पशुपालकों को नहीं मिल पा रहे चुगान के परमिट, भेड़-बकरियों के चुगान का संकट
नीरज उत्तराखण्डी/पुरोला
वन विभाग ने नए चरवाहों को चरान-चुगान के परमिट देना बंद कर दिया है। ऐसे में उत्तरकाशी जनपद में यमुना घाटी के मोरी, पुरोला व नौगांव इलाके में भेड़-बकरी पालकों के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो गई है।
दरअसल सर्दियों में पहाड़ों में बर्फ पड़ जाती है तो अक्टूबर से मार्च तक भेड़-बकरी पालक अपनी हजारों भेड़-बकरियों को लेकर चुगान के लिए मसूरी, कालसी, लांगा व रायपुर आदि वन विभाग के निचले इलाकों में ले जाते हैं। भेड़पालकों के समक्ष समस्या यह है कि सीमित क्षेत्रफल में पुराने पशुपालकों को तो परमिट मिल जाते हैं, लेकिन नए भेड़पालकों को चुगान के परमिट नहीं मिल रहे हैं। ऐसे में उन लोगों के सामने चुगान का संकट उत्पन्न हो गया है।
इस क्षेत्र के लोगों का कृषि एवं पशुपालन आर्थिकी की रीढ़ है। वर्तमान में मोरी में ५३४९४ भेड़ व २६३०४ बकरियां, पुरोला में ६१५२ भेड़, जबकि ७३९२ बकरियां एवं नौगांव में ६८४२ भेड़ों के अलावा २७८८५ बकरियां हैं, जिन पर तीनों विकासखंडों के सैकड़ों परिवार निर्भर हैं।
भेड़पालक सरदार सिंह, ठाकुर सिंह, उमपाल सिंह व रणदेव कुंवर सामुहिक रूप से कहते हैं कि उन्होंने इस संबंध में कई बार वन विभाग के अलावा सरकार से भी मांग की, लेकिन उनकी मांग पर कोई कार्यवाही नहीं हो पाई। वह कहते हैं कि अब प्रदेश की नई सरकार से उम्मीद है कि वह उनकी मांग पर जरूर विचार करेगी।
सरकार स्वरोजगार को बढ़ावा देने की बात कह रही है, लेकिन स्वरोजगार से जुड़े लोगों का रोजगार टूटने की कगार पर है। यही कारण है कि यमुना घाटी में बहुतायत रूप में भेड़-बकरी पाले जाने के बावजूद भेड़पालकों की आर्थिकी नहीं सुधर पा रही है।
भेड़पालक त्रेपन सिंह रावत कहते हैं कि उदाहरण के लिए इस वर्ष उनके पास २०० भेड़-बकरियां होंगी तो स्वाभाविक है कि अगले वर्ष यह बढ़कर ३०० हो जाएंगी। विभिन्न वन क्षेत्रों में बकरियों की गिनती के हिसाब से सीमित क्षेत्रफल में चुगान की अनुमति मिली हुई है। सवाल यह है कि अगले वर्ष जब उनकी १०० बकरियां बढ़ जाएंगी तो वह उन्हें कहां चुगाएंगे। इसके अलावा एक बड़ी समस्या यह है कि जैसे किसी व्यक्ति को किसी रेंज की परमिट मिली हुई है। अब उनके दो पुत्रों को मिलाकर तीन परिवार हो गए हैं। सभी परिवारों की भेड़-बकरियां भी अलग-अलग हो गई हैं, लेकिन वन विभाग पिता को तो पुराने परमिट से उसे चुगान की अनुमति दे देता है, लेकिन उसके पुत्रों को नए परमिट नहीं दिए जा रहे हैं। ऐसे में पुश्तैनी पेशे से स्वरोजगार करने वाले दर्जनों लोगों को भेड़-बकरी चुगान के परमिट न मिलने से भारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
त्रेपन सिंह कहते हैं कि उन्होंने कई बार मुख्य वन संरक्षक से लेकर वन विभाग तक में अपनी समस्या से अवगत कराया, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिल पाई। वह बताते हैं कि वन विभाग की बेरुखी के चलते स्वरोजगार अपनाने वाले युवा बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं।
यही नहीं भेड़ पालकों उपेक्षा का इस बात से भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि भेड़ मर जाने के बाद इन्हें बीमा कंपनियों के चक्कर काटने पड़ते हैं, किन्तु विभिन्न बीमा योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है।
चरवाहों को परमिट न देने के सवाल पर प्रभागीय वनाधिकारी कालसी सुरेंद्र कुमार का कहना था कि नए परमिट देने संबंधी प्रक्रिया ऊपरी स्तर से होती है। इसके बारे में जिलाधिकारी ही बेहतर बता सकते हैं। मौजूदा वर्ष के सापेक्ष अगले वर्ष चरवाहों की भेड़-बकरियों में वृद्धि होने के सवाल पर सुरेंद्र कुबहरहाल भेड़पालकों की उम्मीद अब नई सरकार पर टिकी हैं। देखना यह है कि वह इस समस्या का निस्तारण किस तरह करती हैं।