नई सरकार में मुख्यमंत्री की ही नहीं, बल्कि देश के प्रधानमंत्री की साख भी दांव पर लगी है। पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से होने वाली तुलना और प्रधानमंत्री की साख के दबाव के बीच त्रिवेंद्र रावत के सामने राज्य की चुनौतियों से पार पाने के साथ-साथ खुद को साबित करने की चुनौती है। यदि वह आरंभ से ही एक सही रोडमैप पर आगे बढ़़ते हैं तो यही चुनौतियां उनके भविष्य के लिए स्वर्णिम अवसर में तब्दील हो जाएंगी
डा. अनिल जोशी
अब उत्तराखंड का भविष्य नई सरकार की कृपा पर टिका है। इस राज्य ने बनने के बाद कभी भी सही दिशा नहीं पायी। ये सरकार और उसके नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वे राज्य को किस तरफ बढ़ाना चाहते हैं और ये बात इस पर ही तय होगी कि हमारे मार्गदर्शकों की समझ कितनी गहरी है।
राज्य की वर्तमान सरकार के पास बहुत चुनौतियां होंगी पर सबसे पहले उसे एक समीक्षा करनी ही होगी कि पिछले 16 सालों में क्या-क्या हुआ और किन कार्यों के परिणाम कुछ नहीं निकले और व्यर्थ साबित हुए और ऐसी कौन सी पहल थी जिन पर दम था, पर पिछड़ गई। अगर वर्तमान सरकार पिछली सरकार के आखिरी छोर को पकड़ कर आगे बढ़ेगी तो गड्ढे में जाना तय है। इसे पुनरावलोकन कर अपना नया रास्ता तय करना होगा, क्योंकि पिछले 16 सालों में दम भरने जैसी कोई बात नहीं बनी है।
स्थानीय संसाधनों से रुकेगा पलायन
सबसे बड़ा सवाल इस राज्य के उस बड़े हिस्से का है, जो पिछले सालों में नकारा ही गया है और गत सरकारों के नकारेपन का ही परिणाम है। इसी दौरान पलायन ने जोर पकड़ा और गांव खाली हुए। उन तमाम कारणों के प्रति समझ बनानी होगी कि इस राज्य के ही हालात ऐसे क्यों हुए कि गांवों में सन्नाटा छा गया। तीन मुख्य बातें ही इस पलायन का कारण बने हैं। कृषि, औद्योनिकी आधारित गांव की आर्थिकी पर विपरीत असर पड़ा है। हमने इसके कई कारण बताये होंगे कि जंगली जानवरों का प्रकोप, बाजारी मूल्य आदि-आदि। पर ये पूरी तरह सच नहीं है। बगल के राज्य हिमाचल प्रदेश की 15000 करोड़ की आय का आधार ही कृषि औद्यानिकी है। यहां जंगली जानवरों का प्रकोप सबसे ज्यादा है। खेती में जो होता चला आया, उसको बेहतर और बड़ा करने की आवश्यकता है। ये गांवों के उत्पादों योग्यता व सुविधाओं का हिस्सा हमेशा से है , जिसे बेहतर तरीके से लाना होगा। नये प्रयोग जैसे कि जड़ी-बूटी, एरोमेटिक खेती रोमाटिंक जरूर लगती है, पर इसके अनुभव अभी अच्छे नहीं हैं और न ही गांवों की ऐसी कोई तैयारी है। हां जो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध है, उसका संरक्षण व प्रोसेसिंग किया जाना चाहिए।
उत्पादक व बाजार का जोड़
राज्य पारिस्थितिकि दृष्टिकोण से विभिन्न कृषि व फल उत्पादकों का बड़ा लाभ उठा सकता है, जिससे लोग जुड़े भी हंै। नये प्रयोगों का कम से कम अभी रिस्क नहीं लिया जा सकता है।
