देशभर में राज्यपालों द्वारा पद की मर्यादा से बाहर जाकर अपनी और आकाओं की भद पिटवाने के सैकड़ों उदाहरण हैं कई बार इसी तरह की हरकतों के कारण राज्यपाल जैसे पद ख़त्म करने की भी माँग उठ चुकी है। कल भारत के इतिहास में एक बार फिर राज्यपाल जैसे पद की न सिर्फ गरिमा गिरी, बल्कि यह भी साफ हो गया कि राज्यपाल आज तक रबर स्टैंप से बाहर कुछ नहीं बन पाए। कल जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ्ती द्वारा सरकार गठन का पत्र जैसे ही राजभवन को भेजा गया, आनन-फानन में उसके एक घंटे बाद जम्मू कश्मीर की विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी गई।
आश्चर्यजनक रूप से राजभवन की ओर से महबूबा मुफ्ती की ओर से पत्र का फैक्स रिसीव होने से ही इंकार कर दिया गया। राजभवन द्वारा फैक्स न मिलने की बात गले नहीं उतरी कि आखिरकार महबूबा मुफ्ती के पत्र के एक घंटे के बाद राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने क्यों विधानसभा भंग करने की सिफारिश की। राज्यपाल की ओर से जो पत्र सरकार भंग करने को लेकर लिखा गया, वह और भी गंभीर है। राज्यपाल की ओर से जम्मू कश्मीर में स्थायी सरकार न होने की बात किसी के गले नहीं उतर रही।
देश के अधिकांश राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी दलों के साथ गठबंधन सरकारें हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में भी एक दर्जन से ज्यादा घटक दल हैं। ऐसे में राज्यपाल की ओर से नए गठबंधन की सरकार को अस्थायी अथवा कमजोर बताने पर सवाल खड़े हो रहे हैं। दूसरा सवाल राज्यपाल के पत्र में जम्मू कश्मीर के विधायकों की खरीद-फरोख्त का भी है कि आखिरकार जम्मू कश्मीर में वे कौन लोग थे जो विधायकों की खरीद-फरोख्त कर रहे थे और राज्यपाल के संज्ञान में था।जब देशभर में भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकारें वैध हैं तो फिर जम्मू कश्मीर में पीडीपी के नेतृत्व में सरकार बनाने का गठन करने वाला गठबंधन कैसे असंवैधानिक हो जाता है। इस बीच राज्यपाल द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के साथ मुलाकात से यह भी साफ हो गया कि राज्यपाल सत्यपाल मलिक न सिर्फ मोदी की रबर स्टैंप के रूप में काम कर रहे हैं, बल्कि उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को भी सलाम ठोकने वाला राज्यपाल यूं ही नहीं कहा जा रहा।
राज्यपाल सत्यपाल मलिक १९९६ में समाजवादी पार्टी की ओर से लड़कर चुनाव हार चुके हैं। १९८९ से ९१ तक वे जनता दल की ओर से सांसद रह चुके हैं। अब भारतीय जनता पार्टी की जोड़-तोड़ की राजनीति में शामिल हुए सत्यपाल मलिक के ताजा निर्णय से देश में राज्यपाल जैसे पद की छवि पर एक बार फिर बट्टा लगा है। सत्यपाल मलिक ऐसे अकेले राज्यपाल नहीं हैं, जिन पर सरकार का पिट्ठू बनने का आरोप लगा हो।
इससे पहले अजीज क़ुरैशी ने उत्तराखंड का राज्यपाल बनते ही बयान दिया कि वो सोनिया गांधी की कृपा से राज्यपाल बने। दिल्ली में उपराज्यपाल अनिल बैजल ने तो केजरीवाल सरकार के काम रोकने का ठेका ही ले रखा है उनसे पहले नजीब जंग भी भाजपा कार्यकर्ता की तरह ब्यहवार करते रहे दोनो को सदन में और सड़क पर भी जमकर गाली दी जाती है उत्तरप्रदेश के राज्यपाल राम नाइक योगी की तारीफ़ों में लगे हुए हैं । बूटा सिंह ,नारायण दत्त तिवारी , मोतीलाल बोरा ,रोमेश भंडारी ,सिब्ते नवी ,एसके सिन्हा ,हंसराज भारद्वाज ,जीडी तवासे ,बीएल जोशी भी राज्यपाल वाली भूमिका की भद ही पिटाई।
उत्तराखंड के संदर्भ में केंद्र सरकार की एक बार राष्ट्रपति शासन लगाने की मंशा पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा फटकार पडऩे के बाद जम्मू कश्मीर के ताजा हालात से जोड़कर भी देखा जा रहा है कि यदि महबूबा मुफ्ती हरीश रावत की भांति सुप्रीम कोर्ट जाती है तो राज्यपाल सत्यपाल मलिक की सत्यनिष्ठा साफ हो जाएगी।
राज्यपालों द्वारा इस प्रकार सरकार की गोद में बैठने से यह बात तो साफ हो गई कि राज्यपाल जैसे पद सिर्फ सरकार की गोद में बैठने के लिए बनाए जाते हैं।