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चूक गए प्रणव दा!

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गजेंद्र रावत

राष्ट्रपति के रूप में अपने आखिरी आधिकारिक दौरे पर उत्तराखंड आए भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के प्रति उत्तराखंड के लोगों मेें लंबे समय तक न सिर्फ भारी आक्रोश व्याप्त रहा, बल्कि लोगों ने उनके निर्णय की आलोचना भी की। प्रणव मुखर्जी कांग्रेस की आपसी राजनीति के द्वंद के कारण राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बने थे, क्योंकि तब कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा उनकी बढ़ती ताकत और उनकी स्वीकार्यता से इतना घबरा गया था कि उन्हें नेहरू-गांधी परिवार की परंपरागत राजनीति के डूबने की संभावना नजर आने लगी थी।
प्रणव मुखर्जी कांग्रेस के भीतर उन ताकतवर लोगों में रहे, जिन्होंने अपनी ताकत का न सिर्फकांग्रेस को, बल्कि देश-दुनिया को भी एहसास कराया। कांग्रेस छोडऩे से लेकर पुन: कांग्रेस में शामिल होने और कई दशकों का संसदीय ज्ञान देश के बड़े पदों पर रहने का अनुभव होने के बाद जब प्रणव मुखर्जी भारत के राष्ट्रपति बने तो लोगों को उम्मीद जगी कि प्रणव मुखर्जी देश के उन राष्ट्रपतियों की भांति साबित नहीं होंगे, जिन्हें ‘रबर स्टैंप’ की संज्ञा दी जाती थी।
भारत की राजनीति के बहुत भीतर तक रचे-बसे प्रणव मुखर्जी ने देश के सबसे गरीब तबके को भी देखा-भाला था तो देश के बड़े उद्योगपतियों के लिए नीतियां बनाने का भी उन्हें अनुभव था। उनके राष्ट्रपति बनने के बाद उम्मीद थी कि वो हटकर हर ऐसा निर्णय लेंगे, जो न सिर्फ भविष्य के लिए नजीर साबित होगा, बल्कि आने वाले वक्त के राष्ट्रपति उन्हीं के बनाए रास्ते पर चलेंगे।
उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के मोदी सरकार के निर्णय पर तत्काल हामी भरने के बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के निर्णय को असंवैधानिक करार दिया तो उस वक्त देश में मोदी सरकार से ज्यादा भारत सरकार के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी आलोचना के केंद्र में रहे कि आखिरकार मोदी सरकार तो कांग्रेसमुक्त अभियान में लगी है, किंतु देश के सर्वश्रेष्ठ कानूनविदें से लैस राष्ट्रपति ने आखिरकार मोदी सरकार की हां में हां क्यों मिलाई? कई लोगों ने तब इस प्रकार की प्रतिक्रिया भी दी कि संभवत: राष्ट्रपति के रूप में एक और कार्यकाल का लालच उन पर भारी पड़ गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कई मौकों पर जमकर तारीफ करने वाले प्रणव दा ने जीएसटी लागू होने की मध्यरात्रि पर संसद में दिए अपने भाषण में पहली बार जीएसटी पर न सिर्फ स्वयं श्रेय लेने वाला वक्तव्य दिया, बल्कि डूबती कांग्रेस को भी वे इसका श्रेय देने से नहीं चूके।
बात यहीं नहीं थमी। असल बात तो तब आई, जब प्रणव दा ने एक प्रकार से उस दिन, जबकि रामनाथ कोविंद को भाजपा अपना प्रत्याशी बता चुकी थी, तब नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते जीएसटी का विरोध करने वाली बात को भी अपने भाषण में शामिल कर एक प्रकार से नरेंद्र मोदी के प्रति प्रत्याशी चयन को लेकर आक्रोश दिखाने का काम किया। वर्षों से गरीब और सामान्य लोगों की समस्याओं को बहुत नजदीक से देखने-समझने वाले राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी चाहते तो राष्ट्रपति के लिए सड़क पर चलने वाले उस प्रोटोकॉल को जरूर बदल सकते थे, जिसके अंतर्गत राष्ट्रपति की फ्लीट के सड़क पर चलते वक्त किसी एंबुलेंस, बीमार, परीक्षा देने जा रहे विद्यार्थी, सामान्य नागरिक को उस सड़क पर फ्लीट की ओर देखने तक का भी अधिकार नहीं होता। ऐसी फ्लीट जब सड़क से गुजरती है तो ऐसा महसूस होता है कि भारतवर्ष में जब मुगल और अंग्रेज शासक राज करते होंगे, तब आम भारतीयों को इसी प्रकार की हेय दृष्टि से देखा जाता रहा होगा। उत्तराखंड के मसूरी में भी कहा जाता है कि उस दौर में वहां भी कुछ दीवारों पर तब ‘Dogs and Indians are not allowed in this road’ लिखा होता था। पिछली बार जब प्रणव मुखर्जी हरिद्वार में गंगा आरती में शामिल होने गए तो हरिद्वार से लेकर जौलीग्रांट एयर तक की खस्ताहाल सड़क को रातोंरात उनके लिए एक तरफ से चमचमाती हुई बना दी गई। आज जब वे एक बार फिर उत्तराखंड में हैं, उस सड़क का एक हिस्सा ही चलने लायक है, जो सिर्फ प्रणव दा के लिए बनाया गया था। दूसरे हिस्से के गड्ढे आज भी प्रदेश की जनता को गर्त में ले जाने का काम कर रहे हैं। उत्तराखंड की विधानसभा में प्रबोधन के लिए आए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की फ्लीट के लिए तब उस रूट के सारे स्पीड ब्रेकर तोड़ दिए गए थे, ताकि प्रणव दा को झटके न लग सकें। जिस व्यक्ति ने लंबे समय तक राजनैतिक जीवन में बड़े-बड़े झटके खाएं हों, ऐसी शख्सियत से यह देश ऐसी उम्मीद जरूर लगाता था कि वे आम जन की इन परेशानियों को जरूर समझेंगे। तब उनकी सुविधा के लिए तोड़े गए स्पीड ब्र्रेकरों के कारण कई लोग दुर्घटना का शिकार हुए।
राष्ट्रपति के रूप में काम करते हुए निश्चित रूप से प्रणव मुखर्जी ने भारत का गौरव बढ़ाने वाले काम भी किए, किंतु ये कुछ इतने छोटे-छोटे निर्णय आज भी आजाद भारत में लोकतंत्र होने के बावजूद कहीं भी आजादी का एहसास नहीं कराते हैं। राष्ट्रपति के देश के भीतर किसी एक दौरे पर करोड़ से अधिक रुपए खर्च होते हैं, किंतु आज तक इन तमाम खर्चों पर कटौती करने या रोकने की किसी प्रकार के प्रयास वो अपने कार्यकाल में नहीं कर पाए। भारत जैसे विकासशील देश जहां आज भी सौ करोड़ गरीब या मध्यम वर्ग के लोग हैं, जाते-जाते भी प्रणव मुखर्जी उनके दिलों में राज करने वाले राष्ट्रपति नहीं बन पाए। उनके वनस्पत गैर राजनीतिक होने के बाद राष्ट्रपति बने अब्दुल कलाम आज भी देश के दिलों में छाए हुए हैं।

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