दूसरा ग्राम उत्पादों की ग्रेडिंग प्रसंस्करण व बाजार ग्रिड की समुचित व्यवस्था इन उत्पादकों की राष्ट्रीय पहचान बना सकती है, इस पर समुचित गंभीरता दिखाई जाये तो सीधे-सीधे 60 प्रतिशत उत्तराखंड के लोग और उनकी समस्या का हल निकल जायेगा। आने वाले 5 साल राज्य की तस्वीर बदल देंगे। कृषि औद्यानिक क्षेत्र व उसके उत्पादकों की पहचान जोड़कर भौगोलिक लाभ उठाया जा सकता है। आर्थिकी का सिद्धांत है कि समरसता इसी बात पर निर्भर करेगी कि ऐसा काम जो ज्यादा लोग करते हो, उस पर केंद्रित होकर और प्रोत्साहित कर आर्थिक बराबरी की तरफ बढ़ सकते हैं।
शिक्षा व स्वास्थ्य की चुनौती
गांवों की स्वास्थ्य व शिक्षा पर समुचित ध्यान एक बड़ी चुनौती है। राज्य में आधे से ज्यादा पलायन का कारण दोनों ही है। अब देखिए पूरा जौनसार क्षेत्र व यमुना घाटी अपनी खेती व उत्पादों के लिए प्रसिद्ध ही नहीं, बल्कि संतुलित भी है, पर यहां पलायन के बड़े कारण उचित शिक्षा का अभाव व स्वास्थ्य है। आश्चर्य है जब एमबीबीएस डॉक्टर जैसे लोग गांवों में नहीं टिक सकते तो आयुर्वेदिक डॉक्टर को जिनकी बड़ी तादाद और इच्छा भी है, उन्हें अवसर क्यों नहीं दिया जाता! तो ऐसा ही कुछ शिक्षा को लेकर भी है। गुरू जी लोगों की तनख्वाह जब से अच्छी हो गयी, तब से वे शहरों की तरफ या उसके नजदीक रह कर आना-जाना करते हंै और उसी में दिन भी निकल जाता है। पढ़ाने के लिए समय भी नहीं बचता। सरकार को कड़े फैसले ले कर साथ में इन्सेटिव देकर इनको टिकाऊ बनाना होगा। इनको भी इनका धर्म बताना होगा कि ये जिस कार्य के लिए तनख्वाह पाते हैं, उसके अलावा किसी और कार्य में पाये जाने पर दंडित होंगे, क्योंकि इन्होंने अपनी-जगह दिहाड़ी में स्थानीय बेरोजगार रखकर अपने दायित्वों के निर्वाह का रास्ता बना लिया है।
पर्यटन रोजगार का आधार
एक बड़ा रोजगार राज्य के लिए पर्यटन हो सकता था, पर इसके दायित्व के प्रति सरकारी उदासीनता ने इसे काफी डुबाया है, इससे जुड़े तमाम अवसर इस राज्य में है। हम धार्मिक, साहसिक व पारंपरिक पर्यटन के लाभ पूरी तरह नहीं ले सकें। चार धामों को ही लीजिए, इसे सही मायनों में स्थानीय रोजगार से नहीं जोड़ सके। ये होटल, घोड़ा गाड़ी तक ही सीमित रहा। इन धर्म स्थलों का गांवों के उत्पादकों से जुड़ाव नहीं कर सके। हम स्थानीय प्रसाद, कण्डी व अन्य आकर्षक स्थानीय उत्पादकों को गांवों से जोड़ कर बड़े रोजगार खड़े कर सकते थे। गंगा यमुना नीचे बहती है, पर पर्यटकों को हम एक्वाफिना, बिसलेरी बेचते हैं।
क्या पानी बचने का बड़ा व्यापार खड़ा नहीं हो सकता था। सालभर में पर्यटक करोड़ों रुपये का पानी खरीदते हैं, पर इस और सरकार की सोच नहीं बन सकी। राज्य में सभी तरह के पर्यटनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, पर साथ में साफ निर्देश भी। स्थानीय पारिस्थतिकी से छेड़छाड़ और रखरखाव का पूरा दायित्व भी उनका ही होगा और दंड भी तय होगा। ऐसे में हम पर्यटन के आर्थिक व पारिस्थितिकी पहुलुओं के साथ ईमानदारी कर सकेंगे।
