नौकरशाही द्वारा मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत को असफल साबित करने के प्रयास के बीच अब सरकार द्वारा तैनात अधिवक्ताओं ने भी सरकार के ढीलेपन की न सिर्फ पोल खोल दी है, बल्कि यह भी साबित कर दिया है कि प्रदेश में हालात लगातार बद से बदतर होते जा रहे हैं। अतिक्रमण से लेकर रिवर राफ्टिंग, पैराग्लाइडिंग, बोटिंग, वाटर स्पोर्ट्स, बीच कैंपिंग, कैंपिंग जैसे तमाम स्वरोजगार के साधन बंद होते गए, किंतु सरकार की ओर से तैनात लोगों ने पैरवी नहीं की।
२८ जुलाई २०१८ को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने दिल्ली से लौटकर दिल्ली से लौटकर मुख्यमंत्री आवास में एक बैठक ली, जिसमें प्रदेश के महाधिवक्ता से लेकर तमाम पदों पर बैठे लोग उपस्थित थे। इस महत्वपूर्ण बैठक का जनाजा उसी दिन तब निकल गया था, जब प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री ओमप्रकाश बैठक शुरू होने के एक घंटे बाद बैठक में आए। बैठक में मुख्य सचिव उत्पल कुमार से लेकर आईएएस राधा रतूड़ी भी मौजूद थी।
राज्य सरकार ने न्यायालय के काम देखने के लिए एक लाख रुपए प्रतिमाह से लेकर पांच लाख रुपए तक के तमाम लोग तैनात किए हुए हैं, जिनकी जिम्मेदारी है कि वे न्यायालय में सरकार का पक्ष रखें। त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद ५० से अधिक जनहित याचिकाओं में सरकार को मुंह की खानी पड़ी। एक के बाद एक फैसले सरकार के खिलाफ आ रहे हैं। एक भी ऐसा विभाग नहीं, जहां से सरकार को कोर्ट से आदेश न मिल रहे हों। ऐसा लग रहा है उत्तराखंड में डबल इंजन की नहीं, बल्कि न्यायालय की सरकार चल रही है। सरकार के हर तीसरे फैसले को न्यायालय सरकार की कमजोर पैरवी के कारण इस प्रकार हवा में उड़ा दे रहा है, मानो सरकार ने ये सब निर्णय आंख बंद कर किए हों।
इसी तरह के लगातार फैसलों से आजिज आकर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने बैठक ली और उच्च न्यायालयों में सरकार द्वारा तैनात शासकीय अधिवक्ताओं को आदेश दिए कि वे बेहतर समन्वय के साथ न्यायालय में हाजिर हों और सरकार का पक्ष रखें, ताकि बार-बार कोर्ट की फटकार न पड़े।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने यह बैठक इसलिए बुलाई, क्योंकि जिस तरह की फटकार विभिन्न मामलों में पड़ी, उनमें अधिकांश में यह देखने को मिला कि सरकार द्वारा तैनात महाधिवक्ता और चीफ स्टैंडिंग काउंसिल के साथ जिम्मेदार लोग न्यायालय में सरकार का पक्ष रखने को खड़े ही नहीं हुए। मुख्यमंत्री के इस आदेश के दो दिन बाद सरकार को एक और फटकार तब पड़ी, जब ३१ जुलाई को महिलाओं से जुड़े एक मामले में उत्तराखंड सरकार पर उच्चतम न्यायालय ने सिर्फ इसलिए एक लाख रुपए का जुर्माना लगा दिया, क्योंकि सरकार की ओर से तैनात कोई भी अधिवक्ता न्यायालय में हाजिर नहीं हुआ। न्यायालय ने यह फैसला विधवा आश्रम में रही महिलाओं को आजीविका के मामले में विशेषज्ञ समिति बनाने के प्रस्ताव पर जवाब न देने पर लगाया। न्यायालय ने एक लाख का जुर्माना लगाते हुए यह भी आदेश दिया कि यदि यह जुर्माना नहीं भरा गया तो उत्तराखंड के मुख्य सचिव को अदालत में खड़ा होना पड़ेगा। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि उत्तराखंड में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के आदेश किस प्रकार हवा में उड़ाए जा रहे हैं!
दो दिन के भीतर ही मुख्यमंत्री के आदेशों का इस प्रकार हवा में उड़ाया जाना दर्शा रहा है कि नौकरशाहों के बाद अब सरकारी अधिवक्ता भी समझ चुके हैं कि कुछ न करने के बाद उनका कुछ न बिगडऩे वाला है।