राजनीति के खेल इतने निराले हैं कि व्यक्ति अपनी ही कही बातों पर कैसे पलटी मार जाए कब मुकर जाएं कहा नहीं जा सकता । उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत और मंत्री सतपाल महाराज इन दिनों अपनी कही बातों से पलटी मारने के लिए चर्चा में है।
उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार थी तो सतपाल महाराज हरीश रावत को गरियाने से कभी बाज नहीं आते थे। सतपाल महाराज ने तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत को 29 मई 2015 को एक पत्र लिखा और उत्तराखंड के सरकारी अस्पतालों को पीपीपी मोड पर देने में भारी आपत्ति जताई यह किस प्रकार का घोटाला है और कहा कि कैसे उत्तराखंड के स्वास्थ्य पर इसका कुप्रभाव पड़ेगा। सतपाल महाराज ने इस पत्र को जारी करते वक्त कई सारे टीवी चैनलों को भी अपने टीवी बाइट दी।
सतपाल महाराज ने अपने बयान में अस्पतालों को पीपीपी मोड में देने पर गंभीर सवाल उठाए कि ऐसा करने से जनता के हक मारे जाएंगे। अपने पत्र में सतपाल महाराज ने लिखा कि उत्तराखंड सैनिक बाहुल्य प्रदेश है और सैनिकों के परिजन सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाते हैं, ऐसे में सरकारी अस्पतालों को पीपीपी मोड में देने पर उन्हें दिक्कत आएगी। महाराज में लिखा कि पीपीपी मोड एक ठेकेदारी व्यवस्था है और यहां गरीबों को इलाज नहीं मिलता। इन अस्पतालों में जाने पर अब गरीब आदमी अपने को ठगा सा महसूस करने लगा है। सतपाल महाराज द्वारा तब उठाए गए गंभीर सवालों से काफी दिन तक बवाल भी हुआ। उत्तराखंड में भाजपा की सरकार बनी तो सतपाल महाराज प्रदेश के पर्यटन मंत्री बने उनके मंत्री बनने के बाद उत्तराखंड के सरकारी अस्पतालों के एक के बाद एक पीपीपी मोड पर जाने का सिलसिला शुरू हो गया।
डोईवाला से लेकर टिहरी और देहरादून से लेकर पौड़ी कोई भी ऐसा नहीं, जहां सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं को पीपीपी मोड में देने का काम न किया हो, किंतु चूंकि अब सतपाल महाराज मन्त्री के रूप मे लाखों रुपए भरकम वेतन लेकर उसी सरकार के मंत्री हैं, इसलिए मुंह पर ताला लग गया है।
ऐसा नहीं कि अपने मुद्दों से भागने में दही सिर्फ सतपाल महाराज के मुंह में जमी हो। उत्तराखंड के प्रचंड बहुमत के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की प्रोफाइल में उनका बायोडाटा छपा हुआ है। हर चुनाव में वे अपना प्रचार प्रसार के एजेंडे में लगातार कहते रहे हैं कि उन्होंने एमबीबीएस की फीस 200000 से घटाकर 15000 करवाई। आज वही त्रिवेंद्र रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने पहली बार विधायक बनने के बाद लगातार इस बात को दोहराया है कि वह गरीबों के मसीहा हैं। गरीबों के बच्चे डॉक्टरी की पढ़ाई कर सकें। इसलिए उन्होंने ₹200000 की फीस को 15000 करवाया। त्रिवेंद्र रावत के समर्थक भी इस बात पर खूब गला साफ करते रहे हैं।
उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तराखंड में जो मेडिकल की शिक्षा चंद हजार में उपलब्ध थी, आज वह सिर्फ उन्हीं अमीरों की होकर रह गई है, जिनकी बात कहकर त्रिवेंद्र रावत अपने लिए वोट मांगने जाते थे। राज्य सरकार ने उसी 15000 की फीस को आज ₹400000 कर दिया है और प्राइवेट कॉलेजों में तो 1 साल में एमबीबीएस की फीस ₹21000 तक जा चुकी है। अर्थात एमबीबीएस की पढ़ाई करने के लिए कम से कम एक करोड़ रुपए चाहिए।मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत से आज कोई यह भी नहीं पूछ रहा कि कल का गरीब और सामान्य बच्चों के लिए जो उनका एजेंडा आज उन्हीं के मुख्यमंत्री बनने के बाद आखिरकार कैसे बदल गया? क्या यह उनका अपना निर्णय है या हाईकमान की ओर से उन्हें ऐसा करने के लिए कहा गया है? कुछ भी हो उनके द्वारा न्यूनतम ₹400000 करने के बाद कम से कम गरीब और सामान्य परिवार का बच्चा मेडिकल की पढ़ाई करने की सोच भी नहीं सकता। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत और आजकल उनके राइट हैंड बनी पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज को यह बात जरूर स्पष्ट करनी चाहिए कि क्या उन लोगों का एजेंडा सिर्फ जनता को बरगलाने के लिए था? या फिर वह तब सत्ता से बाहर थे, इसलिए जनता को मूर्ख बन्नाने के लिये। इन दोनों नेताओं के उदाहरण सहित दिए गए इन दोनों वक्तव्य से समझा जा सकता है की उत्तराखंड की जनता को बरगलाना कितना आसान है और इन पर शासन करना उससे भी आसान।
प्रदेश में मेडिकल की फीस ₹400000 प्रति वर्ष करने के मुद्दे पर विज्ञापन के टुकड़ों ने मीडिया का गला बन्द कर दिया है। साथ ही मृत अवस्था में आईसीयू में आखरी सांस ले रही उत्तराखण्ड कांग्रेस के भी जुबान पर ताला पड़ गया है। जिसके लिये किशोर उपाधाय्य मीडिया आन्दोलन से सूखी लकड़ी का इन्तजाम कर रहे हैं।
बहरहाल उत्तराखंड सरकार द्वारा मेडिकल की शिक्षा को अब सिर्फ अमीरों के लिए बनाने से यह बात स्पष्ट हो गई है कि नेताओं की कथनी और करनी में कितना अंतर होता है और जब करने का अवसर होता है तो व्यक्ति क्या कर जाता है।