शिव प्रसाद सेमवाल//
यह तो सभी मानते हैं कि उत्तराखंड सरकार पर दोतरफा दबाव है। एक तरफ भाजपा आलाकमान की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का दबाव है तो दूसरी तरफ पड़ोसी राज्य और उत्तराखंड मूल के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राज कौशल के सामने कहीं भी उन्नीस साबित न होने का प्रेशर है। इस बार की आवरण कथा उत्तराखंड के संसाधनों पर भारी फिजूलखर्ची पर फोकस है।
उत्तराखंड सरकार के पास ऐसा कोई विजनरी व्यक्ति नहीं है, जो सरकार की फिजूलखर्ची को रोककर आय के संसाधनों को बढ़ाने का ब्लू प्रिंट रखता हो। जिन लोगों के पास यह सोच और समझ है, वे लोग मुख्यमंत्री को इर्द-गिर्द से घेरे हुए कॉकश के कारण इतने दूर खड़े हैं कि चाहकर भी अपने सुझाव नहीं दे सकते।
मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द का जमावड़ा सीएम की छवि को उभारने और निखारने की बजाय अपने संपर्कों और अपने व्यवसायिक हितों को बढ़ाने के लिए ज्यादा चिंतित है। इसके कारण मुख्यमंत्री के पास न तो इतना समय और अवसर है कि वे राज्य की डांवाडोल आर्थिक स्थिति के बारे में गंभीरता से सोच सकें और न ही उनके पास ठोस कार्य योजना दे सकने वाले दिमाग हैं।
इस अभाव के कारण हो यह रहा है कि वह अपने मौलिक चिंतन और मौलिक कार्य योजना के बजाय पड़ोसी राज्य और केंद्र की अंधी नकल करने तक सीमित रह गए हैं। उदाहरण के तौर पर जब उत्तर प्रदेश की योगी सरकार तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिजूलखर्ची रोकने के लिए बुके के बजाय बुक देने की शुरुआत की तो त्रिवेंद्र रावत ने भी उत्तराखंड में इसे अपना लिया, लेकिन वह यह भूल गए कि यह मात्र सांकेतिक था।
पिछले दिनों सहारनपुर रोड स्थित एक थ्री स्टार होटल में हिमालय दिवस मनाया गया। इसके साथ ही सरकार के अधिकांश कार्यक्रम स्टार होटलों में संपन्न हो रहे हैं। यदि सरकार वाकई कार्यक्रमों में होने वाले खर्चों को रोकने के प्रति मौलिक रूप से चिंतित होती तो बुके के साथ-साथ स्टार होटलों के कार्यक्रमों पर भी रोक लगाई जा सकती थी। यह बात सभी को पता है कि उत्तराखंड के देहरादून में ही टाउनहॉल, वन विभाग का मंथन सभागार सहित कई सरकारी सभागार बहुत अच्छी स्थिति में मौजूद हैं।
आज एक आम उपभोक्ता भी यह बात जानता है कि मात्र तीन साढ़े तीन सौ रुपए में अनलिमिटेड कॉल और रोजाना एक जीबी डाटा की सुविधा सभी टेलीफोन कंपनियां उपलब्ध करा रही हैं। ऐसे में विधायकों और तमाम अधिकारी कर्मचारियों को हजारों रुपए टेलीफोन भत्ता दिया जाना इस बात को दर्शाता है कि प्रचंड बहुमत की सरकार के पास इन वाजिब खर्चों में कटौती करने का नैतिक साहस भी नहीं है।
वर्तमान में करीब डेढ़ लाख अफसर और कर्मचारी तथा सवा लाख पेंशनर उत्तराखंड पर वित्तीय जिम्मेदारी की तरह हैं, लेकिन उत्तराखंड सरकार अभी भी एक-एक अफसर को मिली हुई चार-चार गाडिय़ों की सुविधा वापस नहीं ले पा रही है। सरकारी हैलीकॉप्टरों का बेइंतहा इस्तेमाल हो रहा है। विभिन्न आयोगों पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। रिटायर नौकरशाहों के पुनर्वास की समीक्षा करने का साहस यह सरकार अभी तक नहीं जुटा पाई है। सरकारी कार्यक्रमों को आलीशान होटलों में अभी भी संपन्न कराया जा रहा है।
यही नहीं स्वायत्तशासी और स्ववित्त पोषित संस्थानों की तरफ से तो एक तरह से आंखें ही मूंदी हुई हैं। सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकार की तरह खुले बाजार से ऋण लेकर काम चलाने के लिए मजबूर है। यह स्थिति तब है, जबकि विभिन्न विभागों में आज भी लगभग ६५ हजार पद खाली हैं। यदि वाकई ये पद भी भर दिए जाएं तो स्थिति और भी विकट हो सकती है।
पिछले दिनों नैनीताल में एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान प्रमुख सचिव वित्त राधा रतूड़ी को कहना पड़ा था कि इस राज्य में कुल बजट का ८० फीसदी खर्च तो वेतन और पेंशन में ही जा रहा है। विकास कार्यों के नाम पर मात्र २० प्रतिशत धनराशि ही खर्च हो रही है। इस २० प्रतिशत में भी अधिकांश हिस्सा सर्वे, कंसल्टेंसी, गाड़ी-घोड़े, कागज-पतरे और कमीशनखोरी में ही जाया हो रहा है। तो आप समझ सकते हैं कि वास्तव में विकास के असल कार्य में कितना पैसा पहुंच पा रहा है। यह राजीव गांधी के उसी कथन को चरितार्थ करता है कि दरअसल सौ रुपए में से दस रुपए ही आम आदमी तक पहुंच पाता है।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत प्रचंड बहुमत के जनादेश पर सवार हैं। उनके पास अब तक के मुख्यमंत्रियों से कहीं ज्यादा अवसर और कहीं कम चुनौतियां हैं। वे चाहें तो समय की नजाकत को देखते हुए कुछ माकूल निर्णय लेकर इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अपना नाम दर्ज करा सकते हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि जब जातिगत हिंसा, राम रहीम प्रकरण और अन्य गृह युद्ध जैसे हालातों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने हरियाणा के मनोहर लाल खट्टर को नहीं हटाया तो उनकी कुर्सी को भी फिलहाल कोई खतरा नहीं, इसलिए उनके पास राज्यहित में कुछ ठोस और मौलिक निर्णय लेकर अपनी क्षमता को प्रदर्शित करने का बेहतरीन अवसर है और उन्हें यह नहीं खोना चाहिए।