योगेश भट्ट
शुक्र मनाइये ‘सरकार’ कि थराली उपचुनाव में किसी तरह गिरते पड़ते सीट बच गयी । नतीजा जीत का न आया होता तो अब तक ‘ज्वालामुखी’ फट भी चुका होता । यह तो नहीं कहा जा सकता कि थराली उपचुनाव में भाजपा के ही लोग भाजपा को हराने में जुटे थे, लेकिन यह सच है कि भाजपा के नेता कार्यकर्ता भी चाहते थे कि थराली उपचुनाव से नेतृत्व को एक सबक जरूर मिले । सरकार थराली उपचुनाव के बाद भले ही ‘आल इज वेल’ मानने लगे, लेकिन ऐसा है नहीं । सरकार के खिलाफ नाराजगी आम से लेकर खास तक हर वर्ग में बढ़ रही है ।
डेढ़ साल पूरा होने जा रहा है, सरकार अभी तक मंत्रिमंडल ही पूरा नहीं कर पायी है । स्वास्थ्य, पीडब्लूडी, ऊर्जा जैसे अहम विभागों में अलग से मंत्री नहीं है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं की कोई पूछ नहीं है, उनका सब्र भी अब जवाब देने लगा है । अपनी ही डबल इंजन सरकार को लेकर उनमें निराशा ही नहीं बल्कि अवसाद घर करने लगा है । व्यवस्थाएं जस की तस चल रही हैं । कई मौकों पर तो लगता है कि प्रचंड बहुमत की सरकार को चंद नौसिखये ओएसडी और सलाहकार चला रहे हैं । सरकार को लेकर किसी में अब कोई ‘उत्साह’ नजर नहीं आता। चिंताजनक यह है कि राज्य की सियासत के इतिहास में पहला ऐसा मौका है जब सरकार पर ही क्षेत्रवाद और जातिवाद के सवाल उठने लगे हैं। किसी भी सरकार की साख के लिये यह सही संकेत नहीं हो सकते ।
दरअसल सरकार चलती है भरोसे से, दूरदर्शिता से, सबको साथ लेकर चलने की नीति से, मंत्रिमंडल के सहयोगियों के साथ सही तालमेल से, संवाद से और बेहतरीन समन्वय से । सही मायने में सरकार चलाना एक कला है, एक टीम वर्क भी है ।
सरकार न ‘मैं और मेरा’ से चलती है और न ‘प्रतिशोध की भावना’ से, सरकार ‘अपने-पराये’ का भेद भी नहीं करती। क्षेत्रवाद-जातिवाद, भाई-भतीजावाद और परिवारवाद से सरकार का कोई सरोकार नहीं होता। यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना कतई नहीं है, लेकिन कुछ तो कमी है जो इस ‘सरकार’ में ‘सरकार’ जैसी बात नजर नहीं आती ।
जिस प्रदेश में मंत्री असहज, विधायक नाखुश, विपक्ष मुखर, नौकरशाही खेंमेबंदी में, कर्मचारी गुस्साये, और युवा तमतमाये हों तो कैसे यह मान लिया जाए कि सबकुछ पटरी पर है । कोई एक नाम अपवाद के तौर पर छोड़ दिये जाएं तो मुख्यमंत्री के रिश्ते अपने मंत्रियों के साथ ही सहज नहीं हैं। हकीकत यह है कि फिलवक्त मुख्यमंत्री पर हाईकमान का वृहदहस्त है और वह मोदी और शाह की पहली पसंद हैं । इसलिये उनसे सीधे टकराने की हिम्मत किसी में नहीं है । जबकि हालात सरकार के भीतर ही विस्फोटक बने हुए हैं, दिनोंदिन स्थिति और गंभीर होती चली जा रही है।
हाल ही के दिनों की घटना है, राजधानी में प्रभारी मंत्री की बैठक में एक विधायक ने अधिकारियों द्वारा जनप्रतिनिधियों की अनदेखी और उपेक्षा का मुद्दा सार्वजनिक तौर पर उठाया। मसला तब और गर्मा गया, जब मंत्री संबंधित अधिकारी के बजाय विधायक को ही नसीहत पिलाने लगे। माननीय विधायक तमतमाते हुए बैठक छोड़कर निकल गए, होना कुछ नही था मसला आया गया हो गया । इस तरह की घटनाएं प्रदेश में अब तो आए दिन सुनायी देने लगी हैं। सिर्फ विधायक ही क्यों हालत यह है कि मंत्रियों तक की कोई सुनवाई नहीं है । विभागीय अधिकारी अपने मंत्री तक की सुनने को तैयार नहीं हैं । सरकार में बड़े कद के एक मंत्री मुख्यमंत्री से मिलने पहुंचे तो वहां पहले से मौजूद एक अधिकारी टस से मस नहीं हुईं । और तो और मुख्यमंत्री ने भी जरूरी नहीं समझा कि अधिकारी को निर्देशित किया जाए और न अधिकारी की ओर से ही सामान्य शिष्टाचार निभाया गया। साफ है कि सामान्य शिष्टाचार को लेकर नौकरशाह बेपरवाह हैं। यह हाल तब हैं जबकि कुछ इसी रवैये से आहत कुछ माननीय विधायकों ने कुछ समय पहले मुख्यमंत्री से मिलकर अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके थे। कुल मिलाकर नौकरशाही का या तो सरकार की शह है या फिर उस पर नियंत्रण नहीं है ।
