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इसलिए करती है मित्र पुलिस उगाही!

in पर्वतजन
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भूपेंद्र कुमार

रोजमर्रा की पुलिसिया कार्यवाही के लिए विभाग से धन न मिलने के कारण पुलिस को यह खर्च या तो अपनी जेब से करना पड़ता है या फिर जनता की जेब से रसूख के बलबूते उगाही करनी पड़ती है

उत्तराखंड में चौतरफा दबाव झेलने वाली मित्र पुलिस की डिक्शनरी में अब एक नया शब्द जुड़ गया है। इस शब्द का नाम है ‘रसूखÓ। पुलिस विभाग के सिपाहियों के लिए जनता पर रौब गालिब कर उगाही करना इतनी सामान्य बात हो गई है कि अपने इस रसूख को कानूनन सही समझने लगे हैं और जब भी उनसे विभागीय कार्यों पर खर्च किए गए पैसे का स्रोत पूछा जाता है तो उन्हें बाकायदा सूचना के अधिकार में भी यह स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं होता कि ये सब खर्चे वे अपने रसूख पर करते हैं।

पुलिस कर्मचारियों को अपराधियों को पकडऩे के लिए दबिश में जाना हो या फिर किसी लावारिश लाश को मोर्चरी में रखना हो या फिर दाह संस्कार करना हो, इसके लिए पुलिस महकमे से भले ही एक निश्चित बजट तय होगा, किंतु या तो पुलिस को यह पैसा मिलता नहीं या फिर अधिकारी इस पैसे को खुद ही हजम कर जाते हैं।

पिछले दिनों इस संवाददाता ने पुलिस द्वारा किए जा रहे इन खर्चों के स्रोत की जानकारी मांगी तो जवाब आया कि ये खर्च सिपाही या तो अपने जेब से करते हैं या फिर थानेदारों के रसूख पर।

जेब की मुद्रा पर भारी मुर्दे

थाना रायपुर देहरादून से जब लावारिश लाशों के विषय में जानकारी मांगी गई तो तत्कालीन थानेदार मुकेश त्यागी ने बताया कि राज्य बनने से अब तक उनके क्षेत्र से ४२ लावारिश शव मिले हैं। जिसमें से कभी दून अस्पताल में बर्फ न होने पर निजी खर्चे से बर्फ की व्यवस्था करके लावारिश शव को रखा गया तो कभी महंत इंद्रेश अस्पताल के मोर्चरी फ्रीजर में कर्मचारीगणों के निजी खर्चे पर लावारिश शव को रखने की व्यवस्था की गई। मुकेश त्यागी कहते हैं कि इस कार्य के लिए सरकारी बजट की व्यवस्था नहीं है।

पुलिस को लावारिश लाशों का दाह संस्कार भी अपने खर्चे पर करना पड़ता है। थाना क्लेमेंटाउन के विनोद सिंह गुसाईं ने एक प्रश्न के जवाब में बताया कि उनके इलाके में मिले एक अज्ञात शव का दाह संस्कार लक्खीबाग श्मशान घाट पर पुलिस के सिपाही अनिल कुमार और विनोद थपलियाल द्वारा अपने निजी व्यय से कराया गया।

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वहीं जीआरपी थाने के थानाध्यक्ष कहते हैं कि उनके थाना क्षेत्र में भी लावारिश शवों को फ्रीजर में रखने की कोई व्यवस्था नहीं है तथा उनके दाह संस्कार का खर्च भी एसएचओ अथवा एसओ के व्यक्तिगत रसूख के बल पर उठाया जाता है।

दबिश के बने दबंग

किसी अपराध की जांच और आरोपियों की धरपकड़ के लिए पुलिस को राज्य व राज्य से बाहर भी दल-बल के साथ दबिश पर जाना पड़ता है। इसके लिए भी पुलिस को विभाग से बजट नहीं दिया जाता।

हरिद्वार थाना क्षेत्र के तत्कालीन थानाध्यक्ष ने स्वीकार किया कि उनके थाने से सभी दबिशें प्राइवेट वाहन से दी गई तथा प्राइवेट वाहन का किराया किसी मद से नहीं दिया गया। हालांकि वह बचाव में कहते हैं कि यह खर्च अधिकारी-कर्मचारीगणों द्वारा खुद उठाया जाता है।

ऊधमसिंहनगर जिले में सितारगंज थाने के कोतवाली निरीक्षक ने बताया कि उनके इलाके में सभी दबिश प्राइवेट वाहन से दी गई तथा इसका खर्च जन सहयोग द्वारा उठाया जाता है।

जाहिर है कि जन सहयोग कुछ और नहीं, बल्कि जो लोग अपनी शिकायत लेकर थाने में मुकदमा दर्ज कराने के लिए जाते हैं, उन्हीं से दबिश के लिए वाहन आदि का इंतजाम करने को कहा जाता है। यदि कोई पीडि़त वाहन उपलब्ध नहीं करा पाता तो जाहिर है कि पुलिस अपराधियों की धरपकड़ के लिए भी नहीं जाती।

ऊधमसिंहनगर के केलाखेड़ा के थानाध्यक्ष तो इतने घबरा गए कि उन्हें लगा कि ऐसी सूचना देना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए उन्होंने बता दिया कि उनके इलाके में कोई भी दबिश न तो प्राइवेट वाहन से दी गई, न ही सरकारी वाहन से। कई बार दबिश के लिए निजी खर्चे पर अन्य राज्यों में जाना पड़ता है, लेकिन उल्टे कानूनी झमेले से बचने के लिए उन्हें आसपास से ही गिरफ्तार दिखाया जाता है। ऐसे में पुलिस का मनोबल कैसे बना रहेगा, यह एक अहम् सवाल है।

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