अप्रैल के प्रथम सप्ताह में निकाय चुनावों की आचार संहिता और महीने के आखिर में प्रस्तावित चुनावों के बीच भले ही सरकार जीत-हार की गुणा भाग में लग गई हो, किंतु जनहित के कार्यों के लिए तय धनराशि का लैप्स होना सरकार की कार्य प्रणाली और इच्छाशक्ति दोनों पर सवाल खड़े करता है।
वित्तीय वर्ष 2017-18 कल ३१ मार्च को पूर्ण हो जाएगा। यूं तो वित्तीय वर्ष हर वर्ष बदलते रहते हैं, किंतु प्रचंड बहुमत वाली डबल इंजन सरकार आने के बाद विकास को पंख लगने की उम्मीदें पाले लोगों के लिए यह वर्ष काला साबित हुआ। सरकार की आपसी खींचतान की मार आखिरकार जनता को पड़ी।
हरिद्वार जिला पंचायत में १७ करोड़ रुपए के काम सिर्फ इसलिए नहीं हो पाए, क्योंकि वहां पर बसपा की जिला पंचायत अध्यक्ष थी। बसपा की जिला पंचायत अध्यक्ष के साथ सरकार की पटरी नहीं बैठी तो सरकार ने उसे अध्यक्ष पद से हटाकर अपने पसंदीदा को बना दिया, किंतु न्यायालय और सरकार के बीच मचे द्वंद में महत्वपूर्ण समय बर्बाद हो गया और १७ करोड़ रुपए कल लैप्स हो जाएंगे।
उत्तराखंड सरकार विगत एक वर्ष से नगर पंचायतों, नगरपालिकाओं और नगर निगमों के विस्तार की कवायद में लगी हुई है। प्रदेशभर के तकरीबन ५० ग्रामसभाओं में विगत ८ महीनों से राज्य वित्त व १४वें वित्त की तमाम योजनाओं का करोड़ों रुपए डंप पड़ा हुआ है। ग्रामसभाओं को नगर पंचायतों, नगरपालिकाओं और नगर निगमों के साथ जोडऩे के बाद इन ग्रामसभाओं में विगत आठ महीनों से एक फूटी कौड़ी का भी काम नहीं हुआ है। ग्राम प्रधानों के पास ग्राम प्रधान की जो मुहर है, वह सिर्फ जन्म प्रमाण पत्र, मृत्यु प्रमाण पत्र बनाने मात्र तक ही रह गई है। कायदे से सरकार को तमाम विकास कार्यों को ग्राम पंचायत विकास अधिकारियों व ब्लॉक स्तर व जिला पंचायत स्तर के अधिकारियों के माध्यम से जारी रखने चाहिए थे, किंतु अनिर्णय की स्थिति और न्यायालय के चक्कर में इन ५० ग्रामसभाओं में खर्च होने वाला करोड़ों रुपए भी राजनीति की भेंंट चढ़ गया।
ग्रामसभाओं से नगर निकायों के चुनाव लडऩे वाले सत्ता पक्ष के उम्मीदवार ही परेशान हैं कि अब किस तरह चुनाव मैदान में उतरें, जबकि विगत एक वर्ष से विकास कार्य ही ठप हैं।