डाॅक्टरी की पढाई तमिलनाडु में चार हजार। उत्तराखंड में चार लाख। छात्रों की जेब काटकर नये काॅलेज खोलेगी सरकार
शुरुआत में उत्तराखंड के नए राज्य होने एवं प्रदेश में मुख्यत: पहाड़ी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा बदहाल होने के कारण 2013 तक MBBS पाठ्यक्रम के लिए फ़ीस का प्रावधान 15,000 रुपए पहाड़ी क्षेत्रों में सेवा देने के बांड भरने के साथ तथा बांड न भरने वालों को हतोत्साहित करने के लिए उनकी फ़ीस 2,50,000 रखी गई। 2013 में सरकार ने एक संसोधनात्मक सरकारी आदेश पारित कर इस फ़ीस को 40,000 बांड सहित एवं 4,00,000 बांड रहित कर दिया। कुछ साल बाद बांड सहित फ़ीस को बढ़ाकर 50,000 कर दिया गया। जबकि बांड रहित फ़ीस 4 लाख़ ही रही।
यह क्रम 2018 में प्रवेश लेने वाले छात्रों तक रहा।
अब तक इस फ़ीस में किसी ने गंभीर आपत्ति नहीं जताई क्योंकि फ़ीस देय एवं सही थी। अन्य राज्यों/मेडिकल कॉलेजो जैसे तमिलनाडु में INR 4000/-, महाराष्ट्र में INR70900/-जेएनयू व एएमयू अलीगढ़ में INR 39990/- आईएमएसबीएचयू वाराणसी में INR 74874/-, गोवा मेडिकल कॉलेज पणजी में INR 89500/-, एम्स में INR 5856/- जिपमर(JIPMER) में INR 11620/- तथा इसी प्रकार अन्य प्रदेशों जैसे हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं पंजाब जैसे प्रदेशों में बिना बॉन्ड की सुविधा के भी ये शुल्क ज्यादा से ज्यादा 50 हजार से 70 हजार रुपए प्रतिवर्ष है यानी ज्यादा से ज्यादा 3 लाख रुपए में पूरा कोर्स करना संभव है।
लेकिन, 2019 में 26 जून को सरकार का एक आदेश पारित होता है कि उत्तराखण्ड में MBBS के उपरांत सेवा देने के लिए रखे गए पदों में से अधिकांश भर चुके हैं और जो बचे हैं उनके लिए बहुतायत में बांड भरकर
विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। इसलिए अब बांड की सुविधा को खत्म किया जाता है और अगर भविष्य में कुछ कमी होती है तो चूंकि राजकीय मेडिकल कॉलेज श्रीनगर(और भविष्य में खुलने वाला राजकीय मेडिकल कॉलेज अल्मोड़ा) पहाड़ में स्थित है तो वहां बांड की सुविधा अभी भी ऐच्छिक है।
जुलाई 2019 में राज्य चयन प्रक्रिया (counselling) का परिणाम घोषित होता है और चाहते या ना चाहते हुए 425 उम्मीदवारों को केवल 3 राजकीय मेडिकल कॉलेजों में सीट दे दी जाती है।
अब 300 सीटों पर राजकीय मेडिकल कॉलेज देहरादून और हल्द्वानी में बच्चों के पास 2 विकल्प हैं। नियत समय में 4 लाख़ फ़ीस भरकर प्रवेश ले लें या अपनी सालों की मेहनत को भूल जायें। समय की पाबंदी के कारण तमाम अन्य विकल्प ख़तम हो गए। प्रवेश के समय किसी भी तरह 4 लाख़ दे चुके छात्रों को अब साढ़े चार साल तक ये फ़ीस सालाना देनी पड़ेगी। अब विद्यार्थियों ने संगठित होकर बाकी देश के राज्यों की फ़ीस की जांच की तो पाया कि उनकी तरह बाकी राज्यों में प्रवेश लेने वाले छात्रों को सिर्फ़ 50 से 60 तक फ़ीस देनी पड़ रही है जबकि उनकी तो 7 से 8 गुना अधिक है।
जब इन छात्रों के अभिभावों ने मिलकर स्वास्थ्य सचिव को देहरादून में ज्ञापन दिया तो सचिव पहले से ही पूरी तैयारी और एक बैंक के अध्यक्ष के साथ बैठे थे। उन्होंने अभिभावकों को बताया कि सभी तीनों कालेजों के (425) छात्रों को वो सब्सिडी वाली फ़ीस में नहीं पढ़ा सकते।( तमिलनाडु में सर्वाधक 23 राजकीय मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें सभी कॉलेजों में फ़ीस 4000 रुपए सालाना है)
साथ ही स्वास्थ्य सचिव ने बताया कि अल्मोड़ा का मेडिकल कॉलेज अगले सत्र से खुलने को तैयार है ( हालांकि वर्तमान 3 कॉलेजों की हालत में ही अभी बहुत सुधार की जरूरत है) और तीन और मेडिकल कॉलेज भविष्य में बनाए जाने हैं। इसलिए फ़ीस कम नहीं की जा सकती।
जबकि हकीकत यह भी है कि मेडिकल कॉलेजों को खोलने के लिए 90% ग्रांट केंद्र सरकार ने स्वीकृत की है उत्तराखंड सरकार को मात्र 10% थी खर्च करना है यह 10% भी सरकार छात्रों की जेब से वसूलना चाहती है। सरकार की यदि नीति और नियत सही होती तो सरकार को यह 10% भी अपनी जेब से नहीं भरना पड़ता। इस 10% को लेबर पार्ट में बदल कर के मनरेगा योजना से काम करा कर यह पैसा भी केंद्र सरकार से लिया जा सकता था। लेकिन देश में सर्वाधिक फीस वसूलने वाली राज्य सरकार की नीति और नियत दोनों पर ही प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं।
यदि सरकारी शैक्षणिक संस्थान भी इतनी ज्यादा फीस लेने लगेंगे तो मध्यम वर्ग से आने वाले होनहार विद्यार्थी कैसे मेडिकल कॉलेजो में शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। साथ ही EWS एवं गरीब परिवार से आए हुए विद्यार्थी कहां जाएंगे? क्या उत्तराखंड में गरीबों को मेहनत से अर्जित की हुई सीट लेने के बावजूद मेडिकल एजुकेशन प्राप्त करने का हक नहीं है? क्या एक मध्यम व आर्थिक रूप से पिछड़े परिवार के लिए इतनी भारी फ़ीस हर साल दे पाना संभव है? अब सब छात्र एवं अभिभावक साथ आकर अपनी फ़ीस जो कि अब बिना किसी विकल्प के 4 लाख़ है उसे बाकी राज्यों की तुलना में देय बनाने की मांग सरकार, मीडिया एवं सभी जो इसमें मददगार हो सकते हैं, उनसे कर रहे हैं।