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परिणाम बदला क्या बदलेगी परंपरा?

उत्तराखंड में पांच-पांच साल में कांग्रेस और भाजपा सरकार की अदला-बदली क्या आने वाले पांच साल बाद भी जारी रहेगी अथवा त्रिवेंद्र रावत का नेतृत्व इस परंपरा को बदलने में अपनी ठोस भूमिका निभाएगा!

हरिश्चंद्र चंदोला

उत्तराखंड में चुनाव के बाद जो बदलाव आया है वह उसकी राजनैतिक परंपरा बन गया है। वहां दो ही मुख्य राजनैतिक दल हैं भाजपा तथा कंाग्रेस। राज्य के जन्म से ही वहां जो दल सत्ता में रहता है वह चुनाव के बाद बदल जाता है। राज्य बनने पर पहले भाजपा सत्ता में आई, लेकिन पहल ही चुनाव में वह सत्ता खो बैठी और उसका स्थान कांग्रेस ने ले लिया। अगले चुनाव में कांग्रेस भाजपा को हराकर सत्ता में लौट आई। इस बार भी कांग्रेस को हराकर भाजपा सत्ता में लौट आई है। इस तरह का बदलाव इस पहाड़ी राज्य में परंपरा जैसा बन गया है।
किसी अन्य राजनैतिक दल का यहां वर्चस्व नहीं है, इसलिए इन दो के अलावा किसी अन्य का सत्ता में आना लगभग असंभव है। यह भी नहीं लगता है कि कभी दोनों दल मिली-जुली सरकार बना लें।
यह अवश्य हुआ है कि कांग्रेस के ही नेता दल बदल कर भाजपा में चले गए और चुनाव जीत सत्ता में आ गए। अब देखना यह है कि इनके साथ भाजपा कैसे सामंजस्य बनाती है। सतपाल महाराज जिनका नाम इस पद के लिए सबसे आगे आ रहा था, वे लगातार कांग्रेस के ही सदस्य रहे थे। हाल ही में वे भाजपा के पास चले गए। उनके पास राज्य में समर्थकों का दल है, किंतु प्रचंड बहुमत से जीती भाजपा में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उन्होंने मंत्री पद स्वीकार कर लिया।
पांच वर्ष बाद अगले चुनाव तक क्या स्थिति बनती है तथा कौन दल ताकतवर बन उभरता है, कहा नहीं जा सकता। सबसे बड़ा मुद्दा यहां है पहाड़ी राज्य की राजधानी को पहाड़ में ले आना। उसका सुदूर देहरादून घाटी में बने रहना वहां के निवासियों में किसी को भी नहीं भाता। दोनों प्रमुख दलों का कहना है कि पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में ही होनी चाहिए।
उसके लिए उपयुक्त स्थान गैरसैंण माना गया है। इसमें दोनों दलों की सहमति है। अब देखना है कि भाजपा इस सर्वंमान्य मांग पर क्या कदम उठाएगी? यह भी सही है कि जो भी दल राज्य सरकार का गठन करता है, उसके सत्ताधारी राजधानी को देहरादून में ही रखना चाहते हैं, क्योंकि वहां सब प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं। किसी भी अन्य पहाड़ी शहर में उतनी सारी सुविधाएं नहीं हैं। अन्य स्थान में आने-जाने की इतनी सुविधाएं नहीं है, जितनी देहरादून में, जो हवाई-जहाज, रेल तथा सड़कों से देशभर से जुड़ा है।
