कृष्णा बिष्ट
“घर का जोगी जोगटा आन गाँव का सिद्ध”
2015 में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखरता से लड़ने के लिए “रेमन मैग्सेसे” पुरस्कार से सम्मानित आईएफएस अधिकारी संजीव चतुर्वेदी को आज कौन नहीं जानता विजिलेंस यानि सतर्कता में अपनी विशेष महारत रखने वाले इस अधिकारी को देश की विभिन्न संवैधानिक संस्थाएं अपने वहाँ आमंत्रित कर उनके अनुभवों का लाभ ले रहे हैं।
हैदराबाद दो बार बुला चुका
अक्टूबर 2017 राष्ट्रीय पुलिस अकादमी, हैदराबाद ने इन को अपने वहाँ प्रशासन व भ्रष्टाचार पर लेक्चर के लिए आमंत्रित किया, जहाँ देश की विभिन्न खुफिया एजेंसियों जैसे सीबीआई, ईडी, एंटी करप्शन ब्यूरो आदि के अधिकारी मौजूद थे, मई 2018 में एक बार फिर से इसी अकादमी ने चतुर्वेदी को आमंत्रित किया, उसी माह ए.टी.आई नैनीताल ने भी संजीव से आईएफएस अधिकारियों को प्रशासन व भ्रष्टाचार पर लैक्चर के लिए आमंत्रित किया। जनवरी 2018 मे भी ए.टी.आई नैनीताल ने डी.एसपी व एसडीएम स्तर के अधिकारियों को प्रशासनिक गुर सिखाने को आमन्त्रित किया। इसी वर्ष 25 मई एफ.टी.आई देहरादून ने भी इन को अपना ज्ञान साझा करने के आमन्त्रित किया।
अब सवाल ये खड़ा होता है की अगर इतनी बड़ी संवैधानिक संस्थाएं संजीव चतुर्वेदी को इतना बेहतरीन प्रशासक व भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने में सक्षम अधिकारी मानती हैं तो फिर जीरो टॉलरेंस का दंभ भरने वाली उत्तराखंड सरकार चतुर्वेदी को उनकी काबिलियत के हिसाब से काम क्यों नहीं देना चाहती ! क्यों सतर्कता में महारत रखने वाले अधिकारी को फारेस्ट रिसर्च जैसी जगह “डंप” किया हुआ है?
चंडीगढ़ ने तो काम ही सौंप दिया
यहाँ तक कि 12 जून 2018 को चंडीगढ़ हाउसिंग बोर्ड ने तक संजीव को अपने वहां हुए 10 करोड़ के घोटाले की जाँच के लिए आर्बिट्रेटर नियुक्त किया है, जिस पद पर अधिकतर आज तक पूर्व जजों को ही नियुक्ति मिलती थी।
इसी को कहते हैं,- “घर का जोगी जोगटा आन गाँव का सिद्ध।” इन अफसर की अपने घर में तो पूछ नहीं लेकिन घर से बाहर दुनिया पूज रही है।
परिचय का नही मोहताज
यहां यह बताना भी आवश्यक है कि ये वही संजीव चतुर्वेदी हैं, जिन्होंने हरियाणा में अपनी नियुक्ति के दौरान हरियाणा के तत्कालीन हुड्डा सरकार से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सीधे टकराने का साहस दिखाया और दबाव के बावजूद भ्रष्ट तंत्र के आगे घुटने नहीं टेके।इसके बाद 28 जून 2012 को एम्स के मुख्य सतर्कता अधिकारी के तौर पर चतुर्वेदी को नियुक्ति मिली, यहां भी चतुर्वेदी ने भ्रष्टाचार के कई बड़े मामले तो निपटाए ही, साथ में भ्रष्टाचार के ही मुद्दे पर अपने से कई वर्ष वरिष्ठ आईएएस व आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ आरोप पत्र तक दाखिल कर दिये।
29 अगस्त 2016 में चतुर्वेदी के उत्तराखंड आने पर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत भी चतुर्वेदी के महारत को दखते हुए उन्हे उनके अनुभव व काबिलियत के हिसाब से नियुक्ति देने का साहस नहीं जुटा पाये और किसी तरह जान छुड़ाने की उम्मीद में 6 माह तक चतुर्वेदी को राज्य में नियुक्ति देने से बचते रहे।
किन्तु 6 माह बाद कुछ ऐसे राजनीतिक समीकरण बैठे की हरीश रावत को चतुर्वेदी को उत्तराखंड में ही इस बात का विशेष ख्याल रखते हुए नियुक्ति देनी पड़ी की चतुर्वेदी के पास कोई विशेष शक्तियां न रहें, और ऐसी जगह रिसर्च के बेहतर कहाअअं हो सकती थी !
उत्तराखंड ने किया उपेक्षित
2017 में जीरो टॉलरेंस व प्रदेश को भ्रष्टाचार मुक्त करने के वादे के साथ सत्ता पर बीजेपी काबिज़ हुई, किन्तु उसके वादे भी जुमले ही साबित हुए उस ने भी चतुर्वेदी से दूरी बनाये रखना बहेतर समझा क्योंकि सरकार को पता है कि अगर उन्होने गलती से भी चतुर्वेदी को सतर्कता विभाग में नियुक्ति दे दी तो इस का सबसे बड़ा नुकसान राजनेताओं व भ्रष्ट उच्च अधिकारियों को ही होगा, जिस का इशारा सरकार को चतुर्वेदी से सिविल सर्विसेज डे के मौके पर मिल भी गया था, जब मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने जैसे ही अपना जीरो टॉलरेंस वाला चिर–परिचित जुमला फेंका, चतुर्वेदी ने इस पर मुख्यमंत्री के सामने ही सरकार को आईना दिखाते हुए साफ कर दिया की भ्रष्टाचार को जुमले व भाषणो से मिटाना संभव नहीं है, जब तक जेई, पटवारी के बजाय बड़े अधिकारियों व नेताओं पर कार्रवाई नहीं होगी तब तक जीरो टाॅलरेंस की बात बेमानी है।
अब ऐसे जोगी को सतर्कता में नियुक्ति दे कर अपने चहेतों पर कार्रवाई का रिस्क सरकार ले भी तो कैसे !, वैसे भी बड़ी मुश्किल से 5-10 साल के इंतजार के बाद तो सत्ता मिलती है, और इस को भी अगर प्रदेश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने में खर्च कर दिया तो बचेगा ही क्या और रही बात भ्रष्टाचार मिटाने की तो जनता को जीरो टाॅलरेंस का लॉलीपॉप दे ही रखा है।