योगेश भट्ट
प्रदेश में तबादला कानून को लेकर अपने ‘मियां मिट्ठू’ बनी त्रिवेंद्र सरकार बेपर्दा हो गयी है। यह साबित हो गया है कि सरकार का मकसद सिर्फ कोरी वाहवाही लूटना है । सरकार के पास न दूरगामी सोच है और न मजबूत इच्छाशक्ति । दिलचस्प यह है कि अपने ही बनाये कानून पर सरकार नहीं टिक पा रही है । कानून के मुताबिक तबादलों की तारीख निकल चुकी है, लेकिन सरकार अपने फैसले के मुताबिक दस फीसदी तबादले भी समय पर नहीं कर पायी ।
हर महकमे में घमासान मचा है । कहीं रसूखदारों, ऊंचे ओहदेदारों और असरदारों ने कोहराम मचाया है तो कहीं तबादलों में व्यवहारिक दिक्कतें आ रही हैं । तबादलों को लेकर चल रही कवायद के बाद शिक्षा से लेकर चिकित्सा, लोक निर्माण, ऊर्जा, समाज कल्याण, पंचायती राज, ग्राम्य विकास, आबकारी, परिवहन आदि तमाम विभागों में तबादला कानून सवालों के घेरे में है । जो हालात नजर आ रहे हैं उसके मुताबिक सरकार का तबादला कानून पहले ही पायेदान पर ‘फेल’ हो चुका है । सच यह है कि तबादला कानून को लेकर सरकार ने अभी तक जितनी वाहवाही बटोरी है, अब उतनी ही ‘किरकिरी’ होने जा रही है । चौँकाने वाली बात यह है कि सरकार अमल से पहले इस कानून में संशोधन की तैयारी में है ।
सरकार के बहुप्रचारित तबादला कानून पर बड़े से लेकर छोटे तक हर किसी की नजरें टिकी हुई हैं। अभी तक हाशिये पर टंगे लोग इस कानून से बड़ी उम्मीद लगाए बैठे हैं। इन उम्मीदों को पहला झटका तो उस वक्त लगा जब सरकार ने यह फैसला लिया कि रिक्तियों के सापेक्ष इस साल मात्र दस फीसदी की तबादले होंगे । बाकी बची उम्मीदें उस वक्त धराशायी हो गयी जब तबादले की तारीख निकल गयी और दस फीसदी तबादले भी नहीं हुए । हैरत की बात यह है कि सरकार पिछले कुछ समय से जिस तबादला कानून का ‘ढोल’ पीट रही है, वह तमाम विभागों के लिये आज अव्यवहारिक बना हुआ है । आलम यह है कि जितने विभाग उतनी ही दिक्कतें । जिस शिक्षा विभाग को खासतौर पर ध्यान में रखते हुए यह कानून तैयार किया गया, उसमें भी तबादला कानून पर रार है । यहां दुर्गम सुगम का निर्धारण ही टेढ़ी खीर बना हुआ है । हालांकि कानून का सीधा मतलब होता है सबके लिए एक बराबर होना, लेकिन यह कानून प्रदेश में सबके लिये एक बराबर का नहीं है। सरकार खुद भी ऐसा नहीं चाहती है। रसूखदार और लंबी पकड़ वाले या तो इस कानून के दायरे से बाहर हैं या फिर बाहर आने का रास्ता बना रहे हैं । यही कारण है कि यह कानून सिर्फ हाथी दांत बनकर रह गया है ।
देर से ही सही लेकिन अब सवाल यह है कि जिस तबादला कानून पर इतनी माथापच्ची चलती रही वह धरातल पर उतरते वक्त इतना अव्यवहारिक क्यों साबित हुआ ? साफ है या तो सरकार में कानून पर अमल कराने की इच्छाशक्ति का अभाव है या फिर कानून बनाने से पहले होमवर्क में कहीं कमी रही है। कारण जो भी हो सवाल सरकार की मंशा संदिग्ध बन हुई है । ऐसा लगता है कि राजनैतिक कारणों के चलते सरकार ने स्थानांतरण कानून बना तो दिया लेकिन सरकार की इस पर इच्छाशक्ति मजबूत नहीं है। हालांकि आशंका पहले से जताई जा रही थी कि जब इस कानून के अंतर्गत नियमावली बनेगी तो कानून की हवा निकाल दी जाएगी । उसमें ऐसे रास्ते खोल दिये जाएंगे जिसमें रसूखदारों को कोई दिक्कत न हो। आखिरकार हुआ भी यही तबादला कानून पर अग्निपरीक्षा में सरकार फेल हो गयी। कई विभागों में तो तबादला कानून के मुताबिक तबादलों से पहले ही खेल हो चुका है । बड़े पैमाने पर पहले ही मनचाहे तबादले कर दिये गए ताकि वह तबादला कानून के दायरे में ही न आएं ।
इधर पिछले कुछ समय से तबादला कानून को लेकर अपनी तारीफ में सरकार ने ऐसा प्रचार अभियान छेड़ा हुआ है, मानो कोई बहुत बड़ा ऐतिहासिक काम कर दिया हो । लाखों रुपया इसके प्रचार में खर्च किया गया है । दावा किया जा रहा है कि सरकार ने तबादला कानून से सरकारी अधिकारी कर्मचारियों के लिये पारदर्शी स्थानांतरण व्यवस्था तय की है । इसे बेहद प्रभावी और कड़ा बनाया गया है । तबादला कानून पर अपनी पीठ थपथपाने का सरकार ने अभी तक कोई मौका नहीं छोड़ा । हर मंच से हर मौके पर सरकार ने इसे अपनी बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित किया । इसमें भी कोई शक नहीं कि तबादला कानून के अमल में आने से पहले सरकारी प्रचार से इस कानून को लेकर एक माहौल भी तैयार हुआ है । लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार ने जो माहौल बनाया है वह हवा हवाई है, एक धोखा है ।
सच्चाई यह है कि खुद सरकार ही दुश्मन इस कानून की दुश्मन बन बैठी है। तबादला कानून पर अमल का वक्त आया तो सरकार खुद अपने कदम पीछे खींचने लगी है । इस साल मात्र दस फीसदी तबादले के फैसले से सरकार ने तमाम रसूखदार और सिफारिशियों को तबादला कानून की मार से बचा लिया । अब यह प्रचारित किया जा रहा है कि विभागों में तबादला कानून लागू करने में तमाम व्यवहारिक दिक्कतें पेश आ रही हैं । हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि इसकी आड़ में तबादला कानून में संशोधन की बात उठने लगी है । किसी कानून के अमल में आने से पहले उसमें संशोधनों की बात उठने लगे तो दीगर है कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है । जहां तक संशोधनों का सवाल है तो संशोधन अक्सर नियम कानूनों को लचीला करने के लिये ही होते रहे हैं । जाहिर है तबादला कानून में विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए मुख्यमंत्री अगर कोई संशोधन करते हैं, तो वह कहीं न कहीं कानून को लचीला करने के लिये ही होगा । कुल मिलाकर जो कसरत चल रही है, उससे साफ है कि सरकार अब खुद अपने तबादला कानून की हवा निकालने में लगी है।