पहाड़ में आवागमन के साधन केवल सड़कें हैं, जिनकी दशा अधिकतर बुरी ही रहती है तथा जिन पर यात्रा करने में कई घंटा या दिन लग जाते हैं। पहाड़ में देहरादून जैसे अच्छे विद्यालय नहीं हैं, न ही खेल-कूद के स्थल हैं। अच्छे जीवन के अन्य साधन भी नहीं हैं। पहाड़ी लोग समझते हंै कि यदि राजधानी पहाड़ में आ गई तो यह सब साधन भी बन जाएंगे और हवाई-जहाज से यात्रा करने की सुविधाएं भी उपलब्ध हो जाएंगी।
पहाड़ के कुछ शहरों-स्थानों में हवाई-पट्टियां बन गई हैं, लेकिन उनसे हवाई-यात्राएं आरंभ नहीं हुईं। राज्य सरकार के पास अपने जहाज तथा हेलीकॉप्टर हैं, जिनसे उनके मंत्री तथा अधिकारी यात्रा कर दूृरस्थ स्थानों में भी शीघ्र पहुंच जाते हैं। राज्य के आम लोगों, छोटे व्यापारियों के पास इस प्रकार की यात्रा के लिए न सुविधाएं हैं न धन। दूर राजधानी पहुंचने तथा एक स्थान से दूसरे में जाने तक उन्हें सड़कों से कई घंटे या दिनभर लग जाता है।
राज्य को उन्नत बनाने को क्या किया जा सकता है, इस विषय पर सोचने के लिए देहरादून में रहने वाले नेताओं-अधिकारियों के पास समय नहीं होता। राज्य में कोई कल-कारखाने नहीं हैं और उसकी आय भी बहुत कम है, जिसके कारण वह प्रगति के साधन बनाने में सफल नहीं हो पाता। आय अधिक होती तो वह अवश्य साधन बनाने के प्रयास करता। साधन-विहीनता के कारण राज्य से पालायन लगातार बढ़ता जा रहा है। लाखों लोग काम की तलाश में गांव-घर छोड़ बाहर जा रहे हैं तथा गांव खाली हो मकान खंडहर तथा खेत बंजर होते जा रहे हैं। उनको बचाने का कोई उपाय अभी दिखाई नहीं देता। सुधरती आर्थिक स्थिति ही उनको बचाए रख सकती है। उस तक पहुंचने का कोई उपाय भी दिखाई नहीं देता। पढ़-लिख कर युवा काम की तलाश में पहाड़ों से निकल मैदानों को चले जाते हैं। यहां गांवों तथा शहरों में भी सुविधाओं का अभाव है। पीने का पानी भी ठीक से नहीं मिल पाता। गांवों से कई किलोमीटर चलकर उसे स्रोतों-नदियों से लाना पड़ता है। बिजली भी पर्याप्त नहीं है और कई गांव अभी भी अंधेरे में ही रहते हैं। जंगली-जानवर खेती को हानि पहुंचाते रहते हैं। जंगली-सुअर, बंदर, भालू इत्यादि का आतंक बना रहता है। उनसे फसलों को बचाना लगभग असंभव होता है। वन्य पशुओं को मारना संगीन अपराध होता है, जिसके लिए कठोर सजा मिलती है।
पहाड़ों में खनिज भंडार हैं, लेकिन राज्य सरकार ने न उनका पूरा सर्वेक्षण करवाया है, न ही केंद्र से उनके दोहन की आज्ञा मांगी है। खनिज आय के अच्छे साधन हो सकते थे, लेकिन उन पर कुछ भी काम नहीं किया गया है। केवल नदियों की लाई बालू-पत्थरों का दोहन किया जा रहा है, जो ठेकेदारों के हाथ में होता है, जिससे आम जनता को कोई लाभ नहीं होता। आय के नए साधन खोजने का काम भी नहीं होता। सरकारें लगभग अकर्मण्य रही हैं जो राज्य को प्रगति के पथ पर नहीं ले जा सकीं। लोग साधनहीन रहे और उनका प्रगति के पथ पर जाना अभी तक संभव नहीं हो पाया केन्द्र की सहायता भी कम ही रही और अधिकांश लोगों का जीवन अंधकारमय ही रहा, उससे निकलने के लिए पहाड़ के निवासी छटपटा रहे हैं।

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