यूं तो त्रिवेंद्र रावत के पास ५७ विधायकों वाली सरकार है, तो भी सार्वजनिक मंचों से लेकर तमाम कार्यक्रमों में उनके मंत्रियों व विधायकों के साथ तमाम नोकझोंक दर्शाती है कि उत्तराखंड में हर दिन कुछ न कुछ जरूर पक रहा है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत और कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत के बीच मंच पर ही हुई नोकझोंक के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत का यह कहना कि वे पांच साल तक मुख्यमंत्री रहेंगे अपने आप में दर्शाता है कि उनके मुंह से पांच साल तक मुख्यमंत्री पद पर बने रहने की बात के पीछे कोई न कोई ऐसा डर जरूर है, जो उन्हें ऐसा कहने को मजबूर कर गया।
पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से लेकर अजय भट्ट और भगत सिंह कोश्यारी के स्टिंग मास्टर उमेश कुमार के पक्ष में खड़ा होने से त्रिवेंद्र रावत पहले से ही असहज हैं। दो महीने पहले पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निश्ंाक के देहरादून आवास पर 27 विधायकों के साथ टी पार्टी और हाल ही में संपन्न निकाय चुनाव में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की डोईवाला नगरपालिका, मदन कौशिक का हरिद्वार नगर निगम और अजय भट्ट के रानीखेत में तब हार हुई है, जबकि तीनों ने अपनी पसंद से प्रत्याशी तय किए थे।
पौने दो साल के कार्यकाल में मंत्रिमंडल की खाली सीटों से लेकर तमाम निगमों, परिषदों और बोर्डों के खाली पद अब त्रिवेंद्र रावत को चिढ़ा रहे हैं कि आखिरकार प्रदेश की माली हालत पहली बार इतनी कमजोर कैसे हो गई कि वर्षों से भाजपा का झंडा डंडा बोकने वाले कार्यकर्ता किनारे बैठे हुए हैं।
निकाय चुनाव में नगरपालिकाओं, नगर पंचायतों से लेकर पार्षदों और सभासदों के लिए भी भाजपाईयों की बजाय दूसरे दलों से लाकर चुनाव लड़वाने से भाजपा का एक बड़ा गुट बुरी तरह खफा है। हालात इसी तरह झूलते जा रहे हैं और मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के निर्णय कई बार उल्टे पड़ रहे हैं। निलंबित किए गए आईएएस चंद्रेश यादव की बहाली से लेकर स्टिंग मास्टर उमेश कुमार के मसले में न्यायालय द्वारा पड़ी फटकार से मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत पर अपने ही दल से अब सवाल खड़े होने लगे हैं।
उत्तराखंड में राजनैतिक अस्थिरता और महत्वाकांक्षा का दौर ९ नवंबर २००० को उसी दिन शुरू हो गया था, जब भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के सामने देहरादून के परेड ग्राउंड में पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में भाजपा के कद्दावर नेता पहुंचे ही नहीं। तब से लेकर उत्तराखंड में एक दूसरे को गिराने-पछाडऩे की राजनीति बदस्तूर जारी है।
चार बार के विधायक और कैबिनेट मंत्री रहे केदार सिंह फोनिया ने अपने संस्मरण में एक ऐसा खुलासा किया है। फोनिया के अनुसार ”९ और १० नवंबर २००० के बीच को रात्रि के ठीक एक बजे जब मैं घोर निद्रा में था तो त्रिवेंद्र सिंह रावत महामंत्री उत्तरांचल भारतीय जनता पार्टी का फोन आया। उन्होंने कहा कि दिल्ली से डा. मुरली मनोहर जोशी जानना चाहते हैं कि भारत सिंह रावत, मातवर सिंह कंडारी, केदार सिंह फोनिया और मोहन सिंह रावत गांववासी क्यों निशंक को मंत्री बनने से रोकना चाहते हैं। मैं अद्र्धनिद्रा में समझ नहीं सका कि क्या कह रहे हैं और फिर पूछने पर उन्होंने वही बात दोहराई। मैंने उनसे कहा हम अपने लिए ही आश्वस्त नहीं हैं तो किसी दूसरे को बनाने या न बनाने के मामले में कौन होते हैं। यह काम तो पार्टी का है, जिसको चाहेगी, वह बन जाएगा। महामंत्री के रूप में त्रिवेंद्र रावत की छवि एक गंभीर अनुभवी जिम्मेदार व्यक्ति की है। वह कोई गैर जिम्मेदार बात नहीं कर सकते थे। इसलिए हम सभी उनका सम्मान करते थे। अत: मुझे यह भी शक हुआ कि कहीं त्रिवेंद्र सिंह रावत के नाम से किसी और की शरारत तो नहीं, लेकिन मैं तो त्रिवेंद्र जी की आवाज पहचानता था। सुनिश्चित होने के लिए उनसे दोबारा पूछा तो उन्होंने टेलीफोन वार्ता को सही बताते हुए कहा कि दिल्ली से मुरली मनोहर जोशी जानना चाहते थे। जोशी जी को यह बात किसने कही, इस पर उन्होंने कोई बात नहीं कही।ÓÓ
आज भी अद्र्धरात्रि का वह टेलीफोन मेरे लिए राज बना हुआ है कि आखिर इस टेलीफोन का राज क्या था? मेरे मन में प्रश्न उठा कि क्या हम लोग ऐसा ही उत्तरांचल बनाना चाहते हैं। त्रिवेंद्र जी भी दुखी थे क्योंकि वे भी एक प्रगतिशील उत्तरांचल का स्वप्न संजोये थे। मुझे लगा कि यह घटना उनके मनोवृत्ति से मेल नहीं खा रही थी, लेकिन उन्होंने संभवत: अन्यों से भी जानकारी ली होगी।
केदार सिंह फोनिया की पुस्तक उत्तरांचल से उत्तराखण्ड में प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता के ऐसे दर्जनों उदाहरण भरे पड़े हैं जो वर्तमान राजनीति को और बेहतर तरीके से समझने का ज्ञान देते हैं।