जगमोहन रौतेला
रामपुर तिराहे ( मुजफ्फरनगर ) में गत 2 अक्टूबर 2017 को उत्तराखण्ड आन्दोलन के शहीदों को याद करते हुए मुख्यमन्त्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने इस बात पर गहरा अफसोस जाहिर किया कि 23 साल बाद भी मुजफ्फरनगर काण्ड के आरोपियों को सजा नहीं मिल पाई है . उन्होंने इसका ठीकरा पूरी तरह से तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ( जिसके मुख्यमन्त्री तब मुलायम सिंह थे ) और केन्द्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ( तब प्रधानमन्त्री नरसिंह राव थे ) के ऊपर फोड़ा . मुख्यमन्त्री ने कहा कि इन दोनों ही सरकारों ने तब के आरोपियों का बचाव किया और जो गवाह थे उनमें से कई को रास्ते से हटा दिया . यही कारण रहा कि सीबीआई भी दोषियों को अभी तक सजा नहीं दिला पाई है।
मुख्यमन्त्री ने जिस तरह से इस मामले में बयान दिया उससे, लगता है कि वह 23 साल बाद भी उत्तराखण्ड आंदोलन की उस भयावह घटना की गम्भीरता और मार्मिकता को नहीं समझे हैं .वह भयावह घटना कोई राजनैतिक घटना नहीं थी कि नेताओं के मुँह में आरोप-प्रत्यारोप लगाने के लिए जो आया वह कह दिया . वह तब सत्ता के इशारे पर पुलिस व प्रशासन द्वारा किया गया एक जघन्य अपराध था . जिनके आरोपियों में से किसी को अभी सीबीआई कोर्ट तक से सजा नहीं हुई है . उसके बाद उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय तक के लम्बे न्यायिक सफर की तो बात ही छोड़ दीजिए ! सीबीआई की अदालत में ही बहस करते हुए 23 साल बीत गए हैं . इस बीच उत्तराखण्ड का गठन हुए भी ठीक 17 साल हो गए हैं . हर साल सत्ता में बैठे नेता 2 अक्टूबर को रामपुर तिराहे ( मुजफ्फरनगर ) जाते हैं . वहां सरकारी तामझाम के बीच घड़ियाली आंसू बहाते हैं और रामपुर तिराहा काण्ड के आरोपियों को आज तक सजा न मिलने पर मीडिया में लम्बे-लम्बे बयान देते हैं और दोषियों को सजा दिलाने की घोषणा का ढोंग करते हैं . उसके बाद देहरादून लौटकर सत्ता के गलियारों में सत्ता का आनन्द लेते हुए एक साल के लिए रामपुर तिराहा काण्ड पर शर्मनाक चुप्पी ओढ़ लेते हैं . अगले साल 2 अक्टूबर को फिर रामपुर तिराहे पहुँचकर पिछले साल कही बात को ही घुमा फिरा कर बोल देते हैं
क्या यह मामला केवल एक – दूसरे पर आरोप लगाने तक ही सीमित है ? क्या यह मामला हर साल 2 अक्टूबर को रामपुर तिराहे पहुँचकर ” शहीदों हम शर्मिन्दा हैं , तुम्हारे कातिल जिंदा हैं ” का नारा लगाने और बयान देने तक ही सीमित है ? नेताओं के हर वर्ष शहीदों को श्रद्धांजलि देने के रस्मी कर्मकाण्ड को देखकर तो ऐसा ही लगता है .अन्यथा मुख्यमन्त्री त्रिवेन्द्र रावत इस मामले में आरोप लगाने की राजनीति नहीं करते. वह भी यह सोचे-समझे बिना कि रामपुर तिराहा काण्ड के आरोपियों को अभी तक सजा न मिलने में जितना दोष कांग्रेस व उत्तर प्रदेश की तत्कालीन समाजवादी पार्टी की सरकार का है , उतना ही दोष भारतीय जनता पार्टी का भी है. वह भी इस दौरान उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड में सरकार में रही है . उसने आरोपियों को सजा दिलाने के लिए क्या किया ? क्या उसकी सरकारों , नेताओं , विधायकों व सांसदों ने इस बारे में कोई भी एक कारगर कदम उठाया ? जिससे आरोपियों को सजा दिलाने में कोई उल्लेखनीय पहल होती ?
