गढ़वाल विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में हुई मतगणना में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अध्यक्ष की हार के बाद गढ़वाल विश्वविद्यालय के कुलपति ने चुनाव निरस्त कर दिए जाने की घोषणा कर दी।
मीडिया ने जब प्रभारी कुलपति अन्नपूर्णा नौटियाल से पुनर्मतगणना के परिणामों के विषय में बात की तो कुलपति सिर्फ इतना ही बता पाई कि चुनाव निरस्त हो गए हैं।
अवैध पाए गए 71 वोट किस प्रत्याशी के पक्ष में थे, यह बताने से कुलपति ने साफ इंकार कर दिया।
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कुलपति की बॉडी लैंग्वेज से साफ साफ पता लग रहा था कि वह मतगणना में एबीवीपी प्रत्याशी की हार से या तो बहुत दुखी हैं या तो बहुत डरी हुई हैं।
इसलिए वह कुछ नहीं कह पा रही। कुलपति की बॉडी लैंग्वेज एक निष्पक्ष प्रशासक की तो बिल्कुल नहीं थी।
ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह एक हताहत सिपाही की हार की घोषणा कर रही हैं।
अहम् सवाल यह है कि आखिर अवैध पाए गए सभी के सभी 71 वोट एबीवीपी के बैनर तले अध्यक्ष बने प्रत्याशी के ही पक्ष में क्यों थे !
निवर्तमान छात्र संघ अध्यक्ष का कहना है कि यह फर्जीवाड़ा विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने ही किया है और वह भी इस फर्जीवाड़े के खिलाफ कोर्ट जाएंगे।
इधर ‘जय हो’ ग्रुप के प्रत्याशी अमित प्रदाली का भी कहना है कि “जब पुनर्मतगणना में परिणाम उनके पक्ष में आया तो फिर उन्हीं को अध्यक्ष घोषित किया जाना चाहिए था। चुनाव निरस्त कराने का कोई भी औचित्य नहीं बनता।”
प्रदाली ने कहा कि वह इस फैसले के खिलाफ फिर से हाई कोर्ट जाएंगे। चुनाव निरस्त होने के बाद दोनों प्रत्याशी गड़बड़ी का ठीकरा विश्वविद्यालय के अधिकारियों के के सर फोड़ते हुए कोर्ट जाने की बात कह रहे हैं।
गौरतलब है कि आज पुनर्मतगणना में जो 71 बैलेट अवैध पाए गए वे हल्के कागज के और थोड़ा अलग रंग के थे। आखिरकार एबीवीपी प्रत्याशी के पक्ष में ही इन पत्रों को शामिल कराने के पीछे कौन हो सकता है ! जाहिर है कि इसके पीछे भाजपा का ही राजनीतिक हस्तक्षेप था जो विश्वविद्यालय के अधिकारी कर्मचारियों के माध्यम से अंजाम दिया गया।
एबीवीपी के प्रत्याशी रहे तथा निवर्तमान अध्यक्ष संदीप राणा का कहना है कि इस मामले की एसआईटी जांच कराई जानी चाहिए। एबीवीपी प्रत्याशी का कहना है कि मतगणना के दिन जितने मत थे, उससे अधिक मत पुनर्गणना में कैसे निकल आए !
जबकि अमित प्रदाली कहना है कि जब फर्जी मत एबीवीपी प्रत्याशी के खाते में हैं तो चुनाव निरस्त न कराकर उनका चयन निरस्त कराते हुए दूसरे नंबर के प्रत्याशी को अध्यक्ष घोषित किया जाना चाहिए।
अहम सवाल यह भी है कि आखिर विश्वविद्यालय प्रशासन ने पहले ही पुनर्मतगणना क्यों नहीं कराई ! यदि वाकई विश्वविद्यालय प्रशासन पुनर्मतगणना कराने का इच्छुक था तो फिर सुरक्षा व्यवस्था उपलब्ध कराना तो जिला प्रशासन का काम था। आखिर अमित प्रदाली को हाई कोर्ट क्यों जाना पड़ा ! विश्वविद्यालय प्रशासन पर यह सवाल भी खड़े हो रहे हैं कि जब एक छात्र संघ चुनाव की पुनर्मतगणना कराना और निष्पक्ष चुनाव कराना भी विश्वविद्यालय प्रशासन के बस की नहीं है तो फिर विश्वसनीयता कहाँ रह जाती है !