प्रसिद्ध समाजसेवी बिहारी लाल जी का 18 मार्च की सायं 6-7 बजे निधन हो गया है।
स्वनामधन्य बिहारी लाल उत्तराखंड के समाज सेवकों की अग्रिम पंक्ति में हैं। देश के सर्वोदय कार्यकर्ताओं के बीच में इनकी विनम्रता, सरल स्वभाव और उल्लेखनीय समाज कार्य को बहुत आदर भाव से देखा जाता है। युवावस्था में ही सुन्दरलाल बहुगुणा, विनोवा भावे, जयप्रकाश नारायण, ई0 डब्लु0 और आशा देवी आर्य नायकम, राधाकृष्णन, ठाकुरदास बंग, प्रेम भाई, निर्मला गाँधी, सरला बहन, कनक मल गाँधी, हेमवती नन्दन बहुगुणा आदि से सम्पर्क हो गया था।
इनके पिता भरपुरु नगवाण सन् साॅतर के दशक तक डोला पालकी, दलितों को मंदिर प्रवेश, शराब वन्दी, आदि सामाजिक कार्याें में अहम भूमिका निभाई है। बचपन के पिता के इस काम से प्रेरित होकर विहारी लाल देश के सर्वाेदय आन्दोलन से जुडे लोगों के साथ शामिल हो गये थे। महात्मा गाँधी के सेवाग्राम आश्रम प्रतिष्ठान वर्धा (महाराष्ट) में नई तालीम की शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त वहां पर अध्यापन का कार्य किया है। इसके बाद बेडछी विद्यापीठ गुजरात में शिक्षक पद में रहे हैं। विभिन्न सर्वोदय संगठन के बीचे शिक्षण-प्रशिक्षण, रचनात्मक कार्यक्रमों से लेकर विनोवा भावे के भूदान-ग्रामदान के आन्दोलन के कार्यकर्ता के रूप मे काम किया है। गांधी आश्रम के साथ जुड़कर खादी का प्रचार प्रसार व बिक्री को उन्होने विद्यार्थी जीवन में ही टिहरी, उत्तरकाशी, नरेन्द्र नगर में प्रारम्भ की थी।
सन् 1971-72 गांधी शान्ति प्रतिष्ठान नई दिल्ली से जुडकर राधाकृष्णन व प्रेम भाई के सहयोग से बांग्लादेश की आजादी के समय मिदनापुर-किशोरीपुर में एक लाख शरणार्थियों को भोजन, निवास के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य की विशेष सुविधाएं इन्होने उपलब्ध करवायी शरणार्थियों के प्रत्येक परिवार में सुन्दर कीचन गार्डन बनाया, जिसकी सब्जी मिदनापुर में बिकती थी। यहां पर सामुदायिक शौचालय और स्वच्छता का इतना उच्च स्तर का काम था कि हर रोज मीडिया में इसके समाचार छपते रहते थे। जब शान्ति स्थापित होने लगी तो बांग्लादेश के शरणार्थियों को घर तक पहुंचाने का काम भी इनकी टीम ने उत्साह पूर्वक किया है। शरणार्थियों की सेवा के बाद बनवासी सेवाश्रम मिर्जापुर में लम्बे समय तक नई तालीम का काम किया है।
जून 1975 में जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति में शामिल होकर बिहार के प्लामू जिले में एक महिने से अधिक समय तक साथियों के साथ जेल में रहे है। बाद में सम्पूर्ण क्रान्ति का संदेश देश भर में पहँुचाने के लिए कई स्थानों की यात्राएं की है। टिहरी में अपना गांव रगस्या (बूढाकेदार नाथ) को विद्यार्थी जीवन में छोडकर सेवाग्राम पढ़ाई के लिए पहुँचे। तभी से उनके मन में यह सोच बनी रहती थी कि कब वह अपने गांव लौटकर नई तालीम की शुरुवात करेगा? जब उन्हें गांव लौटनेे का मौका मिला तो उन्होने विनोवा भावे, आशा देवी आर्य नायकम, निर्मला गाँधी, राधाकृष्णन, सुन्दर लाल बहुगुणा से आर्शीवाद लेकर सन् 1977 में अपने गाँव लौट गये थे। घर में पहुँचने पर गाँव के लोग उन्हें वर्षाें बाद खादी कुर्ता पैजामा और गोरे चेहरे के रूप में पाकर बहुत अधिक खुश हुए, फिर उन्होने गाँव के लोगो को साथ लेकर लोक जीवन विकास भारती की स्थापना की। यह स्थान धर्म गंगा, बाल गंगा, मेड नदी के संगम पर है। यहां पर सबसे पहले बापू की बुनियादी तालीम चलाने के लिए एक केन्द्र का निर्माण किया। इस केन्द्र में प्रारम्भ से अब तक औसतन 50-100 छात्र-छात्राएं नई तालीम की शिक्षा ग्रहण करते रहे हैं। बडे़ बाँधों के विकल्प के रूप में मेड़ नदी पर 40 किवा की छोटी पनबिजली का निर्माण करवाया जिससे रात को उजाला मिलने के अलावा तेलघानी, लेथ मशीन, काष्ट कला प्रशिक्षण के लिए आरा मशीन, वेल्डिंग, लोह कला आदि की सुविधाएं भी आम जनता को मिलने लगी।
पानी से चलने वाले इस सफल प्रयोग के बाद अगुंडा और गेवांली गांव में 50-50 किवा की छोटी पनबिजली बनाकर रोशन हुये। ये छोटी पनबिजली 90 के दशक में ऐसे वक्त बनी जब टिहरी बाँध का बिरोध चल रहा था। उस समय बुढ़ाकेदार जाकर कई मीडिया के साथी टिहरी बांध के विकल्प के रूप में इनकी छोटी पनबिजली का जीता जागता उदाहरण अखबार की सुर्खियों में खूब छपता रहता था। साथ ही टिहरी बांध विरोध के धरना स्थल पर जाकर बडे़ बाँध का विरोध करते रहे हैं। गाँव-गाँव में ग्राम वन व्यवस्था को मजबूत करने के लिए वन चैकीदार की प्रथा को पुर्नजीवित करके दर्जनों गांव मे चारा पत्ती के लिए बांज के जंगल विकसित हुए हैं। नई तालीम के विद्यार्थियों को शिल्पकला से जोड़ने के लिए जैविक खेती, उद्यानीकरण, काष्टकला, लोह कला, कताई-बुनाई, पशुपालन आदि सिखाया गया है। क्षेत्र में कई लोग पढ़ाई के साथ शिल्प कला को सीखकर आत्म निर्भर हुए हैं। जिस समय उन्होने गांव में काम की शुरुआत की तो सबसे बड़ी समस्या साथ में रह रहे कार्यकर्ताओं के आजीविका के लिए आर्थिक स्त्रोत जुटाना था। इसके लिए उन्होने सड़क, नहर आदि निर्माण कार्य में लगे मजदूरों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया और उनके लिए श्रम संविदा सहकारी समिति बनाकर ठेकों का सीधा लाभ मजदूरांे को दिलवाया और स्वयं भी मजदूरी करके लोगों की सेवा के लिए पैसे कमाये। भिलंगना ब्लाॅक के दूरस्थ गाँव में घास-फूस वाले मकानों की छतों को पटाल की छतों की रूप में रूपान्तरित किया है। जिससे महिलाओं को पीठ के बोझ से मुक्ति मिली है। क्योंकि घरों की छत पर लगने वाली सलमा घास के लिए महिलाओं कों तीखे व खतरनाक चट्टानों से गुजरना पड़ता है। कई महिलाएं पहाड से गिरकर मरती थी। इतना ही नहीं गाँव में जंगल जाने वाले रास्तों पर बोझ को थामने वाले रेस्ट प्लेटफाॅर्म जिसे बिसूण कहते हैं, बनाये गये।
चैत्र मास में दलित महिलाओं का घर-घर नाचना बन्द करवाया और उन्हें श्रम संविदा सहकारी समिति से जोड़कर रोजगार उपलब्ध करवाया है। चिपको आन्दोलन के दौरान बाल गंगा और धर्म गंगा के जल ग्रहण क्षेत्रों के हरे वृक्षों को बचाने के लिए सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तर्ज पर वन काटने वाले ठेकेदारों व मजदूरों को स्थानीय बाजार व गांव से राशन-पानी आदि दैनिक आवश्यकताओं पर रोक लगायी गयी थी जिसके कारण वन काटने वाले मजदूर उल्टे पांव वापस गये। इस तरह के अनेकों काम हैं जो विहारी लाल के नेतृत्व में हुए, जिसके लिए उन्होने कभी न तो पुरस्कार के लिए फार्म भरवाया और हमेशा प्रचार-प्रसार से दूर रहकर मौन सेवक की तरह समाज कार्य की भूमिका निभा रहें हैं।