से इंदिरा के लिए विजय बहुगुणा कैम्प में रहना मुश्किल था, क्योंकि वहां यशपाल ज्यादा मजबूत थे। इसके बाद इंदिरा ने तब केंद्र में राज्य मंत्री (बाद में मंत्री) और कांग्रेस के मजबूत नेता हरीश रावत से हाथ मिलाना मुनासिब समझा और वह हरीश समर्थक न होने के बाद भी उनके साथ चलने को मजबूर हुई। अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में हरीश रावत को दोनों नेताओं के बीच संतुलन साधने में कई बार परेशानियों का सामना करना पड़ा। हरीश रावत द्वारा इंदिरा को ज्यादा महत्व दिए जाने से कई बार यशपाल आर्य कोपभवन में चले जाते तो यशपाल को महत्व देने से कई बार इंदिरा दीदी रूठती हुई दिखाई दी।
यही कारण था कि जब गत 14 अक्टूर 2016 को मुख्यमंत्री हरीश रावत रावत हल्द्वानी के गौलापार में इंदिरा हृदयेश की स्वप्लिन परियोजनाओं में शामिल आईएसबीटी का भव्य शिलान्यास कर रहे थे तो यशपाल आर्य समारोह से गायब थे।
वे उस दिन समारोह स्थल से कुछ ही दूरी पर दूसरे कार्यक्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। इसे भी तब हरीश रावत के इंदिरा को ज्यादा महत्व दिए जाने के कारण पैदा हुई नाराजगी के रूप में देखा गया। दोनों के बीच वर्चस्व की जंग यहां तक पहुंची कि यशपाल को इंदिरा की हठधर्मिता के कारण उस कांग्रेस को छोडऩे को मजबूर होना पड़ा, जिसमें रहकर यशपाल ने राजनीति का ककहरा सीखा। जिस पार्टी ने एक सामान्य से ग्राम प्रधान यशपाल को यशपाल आर्य जी बनाया। यशपाल के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने का एकमात्र प्रमुख कारण उनके बेटे संजीव आर्य को नैनीताल से कांग्रेस का विधानसभा टिकट न मिलना रहा।
सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि पार्टी की नीति इसके आड़े आई, क्योंकि पार्टी नेतृत्व ने तय किया था कि एक परिवार में से एक व्यक्ति को ही टिकट मिलेगा। यशपाल आर्य खुद अपनी विधानसभा सीट बाजपुर से लडऩे के अलावा अपने बेटे संजीव को नैनीताल से चुनाव लड़वाने के इच्छुक थे।
यह बात उन्होंने सार्वजनिक रूप से अप्रत्यक्ष तौर पर स्वीकार भी की। इंदिरा हृदयेश भी खुद के अलावा अपने बेटे सुमित हृदयेश के लिए भी टिकट मांग रही थी, लेकिन उनके सामने दिक्कत यह थी कि मां-बेटे के लिए एकमात्र सुरक्षित सीट हल्द्वानी ही थी। बेटे को हल्द्वानी से टिकट दिए जाने की स्थिति में इंदिरा ने खुद के किच्छा व जसपुर से भी चुनाव लडऩे के शिगूफे छुड़वाए, लेकिन जब उन्हें इस बात का पता चला कि हल्द्वानी से केवल वे ही भाजपा को टक्कर दे सकती हैं, उनका पुत्र नहीं तो इसके बाद इंदिरा ने अपना पैंतरा बदला और खुद के हल्द्वानी से ही चुनाव लडऩे की घोषणा की।
इस निर्णय के बाद उनके बेटे सुमित हृदयेश के चुनाव लडऩे की संभावना स्वत: ही खत्म हो गई, क्योंकि उनका भी अपना जनाधार या पहचान हल्द्वानी विधानसभा सीट से बाहर और कहीं नहीं था। यह इंदिरा हृदयेश की अपनी बड़ी राजनैतिक कमजोरी भी रही है कि प्रदेश में दो-दो बार कांग्रेस की सरकार रही और मुख्यमंत्री चाहे एनडी तिवारी रहे हों, विजय बहुगुणा या फिर हरीश रावत, इंदिरा मंत्रिमंडल में राजनैतिक ताकत के लिहाज से हमेशा नंबर दो पर रहीं। इसके बाद भी वह हल्द्वानी विधानसभा सीट से बाहर अपना कोई जनाधार नहीं बना पाई। यहां तक कि हल्द्वानी से लगी हुई कालाढूंगी व लालकुआं विधानसभा सीट पर भी कोई बहुत दमदार राजनैतिक दखल इंदिरा का नहीं रहा। इसी वजह से अपने बेटे सुमित के कहीं और से चुनाव लडऩे की संभावनाओं के खत्म होने पर उन्होंने पार्टी के अंदर यशपाल के बेटे को टिकट देने का पुरजोर विरोध किया।
इस बहाने वह हरीश रावत पर भी हमला कर रही थी, क्योंकि उनके भी बेटों और बेटी के चुनाव लडऩे की चर्चाएं जोरों पर थी। इंदिरा को इन नेताओं के बेटों को टिकट मिलने और जीतने की स्थिति में खुद के पार्टी में बहुत कमजोर हो जाने का भविष्य का डर सता रहा था। इंदिरा को प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय का भी साथ मिला, जो उन दिनों मुख्यमंत्री हरीश रावत के साथ अपनी टिहरी विधानसभा सीट पर निर्दलीय विधायक व पर्यटन मंत्री दिनेश धनै को महत्व दिए जाने से खासे नाराज थे और वे भी चाहते थे कि हरीश रावत के किसी बेटे और बेटी को किसी भी स्थिति में विधानसभा चुनाव का टिकट न मिले। किशोर और इंदिरा के सुर मिलने के बाद यशपाल के लिए अपने बेटे संजीव को नैनीताल से टिकट दिलवाना एक तरह से नामुमकिन हो गया। अपने बेटे को विधानसभा का चुनाव लड़वाने की जिद पर अड़े यशपाल ने इसके बाद बेटे को नैनीताल से टिकट देने की शर्त पर भाजपा का दरवाजा खटखटाया। वहां से शर्त मंजूरी का आश्वासन मिलने के बाद यशपाल ने कांग्रेस से अचानक त्यागपत्र देकर कांग्रेस ही नहीं, उत्तराखंड के राजनैतिक गलियारों में भी सनसनी फैला दी थी।
इंदिरा के उस विरोध को शायद यशपाल आर्य भाजपा में जाने, प्रदेश सरकार में मंत्री होने और अपने बेटे संजीव आर्य के विधायक बनने के बाद भी भुला नहीं पाए हैं।
इसी वजह से इस बार निर्माणाधीन आईएसबीटी के निर्माण अनुबंध में गड़बड़ी की आशंका जताते हुए परिवहन मंत्री यशपाल आर्य की ओर से इंदिरा को घेरने की कोशिश के रूप में राजनैतिक हमला किया गया और इंदिरा ने एनएच-74 के भूमि मुआवजा घोटाले के बहाने यशपाल आर्य पर पलटवार किया है। घात-प्रतिघात की यह राजनीति किस मुकाम तक पहुंचेगी, यह भविष्य ही बताएगा।