कहा तो यह जा रहा है कि सिस्टम पर नौकरशाही हावी है जबकि सच यह है कि नौकरशाही में भी अंदरखाने जबरदस्त असंतोष है । शुरुआती दिनों में यह चर्चा आम रही कि सरकार में नौकरशाह ओमप्रकाश सत्ता के केंद्र में हैं । काफी हद तक इस चर्चा में दम भी था इसीलिये ओमप्रकाश को लेकर सवाल भी आज भी उठते हैं, लेकिन आज स्थिति यह है कि सत्ता के केंद्र में राधिका झा भी हैं । सरकार के तमाम फैसलों में राधिका झा की भूमिका मुख्यमंत्री के सचिव की हैसियत से बेहद अहम बनी हुई है । मसला अहम औहदों पर तैनाती का हो या फिर नीतिगत मसलों का, राधिका झा का जबरदस्त दखल है दबी जुबां में सत्ता के गलियारों में यह आम चर्चा है। इसी के चलते नौकरशाही में खेमेबंदी है । पूरी नौकरशाही ओमप्रकाश व राधिका झा की पसंद और नापसंद में बंटी हुई है । इस खेमेबंदी का नुकसान कहीं न कहीं सिस्टम को भुगतना पड़ रहा है, निजी तौर पर मुख्यमंत्री की छवि भी इससे प्रभावित हो रही है । हालांकि सिस्टम के जानकारों का मानना है कि इस सरकार में ऐसी नौबत नहीं आनी चाहिए थी । नौकरशाही अक्सर कमजोर सरकारों में ही हावी होती है, लेकिन राजनैतिक तौर पर यह एक स्थिर और मजबूत सरकार है। इस लिहाज से सिस्टम पर और नौकरशाही पर इस सरकार का तो अलग ही दबदबा होना चाहिए था।
इसमें कोई दोराय नहीं कि ‘सरकार’ अपनी इमेज बनाने में नाकाम रही है । सरकार की इमेज रोल बैक और कमजोर इच्छाशक्ति वाली सरकार की बन चुकी है। जबकि मौजूदा सरकार के साथ सौभाग्य था कि इस वक्त प्रदेश के उच्च पदों पर साफ सुथरी छवि के अधिकारी हैं । मुख्यसचिव उत्पल कुमार सिंह , पुलिस प्रमुख अनिल कुमार रतूड़ी और वन प्रमुख जयराज जैसे साफ छवि के अफसरों के बावजूद सरकार कोई संदेश नहीं दे पा रही है । सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति का नतीजा है कि इसके बावजूद व्यवस्थाएं राज्य सचिवालय से लेकर हर महकमे में बेलगाम है । सरकार का न प्रशासन पर नियंत्रण है और न कानून व्यवस्था पर । व्यवस्था बस मुख्यमंत्री के चंद विश्वसनीय नौकरशाहों और चाटुकार सलाहकारों के भरोसे चल रही है । मुख्यमंत्री का दायरा बेहद सीमित हो चला है, आम व्यक्ति से तो दूर अपनी पार्टी के विधायकों और नेताओं तक से संपर्क संवाद कटता जा रहा है । मुख्यमंत्री के राजनैतिक व मीडिया प्रबंधकों की भूमिका पर सवाल खड़े हो रहे हैं, यहां तक कहा जा रहा है कि जानबूझकर मुख्यमंत्री के इर्द गिर्द घेरा तैयार कर दिया गया है। कई मौकों पर तो उन तक न तो सही सूचनाएं पहुंचती है और न सही फीडबैक दिया जाता है।
‘सरकार’ के पक्ष में हालांकि एक ‘दलील’ यह दी जा सकती है कि त्रिवेंद्र सरकार ने बिगड़ी व्यवस्था को पटरी पर कर दिया है । भ्रष्टाचार कम हो गया है, लूट थम गयी है, सत्ता के गलियारों में दलालों की आवाजाही बंद है । यह कोरा प्रचार मात्र है, सच्चाई यह है कि बंद कुछ नहीं हुआ । कोई काम ऐसा नहीं है जो पुरानी सरकारों में हो रहा था और अब नहीं हो रहा हो । उत्तराखंड में सरकारों के बदनाम होने या यूं कहें कि खेलने के लिये बेहद सीमित संसाधन हैं जिनमें शराब और खनन का कारोबार और जमीन मुख्य है । इसके अलावा कुछ बचता है तो वह है तबादले और सरकारी ठेके । क्या शराब और खनन के खेल में इस सरकार को दामन साफ है ? अगर साफ है तो क्यों सरकार की नीति पर सवाल उठ रहे हैं । खनन के पट्टे और स्टोन क्रेसरों की फाइलें होनी अगर बंद हो गयी हैं, तो कैसे नयी जगहों पर खनन चालू हो रहा है और कैसे पहाड़ में नए स्टोन क्रेसर लग रहे हैं ? क्या अफसरों और इंजीनियरों के तबादलों का खेल बंद हो गया है । पहले ट्रांसफर होना और बाद में रुक जाना, इस सरकार में भी सामान्य सी बात है । मनपसंद पोस्टिंग और मलाईदार महकमों के लिये आज भी सियासी कनेक्शन अनिवार्य है । मास्टरों के गुपचुप तबादले, अटैचमेंट और प्रतिनियुक्त का खेल प्रदेश में आज भी जारी है । डाक्टरों को पहाड़ से वापस उतारने में यह सरकार भी पीछे नहीं, बस पहुंच और पकड़ मजबूत चाहिए ।
कहने को सरकार पारदर्शी तबादला कानून का राग अलाप रही है लेकिन यह साफ हो चुका है कि तबादला कानून महज शो पीस है, जो सिर्फ नाममात्र के लिये है। होना आखिरकार वही है जो सरकार की मर्जी है । साल भर का ‘हनीमून पीरियड’ काट चुकी त्रिवेंद्र सरकार पर भी आज उतने ही सवाल हैं, जितने पुरानी सरकारों पर थे । जमीनों का खेल हो या ठेकों की बंदरबांट और संसाधनों की लूट, सरकार का दामन कहीं भी पाक साफ नहीं है । फर्क सिर्फ इतना है कि इस सरकार में व्यवस्थाएं केंद्रीयकृत हैं, जो होता है उसका हल्ला भी नहीं होता । छोटे खेल सरकार गुपचुप तरीके से करती है, कानों कान किसी को खबर तक नहीं होती । जबकि बड़े खेलों में सरकार दिल्ली के इशारे पर ही हरकत करती है। यहां सरकार का अपना कोई दम नहीं, सरकार का एजेंडा, प्राथमिकताएं और उन पर अमल सब कुछ दिल्ली के भरोसे है । सरकार उतनी ही चलेगी जितना कि हाईकमान चाबी भरेगा ।
चलिये एक नजर उस पर भी जिसके लिये ‘सरकार’ बनायी जाती है, जिसके दम पर ‘सरकार’ बनती है । जी हां जनता, प्रदेश में इस जनता की मूल जरूरत शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मुद्दे पर यह सरकार हवाई बातों से आगे नहीं बढ़ पायी है । आश्चर्यजनक यह है कि आम लोगों के हितों की बात करते वक्त सरकार एक ओर आर्थिकी का रोना रोती है, मितव्ययता की बात करती है । दूसरी ओर पलायन आयोग जैसी बिना सिर पैर की संस्थाएं गढ़ती हैं । विधायक मंत्रियों की तनख्वाह बढ़ाने, विदेश में सैर सपाटे पर यह तर्क नजरअंदाज कर दिया जाता है ।
प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं के हाल दिनोंदिन बदतर होते जा रहे हैं, निजी अस्पतालों के फायदे के लिये सरकारी अस्पतालों की बलि दी जा रही है । सरकारी अस्पतालों की छोड़िये सरकारी मेडिकल कालेज तक बदहाल हैं । पहाड़ से मरीज देहरादून में भटकने और निजी अस्पतालों में लुटने को मजबूर हैं, दुर्भाग्य यह है कि इस पर भी इलाज की कोई गारंटी नहीं । सड़क पर प्रसव की घटनाएं आज भी कम नहीं हुई हैं । शिक्षा का हाल यह है कि विभागीय मंत्री बयान बहादुर बने हुए हैं। प्रदेश में एनसीईआरटी लागू कराने पर मंत्री वाहवाही तो लूटते हैं मगर समय पर स्कूलों को छात्रों को किताबें तक मुहैय्या नहीं करा पाते । साल भर बाद भी स्कूलों व शिक्षा के स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है ।
उच्च शिक्षा की तो फिलवक्त बात करना भी बेइमानी है, इस पर सरकार का कोई जोर नहीं । रहा सवाल रोजगार का, तो प्रदेश में तकरीबन 60हजार पद खाली होने के बावजूद सरकार युवाओं को स्वरोजगार का उपदेश दे रही है । जिस कौशल विकास कार्यक्रम का ‘डंका’ पीटा जा रहा है अंदरखाने उसमें बड़े खेल की तैयारी चल रही है। राज्य में खाली पदों के भरने की तो कोई उम्मीद नहीं है । संविदा की नौकरी करने वालों पर भी तलवार लटकी है । यह हैं प्रदेश के हालात इसके बाद भी अभी कहने सुनने को बहुत कुछ बाकी है, तो आप ही बतायें कैसे कहा जाए ‘आल इज वैल’ ?