दलितों का दमन

सामाजिक और आर्थिक तरक्की की सीढिय़ां चढ़ते जा रहे उत्तराखंड में दलित समाज के प्रति असहिष्णुता और हिंसा की घटनाएं चिंताजनक रूप से बढ़ रही हैं।

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मामचन्द शाह

नींव का पत्थर बनकर बुलंद इमारतों का निर्माण करने वाले दलितों पर उत्तराखंड में दमन बढ़ता जा रहा है। पिछले कुछ समय से देश सहित उत्तराखंड में जिस तेजी से अनुसूचित जाति के लोगों पर हमले व अत्याचार हो रहे हैं, वह देवभूमि की साख पर बट्टा लगा रहे हैं।
यूं तो उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून एजुकेशन हब के रूप में पूरी देश-दुनिया में विख्यात है, वहीं इसी राज्य में दलितों पर हमलों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है, यह निश्चित रूप से विकसित होते उत्तराखंड के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। यही नहीं इससे देवभूमि उत्तराखंड के सभ्य समाज की पोल भी खुल जाती है।
पिछले माह ५ अक्टूबर २०१६ को घटी बागेश्वर की घटना ही देख लीजिए, जिस तरह से शिक्षक घनश्याम कर्नाटक ने घराट (पनचक्की) को छूने मात्र से ही दलित सोनराम(३५) का दरांती से गला काटकर उसे मौत के घाट उतार दिया, इसकी परिकल्पना २१वीं सदी का पढ़े-लिखे व सभ्य समाज में तो कतई नहीं की जा सकती। हत्यारा घनश्याम कर्नाटक एक शिक्षक है, जो जातिवादी अंधविश्वास के कुएं का मेंढक साबित हुआ।
इस घटना को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तराखंड चाहे विकास के एवरेस्ट पर जा पहुंचे, शिक्षित व सभ्य समाज होने का जश्न मना ले, फिर भी यहां का समाज वैचारिक तौर पर अभी भी रूढि़वादी व जातिवादी जकडऩों से पूर्ण रूप से बाहर नहीं निकल पाया है।
इससे पहले देहरादून के रायपुर क्षेत्र में भी एक दलित महिला को सरेआम पीटा गया था। बाद में उसकी बेटियों की भी दून पुलिस ने पिटाई की। यही नहीं महिला व उसके पति को नौकरी से भी निकाल दिया गया। उस महिला का दोष सिर्फ इतना था कि वह अनुसूचित जाति की थी और उसका घर सीडीओ और सिटी मजिस्ट्रेट के घर के बीच में पड़ता था। जब इन अधिकारियों को इस बात का पता चला तो उन्होंने दलित परिवार को जंगल के रास्ते आने-जाने को मजबूर कर दिया।

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२० मई २०१६ को चकराता के शिलगुर देवता के मंदिर से लौटने के दौरान भाजपा के तत्कालीन राज्यसभा सांसद तरुण विजय व क्षेत्रीय नेता दैलत कुंवर की भी सवर्णों ने जमकर पिटाई कर दी थी। तब इसकी गूंज दिल्ली तक भी सुनाई दी थी। इस तरह की तमाम ऐसी घटनाएं हैं, जो वर्तमान विकसित व सभ्य समाज को भी कटघरे में खड़ा करती हैं।
एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर 18 मिनट पर एक दलित के खिलाफ अपराध घटित होता है। औसतन हर रोज तीन दलित महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं, दो दलित मारे जाते हैं और दो दलित घरों को जला दिया जाता है। 37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे रहते हंै, 54 फीसदी कुपोषित हैं, प्रति एक हजार दलित परिवारों में 83 बच्चे जन्म के एक साल के भीतर ही मर जाते हैं।
यही नहीं 45 फीसदी बच्चे निरक्षर रह जाते हैं। करीब 40 फीसदी सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को कतार से अलग बैठकर खाना पड़ता है, 48 फीसदी गांवों में पानी के स्रोतों पर जाने की दलितों को मनाही है।
बहरहाल, उत्तराखंड में दलितों का उपयोग वोट बैंक के लिए करने वाले दल आगामी चुनाव को देखते हुए दलित सम्मेलन कराने में मशगूल हैं।

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विभिन्न क्षेत्रों में राजनीतिक दलों द्वारा कराए जा रहे दलित सम्मेलनों का असली मकसद वोट बैंक की उपजाऊ फसल हासिल करना है, न कि सोनराम जैसे अनेकों परिवारों को न्याय दिलाकर समाज में बराबरी का हक दिलाना।

”उत्तराखंड में इस तरह की घटनाएं होना यहां के शिक्षित व विकसित समाज पर भी सवाल खड़े करता है। मैंने बागेश्वर के डीएम को भी चि_ी लिखकर पीडि़त परिवार को न्याय दिलाने की और दोषियों को कड़ी सजा दिलाने की मांग की है।”
– चंद्र सिंह
पूर्व आईएएस

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