उद्योगों की जवाबदेही
दूसरा बड़़ा मुद्दा उन बड़े घरानों के उद्योगों का है, जिन्हें हमने इस लालच में राज्य में अवसर दिए कि ये राज्य की आर्थिकी की रीढ़ बनेंगे, पर सच यह है कि इन्होंने ही ईमानदारी साबित नहीं की। कई तो कर छूट के बाद भाग गये और जो बाकी जो बचे हैं, उन्होने स्थानीय युवाओं को रोजगार देने में खरापन नहीं दिखाया। इन उद्योगों का आखिर राज्य को कितना लाभ मिला या मिल रहा है, इसकी भी समीक्षा होनी चाहिए। फिर ऐसे ही उद्योगों को तवज्जो दी जानी चाहिए, जिनके कच्चे माल का उत्पादक गांव हो, ताकि उत्पादक व उपभोक्ता का रिश्ता बना रहे। कृषि औद्यानिक जड़ी-बूटी पर आधारित उद्योग आर्थिकी को बढ़ा सकते हैं। अजीब सी बात है जड़ी-बूटी सुगंधित कहलाने वाले प्रदेश के पास एक भी झंडु या वैद्यनाथ जैसे उद्योग नहीं हैं।
स्थानीय संसाधनों का सदुपयोग
इस राज्य के जल-जंगल तो दूसरे राज्यों के हित के लिए ही बने हंै, क्योंकि इन दोनो का सीधा लाभ स्थानीय नहीं उठा सके। एक को वन नीति ने हमसे दूर कर दिया और दूसरे को देश के लिए आवश्यक ऊर्जा के लिए बांधों ने। दूसरी तरफ जल ऊर्जा की छोटी इकाइयां युवाओं की कंपनियां बनाकर पैदा की जा सकती है। राज्य में उपस्थित भारतीय प्रौद्यौगिक संस्थान (आईआईटी) का हम कुछ भी उपयोग कर नही पाये। इस तरह के अन्य संसाधनों का हम आज तक कोई लाभ उठा नहीं पाए, इन संस्थानों में युवाओं को प्रशिक्षण देकर और संसाधनों के साथ जोड़कर नए रोजगार का सृजन हो सकता है।
राज्य के अपने संस्थानों पर भी बड़ा सवाल खड़ा होता है कि आखिर इनका इन 16 सालों में क्या योगदान है! इस पर भी बहस होनी चाहिए। ये मात्र शो केस के ही रूप में कार्य करते हैं। इन्हें भी नये दायित्वों के दायरे में लाना होगा, वरना ये संस्थान एक आर्थिक बोझ बन कर रह जायेंगे और अपनी ढ़पली और अपना राग अलापते रहेंगे। इनमें समन्वय हो और इनकी जिम्मेदारी राज्य के विकास में तय हो और एक टारगेट के तहत कार्य करें।
राज्य में आय के संसाधनों की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता, पर शराब-खनन ही माध्यम बने, ऐसा जरूरी नहीं है। इन दोनों के तत्काल लाभ हो सकते हंै, पर दोनों ही राज्य के लोगों और पर्यावरण के लिए हानिकारक है। खनन को तो वन निगम की तर्ज पर बदल देना चाहिए, जिसमें विभाग विशेषकर हर तरह का दायित्व तय होना चाहिए। मसलन यह विभाग ही खनन करे और अपने डिपो के माध्यम से बेचें। इससे भष्टाचार पर तो अंकुश लगेगा और साथ में पारस्थितिकी हनन नहीं होगा। इसी तरह शराब की लूट-खसोट और व्यापार में अंकुश लगाने की हिम्मत सरकार को जुटानी होगी। इन सबकी आपूर्ति उन खर्चों पर अंकुश लगा कर कटौती कर की जा सकती है, जो बोझ राजनैतिक तुष्टिकरण का हिस्सा हो। जिन्हें हम लाल-पीली बत्ती के रूप में जानते हैं। जिनका राज्य के सृजन में कभी कोई योगदान नहीं रहा।