उल्लेखनीय है कि 1 अक्टूबर 1994 की रात को उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर हजारों आन्दोलनकारी सैकड़ों बसों से दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित रैली में भाग लेने के लिए जा रहे थे . दिल्ली जा रहे निहत्थे आन्दोलनकारियों को उत्तर प्रदेश की पुलिस और प्रशासन ने मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर रोक लिया और दिल्ली जाने पर रोक लगा दी. आन्दोलनकारियों ने जब दिल्ली जाने की जिद की तो पुलिस ने बिना किसी चेतावनी के सड़क में धरने पर बैठे आन्दोलनकारियों पर गोली चला दी . जिसमें 15 आन्दोलनकारियों की मौत हुई और सैकड़ों घायल हुए . 2 अक्टूबर को मुँह अँधेरे चलाई गई गोलियों से आन्दोलनकारियों में अफरा – तफरी मच गई और इसी का अनुचित उपयोग करते हुए पुलिस व प्रशासन के कुछ लोगों ने कुछ आन्दोलनकारी महिलाओं के साथ यौन दुराचार भी किया .
इस मामले के सामने आने के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मामले का संज्ञान लेते हुए इसकी सीबीआई जांच करवाई . जिसके बाद से यह मामला मुजफ्फरनगर की सीबीआई अदालत में चल रहा है.
न्यायालय व सीबीआई ने तो अपना काम किया , लेकिन सत्ता ने कभी भी अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया . कांग्रेस हो , सपा हो , बसपा हो या फिर भाजपा हो, हर दल व उसके नेताओं ने कभी भी पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए गम्भीरता नहीं दिखाई . मजफ्फरनगर काण्ड के बाद तो सपा और उसके तत्कालीन मुखिया मुलायम सिंह यादव उत्तराखण्ड के लिए खलनायक की तरह हो गए . आज भी उत्तराखण्ड में मुलायम सिंह को उत्तराखण्ड आन्दोलन के खलनायक की तरह ही देखा जाता है . उत्तर प्रदेश में उस समय सपा और बसपा की गठबंधन सरकार थी . बाद में बसपा ने सपा सरकार से समर्थन वापस लिया तो भाजपा ने बसपा को समर्थन देकर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई , लेकिन रामपुर तिराहा काण्ड के आरोपियों को सजा दिलाने के लिए कुछ नहीं किया . उसके बाद 1996 में विधानसभा चुनाव हुआ तो उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए भाजपा को उत्तराखण्ड में 19 विधानसभा सीटों में से 17 सीटें मिली . भाजपा ने उत्तर प्रदेश में गठबंधन की सरकार बनाई . कल्याण सिंह , रामप्रकाश गुप्ता व राजनाथ सिंह पांच सालों में उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे .
इन पांच सालों में भाजपा ने कभी भी रामपुर तिराहा काण्ड के आरोपी पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों को सजा दिलाने और पीड़ितों को त्वरित न्याय दिलाने के लिए एक कदम तक नहीं उठाया . आज 23 साल बाद न्याय न मिलने के लिए विधवा विलाप करने वाले भाजपा के मुख्यमन्त्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को मालूम होना चाहिए कि तब मुख्यमन्त्री रहते हुए राजनाथ सिंह ने रामपुर तिराहा काण्ड के एक प्रमुख आरोपी आईएएस अधिकारी अनन्त कुमार सिंह को तब सलाखों के पीछे भेजने की बजाय अपना प्रमुख सचिव बनाकर पदोन्नति दी थी . और दूसरे आरोपी आईपीएस अधिकारी बुआ सिंह को भी पदोन्नति देकर आईजी बनाया था , जबकि ये लोग रामपुर तिराहा काण्ड के प्रमुख आरोपियों में थे . बुआ सिंह बाद में उत्तर प्रदेश के डीजीपी तक रहे . किसी भी प्रदेश सरकार द्वारा इस बारे में गम्भीरता से कार्य न करने और कुछ आरोपियों की मौत हो जाने के कारण अब तक चार मुकदमे बंद किए जा चुके हैं .
