रवांई घाटी में आज से मनाया जाएगा देवलांग पर्व 

रवांई घाटी की अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और अनूठे पर्वो के लिए विशेष पहचान रखती है। जनपद उत्तरकाशी की रवांई घाटी में भी कई लोक परंपराएं ऐसी है, जो पूरे देश से अपनी विशिष्ट पहचान बनाती है, जहां देशभर में कार्तिक महीने में दीपावली मनाई जाती है, वहीं पहाड़ों में ठीक एक माह बाद मंगसीर की दीवाली बड़े उत्साह और पौराणिक रीति रिवाजों के साथ मनाई जाती है।

गैर बनाल स्थित रघुनाथ देवता मंदिर में हर वर्ष प्रसिद्ध देवलांग महापर्व, मनाया जाता है जिसे उत्तराखंड सरकार ने राजकीय मेला घोषित किया है। इस वर्ष यह भव्य आयोजन 20 नवंबर को होगा, जिसके लिए तैयारियां जोर-शोर से चल रही है। मेला समिति की ओर से विशाल भंडारे की भी व्यवस्था की गई है।

लोक मान्यता के मुताबिक मंगसीर की बग्वाल गढ़वाली सेना की तिब्बत विजय का उत्सव है। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि सन 1627-28 में गढ़वाल के राजा महिपत शाह के शासनकाल में तिब्बती लुटेरे लगातार सीमाओं में घुसपैठ कर लूटपाट करते थे। इस पर महान वीर सेनापति माधो सिंह भण्डारी ने चमोली के पैनखंडा और उत्तरकाशी के टक्नौर क्षेत्र में सेना भेजी थी। गढ़वाली सेना ने विजय पताका फहराते हुए तिब्बत तक भारतीय ध्वज गाड़ दिया था। इसी अप्रतिम विजय की खुशी में सदियों से यह पर्व मनाया जाता है।

यह भी मान्यता है कि भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने की सूचना पर्वतीय क्षेत्रों में एक माह बाद पहुंची थी। इसलिए यहाँ दीपपर्व एक माह देर से मंगसीर की बग्वाल या बूढ़ी दीवाली के रूप में मनाया जाता है। रवांई घाटी, जौनपुर, जौनसार, बावर, शिलांग ठकराल के मणपाकोटी और धनारी क्षेत्र में यह परंपरा आज भी उसी श्रद्धा और हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाता है।

‘देवलांग’ दुनिया की सबसे लंबी मशाल

 

बनाल पट्टी के गैर बनाल स्थिति रघुनाथ देवता मंदिर परिसर में देवलांग महापर्व मुख्य आकर्षण का केन्द्र है हजारों लोगों की भक्तिमय उपस्थित में तैयार और प्रज्ज्वलित की जाने वाली विशाल देवलांग, जिसे दुनिया की सबसे लंबी मशाल माना जाता है। इस परंपरा में हर वर्ग और गांव की अहम भूमिका होती है। जानकारी के अनुसार ग्राम गौल के लोग उपवास रखकर बियांली बीट के जंगलों से देवदार का एक लंबा व हरा वृक्ष चुनकर लाते है। वृक्ष को बिना शीर्ष खंडित किए ढोल-नगाड़ों के साथ मंदिर परिसर तक पहुंचाया जाता है। इसके बाद रावत थोक उपवास रखकर पूरे वृक्ष पर बड़े कौशल से सिल्सी (मशाल लपेटने वाली विशेष घास/रस्सी) बांधकर देवलांग तैयार करते है। मध्यरात्रि के बाद, बनाल पट्टी के लोग अपने गाँवों से ढोल-दमाऊं की थाप रणसिंघा की कर्ण प्रिय ध्वनि और जलती मशालों के साथ मंदिर परिसर में एकत्र होते है। गैर के नटाण बंधु और बियाली के खबरेटी इस परंपरा को पूरी शुचिता और पवित्रता के साथ निभाते है। देवलांग को क्षेत्र की एकता, पवित्रता, साहस और समृद्धिलोक परम्परा का प्रतीक माना जाता है।

Read Next Article Scroll Down

Related Posts