सच तो यह है कि राज्य के पास कोई साफ रोडमैप नहीं है, जहां से जो कह सका, वह ही मुद्दा बन गया। एक गरिमापूर्ण भूमिका व गंभीरता का अभाव रहा है। नई सरकार तीन महीने समीक्षा और पुनरावलोकन में लगा कर पुराने अनुभवों को संज्ञान में लेकर अपनी रणनीति बनाने की सोचेगी तो शायद हर विभाग/संस्थान को उसका रोल, दायित्व व जबावदेही साफ-साफ आंकी जा सकेगी। सरकार को बार-बार यह तो याद रखना ही पड़ेगा कि उसका राज्य संवेदनशील है। इसीलिए उसके विकास के फॉर्मूले अन्य राज्य की तुलना में अलग ही नहीं होंगे, बल्कि उसके आर्थिकी के आयाम भी अलग-अलग ही होंगे, जिन्हें सॉफ्ट आर्थिकी पर आधारित होना होगा।
अफसरों की तय हो जिम्मेदारी
नई सरकार के पास निश्चित ही नई चुनौतियां हैं, पर उसे अपनी प्राथमिकता इस आधार पर ही करनी होगी कि राज्य का कौन सा हिस्सा विकास से अछूता है। देहरादून, रुद्रपुर, ऊधमसिंहनगर में फ्लाईओवर नहीं भी होता तो चलता पर गांव के सड़क पुल न होना ज्यादा मायने रखता है। राज्य की चमक-दमक इन दो चार शहरों तक ही सीमित है। इनके तथाकथित विकास पर ज्यादा तवज्जो न देते हुए सरकार की प्राथमिकता अब ग्रामोमुखी या अनदेखे क्षेत्र होने चाहिए। वरना आज राज्य पोलियो के मरीज की तरह हो चुका है। जिसका एक हिस्सा फूला हो तथा दूसरा हिस्सा कमजोर। ये सब तब ही संभव होगा, जब हमारे जन प्रतिनिधि सही मायने मे अपने क्षेत्र विशेष में हाजिरी रखेंगे। मुखिया इस बात के प्रति गंभीर होकर निर्देश जारी करें कि विधायकों की उपस्थिति 70 प्रतिशत अपने क्षेत्र में हो। जनसंपर्क तो रहेगा ही, पर क्षेत्र में अधिकारियों की जबाबदेही बढ़ जायेगी। सवाल ये भी खड़ा होता है कि जल, जंगल, खेत, बागवानी के अधिकारियों को देहरादून में होना चाहिए कि अपने क्षेत्र में। यह दबाब भी तभी बनेगा जब जन प्रतिनिधि की उपस्थिति क्षेत्र में होगी। राज्य के मुखिया के लिए राज्य के हालातों को जानने के लिए भी यह सबसे प्रभावी तरीका होगा कि उसके प्रतिनिधि सही प्रतिनिधित्व तो करे ही, पर साथ में ग्राउंड जीरो की परिस्थितियों की जानकारी भी रखें।
उत्तराखंड के वर्तमान हालात अच्छे नहीं हैं और अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन सब कुछ खत्म ही होने ही वाला है, क्योंकि यह राज्य देहरादूून, रुद्रपुर, रामनगर, हल्द्वानी तक ही सिमट कर रह जायेगा, फिर तो इसका नाम ही बदलना पड़ेगा, क्योंकि इन चंद शहरों को उत्तराखंड कहना, इस राज्य की गरिमा का विरोध होगा। राज्य के थके-हारे लोग व आमजन फिर भी आज देवत्व की कृपा में जी रहे हैं, क्योंकि आज तक उनके लिए कुछ न होने के बाद भी वे लगातार चुप हंै, पर अगर ऐसा लगातार हुआ तथा बड़े और कड़े कदम नहीं उठाए गये तो इनका कलंक सब पर लगेगा और उसका सबसे बड़ा टीका राजनीतिज्ञों के माथे पर ही होगा।