उत्तराखण्ड बनने के बाद जब 2007 में भाजपा की सरकार बनी तो इसके मुख्यमन्त्री भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने बुआ सिंह के मसूरी आने पर उन्हें ” राज्य अतिथि ” मानते हुए ” रेड कार्पेट ” बिछाया . आन्दोलनकारी संगठनों ने जब इसका तीखा विरोध किया तो खण्डूड़ी सरकार ने अपने कदम पीछे खींचे . अब जो पार्टी सत्ता व विपक्ष में रहते हुए रामपुर तिराहा काण्ड के आरोपियों को सलाखों के पीछे भेजने की बजाय उनकी हमराह बनी रही हो , जिसने आन्दोलन के पीड़ित लोगों व दुराचार की शिकार हुई महिलाओं को न्याय दिलाने की कभी भी पहल तक न की हो , आज उसके मुख्यमन्त्री यदि इसके लिए सिर्फ विरोधी राजनैतिक दलों को ही जिम्मेदार बताते हों तो इससे बड़ा सफेद झूठ और रामपुर तिराहा काण्ड के पीड़ित उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों के साथ इससे ज्यादा क्रूर मजाक और क्या हो सकता है ?
अपनी पार्टी का दामन पाक बताने वाले मुख्यमन्त्री त्रिवेन्द्र रावत क्या बता सकते हैं कि इन 23 सालों में उन्होंने भी अपने स्तर पर पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए क्या किया ? उन्होंने इसके लिए अपनी पार्टी पर किस तरह का दबाव बनाया ? जब 2007-2008 में मुख्यमन्त्री खण्ड़ूड़ी ने बुआ सिंह को राज्य अतिथि बनाया तो तब खण्ड़ूड़ी सरकार के कृषि मन्त्री रहते हुए त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने इसका कितना विरोध किया ? उन्होंने तब विरोध में राज्यमन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र क्यों नहीं दिया ? वे कह रहे हैं कि तब कॉग्रेस व सपा ने कई गवाहों को रास्ते से हटा दिया था . उनके पास इसके सबूत हैं तो उन्होंने कभी सीबीआई की अदालत में जाकर उन्हें पेश क्यों नहीं किया ? वे इन 23 सालों तक इस पर चुप्पी क्यों साधे रहे ? क्या पीड़ित आन्दोलनकारियों को न्याय दिलाने की उनकी कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है ? क्या उनकी जिम्मेदारी इस तरह के गम्भीर लगाने के बाद खत्म हो जाती है ?
गत 2 अक्टूबर 2017 को रामपुर तिराहे में पीड़ित आन्दोलनकारियों को न्याय दिलाने के लिए उन्होंने कोई कारगर कदम उठाने की घोषणा क्यों नहीं की ? उनकी घोषणा कांग्रेस व सपा पर आरोप लगाने तक ही सीमित क्यों रही ? क्या उनकी सरकार मामले की फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई और खुद को पक्षकार बनाने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की शरण लेगी ? क्या वह इससे सम्बंधित सारे मुकदमों को मुजफ्फरनगर से देहरादून स्थानान्तरित करने के बारे में भी उच्च न्यायालय की शरण लेगी ? अगर पीड़ित आन्दोलनकारी महिलाओं व दूसरे लोगों को न्याय दिलाने के लिए मुख्यमन्त्री त्रिवेन्द्र रावत इस तरह का कोई कदम नहीं उठाते हैं तो माना जाना चाहिए कि वे भी इस मामले में अब तक हुए दूसरे मुख्यमन्त्रियों से कोई अलग नहीं है . उनके दिल में भी उत्तराखण्ड आन्दोलन के पीड़ितों को सही में न्याय दिलाने का कोई जज्बा नहीं है . न वे उनके दुख , दर्द व पीड़ा को समझते हैं .