यमुना के जल बंटवारे पर चल रही पुरानी व्यवस्था अब उत्तराखंड के लिए सिरदर्द बन चुकी है। राज्य को जितने पानी का अधिकार मिलना चाहिए, उसका करीब 32 प्रतिशत हिस्सा कम मिल रहा है—और यही सबसे बड़ा सवाल है। आखिर पहाड़ों से निकलने वाली नदियों पर उत्तराखंड का हक कम क्यों हो रहा है?
इसी गंभीर असमानता को लेकर उत्तराखंड ने केंद्र सरकार के सामने दो-टूक मांग रखी है कि राज्य को उसका पूरा और वास्तविक हिस्से का पानी मिले, ताकि सिंचाई से लेकर पानी की उपलब्धता तक, हर मोर्चे पर न्याय हो सके।
दरअसल उत्तराखंड सरकार ने यमुना नदी के जल बंटवारे में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की मांग एक बार फिर मजबूती से रखी है। राज्य का कहना है कि वर्तमान समय में उसे अपनी जरूरत की तुलना में करीब 32 प्रतिशत कम पानी उपलब्ध हो रहा है। इस मुद्दे को प्रदेश के सिंचाई मंत्री सतपाल महाराज ने नोएडा स्थित उपरी यमुना नदी बोर्ड की नौवीं कार्यकारी समिति की बैठक में विस्तार से उठाया।
बैठक में जलशक्ति मंत्रालय, जल संसाधन प्रबंधन विभाग, गंगा संरक्षण संगठनों और उपरी यमुना बोर्ड के विभिन्न अधिकारियों ने हिस्सा लिया। बैठक की अध्यक्षता केंद्रीय जलशक्ति मंत्री सोमनाथ पाटिल ने की।
महाराज ने कहा कि 1994 में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश), हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली के बीच हुए समझौते के अनुसार water sharing तय की गई थी। लेकिन वर्ष 2000 में उत्तराखंड अलग राज्य बनने के बाद भी जल विभाजन में संशोधन नहीं हुआ और राज्य को आज भी कम पानी मिल रहा है।
राज्य ने अपने पक्ष में कहा कि उत्तराखंड का योगदान और यहाँ उपलब्ध जल स्रोतों को देखते हुए मौजूदा हिस्सेदारी 0.311 एमएएफ की जगह 0.032 एमएएफ अतिरिक्त मिलनी चाहिए।
महाराज ने बैठक में यह भी बताया कि उत्तराखंड को लखवार और किशाऊ जैसे प्रोजेक्ट्स के कारण जलाशयों के दुष्प्रभावों का भार उठाना पड़ रहा है। ऐसे में सिंचाई सुविधाओं के विस्तार और जल उपलब्धता में सुधार के लिए उचित जल आवंटन आवश्यक है।
बैठक में दिल्ली के सिंचाई मंत्री स्वतंत्र सिंह, हरियाणा के जल संसाधन मंत्री जगत प्रकाश और राजस्थान से प्रतिनिधि सुरेश सिंह रावत भी मौजूद रहे।


